सर्वोच्च न्यायालय ने सिनेमा घरों में ‘राष्ट्रगान’ के गाये जाने को अनिवार्य बनाये जाने के अपने ही पुराने नवम्बर 2016 के फैसले को संशोधित कर इसे ऐच्छिक बनाये जाने का आदेश दिया है। इससे राष्ट्रभक्ति के नाम पर हुड़दंग मचाने वाले एेसे लोगों पर लगाम लगेगी जिन्होंने राष्ट्रगान के नाम पर लोगों की राष्ट्रीयता को ही चुनौती देने का अभियान जैसा चला दिया था। गौर से देखा जाये तो न्यायालय के पुराने आदेश में मनोरंजन स्थलों को भी राष्ट्रभक्ति के प्रदर्शन का केन्द्र माना गया था। सिनेमा शुरू होने से पहले राष्ट्रगान गाकर आखिरकार हम सिद्ध क्या करना चाहते हैं? फिल्मी मनोरंजन के साथ राष्ट्रगान को जोड़कर हम किस तरह राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन कर सकते हैं? सिनेमाघर में जब कोई भी व्यक्ति फिल्म देखने जाता है तो वह स्वयं को विभिन्न मानसिक दबावों से मुक्त करने के लिए जाता है। वहां जाकर भी उसे अगर यह सिद्ध करना पड़े कि वह राष्ट्रभक्त है तो पूरी निष्ठा के साथ एेसा काम करने में सक्षम नहीं हो सकता क्योंकि राष्ट्रगान कुछ अनुशासन की अपेक्षा करता है और सिनेमा घरों में व्यक्ति या दर्शक केवल सिनेमा घर के अनुशासन में ही रहना चाहता है जबकि राष्ट्रगान एेसा गायन होता है जो हर व्यक्ति को पूरी सावधान मुद्रा में रखकर मानसिक स्तर पर राष्ट्र समर्पण के प्रति सचेत करता है, दूसरी तरफ सिनेमा घर उसे मनोरंजन के लिए आमन्त्रित करता है।
अतः मानसिक द्वंद की स्थिति में व्यक्ति राष्ट्रगान के प्रति न्याय करने की स्थिति में नहीं रह पाता। अतः एेसे स्थल पर हम राष्ट्रगान को क्यों अनिवार्य बनायें जहां बैठकर व्यक्ति तीन घंटे के लिए ‘रूमानियत’ में खो जाना चाहता है? लोकतन्त्र में किसी भी सरकार को व्यक्ति का यह अधिकार छीनने का हक नहीं है क्योंकि इस व्यवस्था का आधार व्यक्ति के निजी गौरव और सम्मान की रक्षा पर टिका हुआ है जबकि इसके विपरीत कम्युनिस्ट शासन या तानाशाही शासन के दौरान उसका यह अधिकार भी सरकार के पास गिरवी रख दिया जाता है। कम्युनिस्ट प्रणाली व तानाशाह देशों में ही एेसी व्यवस्था लागू की जाती है जिसमें पग-पग पर व्यक्ति को अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देना होता है। इसका उदाहरण भारत में इमरजेंसी का वह दौर है जो 25 जून 1975 से 18 महीने तक चला था। तब भी सभी सिनेमा घरों में राष्ट्रगान का गाया जाना जरूरी कर दिया गया था जबकि इसके विपरीत लोकतान्त्रिक भारत में राष्ट्रभक्ति को हर व्यक्ति द्वारा अपने दिलो-दिमाग में हर वक्त ताजा दम रखने का भी उदाहरण है। 1965 व 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय प्रत्येक सिनेमाघर में स्वयं ही राष्ट्रगान गाने की प्रणाली शुरू कर दी गई थी। तब हर दर्शक पूरे सम्मान के साथ राष्ट्रगान गाकर गर्व का अनुभव करता था। इससे यही सिद्ध होता है कि भारत के लोगों को अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का पूरी तरह ध्यान है और वे जानते हैं कि वक्त की मांग के साथ उन्हें किस तरह बदलना है परन्तु इमरजेंसी में लोग सिनेमा घरों में राष्ट्रगान गाये जाने को एक थोपी हुई औपचारिकता से ज्यादा नहीं समझते थे।
अतः राष्ट्रगान का सम्बन्ध कहीं न कहीं मनोविज्ञान से भी जुड़ा हुआ है। स्कूलों में जब शिक्षा कार्य शुरू होने से पहले विद्यार्थियों से सामूहिक रूप से राष्ट्रगान गवाया जाता है तो उन्हें इसके नियम व अनुशासन से भी परिचित कराया जाता है और हिदायत दी जाती है कि इसे गाते समय उनका ध्यान कहीं आेर विचलित न होने पाये। इसी प्रकार सरकारी समारोहों में राष्ट्रगान से प्रारम्भ और समाप्ति की जाती है। इसका अर्थ यही है कि हम उसी संविधान के तहत लोगों के दुख-दर्द दूर करने व प्रशासन चलाने की कसम खाते हैं जिसने हमें यह राष्ट्रगान दिया है। इसके साथ ही आमजन भी यह कसम उठाते हैं कि वे राष्ट्र निर्माण में संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करते हुए इसकी एकता व अखण्डता में अपना भरपूर योगदान देंगे। जाहिर है कि राष्ट्रगान कोई फिल्मी गीत नहीं है कि जब चाहे जो चाहे कहीं भी गा-बजा कर खुद को राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र देने लगे। बेशक जब भी कोई नागरिक इसकी आवाज अपने कानों में सुने तो उसका कर्तव्य बनता है कि वह इसके सम्मान में सावधान की मुद्रा में आकर ठहर जाये।
इसके लिए हमें स्वयं भी सोचना होगा कि किन अवसरों पर राष्ट्रगान का गायन हो जिससे कोई भी व्यक्ति इसके सम्मान को ठेस न लगा सके किन्तु सिनेमा घरों में इसके लाजिमी होने पर एेसे लोगों को भी खुद को महान राष्ट्रभक्त बताने वाले हुड़दंगियों का कोप भाजन बनना पड़ा जो शारीरिक रूप से असमर्थ थे या बेध्यानी में थे अथवा मनोरंजन के रूमानी संसार में डूबे हुए थे। सबसे बड़ी हैरानी इस बात की भी कुछ लोगों को हो सकती है कि जिन राजनैतिक दलों के कन्धों पर इस मुल्क को चलाने की जिम्मेदारी है वे अपनी चुनाव सभाओं की शुरूआत राष्ट्रगान से क्यों नहीं करते हैं? सर्वोच्च न्यायालय के पुराने आदेश को संशोधित करने की दरख्वास्त केन्द्र सरकार ने ही एक शपथपत्र दायर करके की थी जिसमें कहा गया था कि सरकार ने सिनेमा घरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान को गाये जाने के अनिवार्य बनाने के मुद्दे पर एक अन्तर मन्त्रिमंडलीय समिति गठित की है जिसकी रिपोर्ट के आने पर छह माह के भीतर वह अपना फैसला करेगी। अतः न्यायालय ने भी छह माह तक के लिए ही यह छूट सिनेमा मालिकों को दी है और कहा है कि यदि कोई सिनेमा घर मालिक राष्ट्रगान बजाता है तो सभी दर्शकों को इसके सम्मान मंे खड़ा होना चाहिए। मतलब साफ है कि अन्तिम जिम्मेदारी सरकार की ही होगी कि वह इस बारे में क्या अन्तिम फैसला करके सर्वोच्च न्यायालय को बताती है।