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नोटबन्दी का एक साल

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जब देश में विगत वर्ष 8 नवम्बर को रात्रि आठ बजे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने एक हजार और पांच सौ रुपए के बड़े नोटों को बंद करने की घोषणा की थी तो देश के 80 प्रतिशत गरीब लोगों के मन में यह धारणा थी कि सरकार के इस कदम से व्याप्त सर्वत्र भ्रष्टाचार से​ मुक्ति ​मिलेगी और जिन लोगों ने कालाधन तिजोरियों में छुपा रखा है वह रातों-रात रद्दी हो जाएगा। सरकार ने पचास दिन का समय आम लोगों को दिया कि वे अपने पुराने नोट नए नोटों में बदलवा लें मगर इसके लिए मारामारी न करें, सरकार धीरे–धीरे उनके सभी पुराने नोट इस अवधि में बदल देगी। वे कम से कम जरूरी नकदी बैंकों से बदलवा कर अपना रोजमर्रा का काम चलाएं। इस काम में थोड़ी दिक्कत लोगों को उठानी पड़ेगी मगर अर्थव्यवस्था की सफाई हो जाएगी। जो कालाधन छिपाए बैठे हैं वे अपने अवैध नोटों को बदलवाने के लिए फर्जी लोगों का इस्तेमाल न करें। स्वयं प्रधानमंत्री ने अपील की कि अगर कोई धनवान व्यक्ति अपने नोट बदलवाने के लिए गरीबों को लालच दे तो उसके चक्कर में मत पडि़ये और उसके पुराने नोट बदल कर उसे मत दी जिए।

इसके लिए जन-धन खातों की दो लाख रु. की सीमा भी निर्धारित कर दी गई। भारत के हर शहर की दरो-दीवार गवाह है कि आम लोगों ने सरकार की हर बात पर यकीन किया और पूरी ईमानदारी के साथ सैकड़ों मुश्किलें सहते हुए भी बैंकों के आगे लम्बी-लम्बी लाइनें लगाकर अपनी गाढ़ी कमाई के पुराने नोट पूरे इंतजार के साथ बदलें। मध्यम व सामान्य वर्ग के परिवारों के लोगों ने अपने जीवनभर की कमाई बैंकाें में जमा कराकर सोचा अब संभवतः उनके दिन बदलेंगे और भ्रष्टाचार की कमाई से कोठियां खड़ी करने वालों को कानून के सामने पूरा हिसाब–किताब देना पड़ेगा कि उन्होंने नोट जमा करने के लिए कौन से तरीके अपनाए थे मगर अफसोस बैंकों में जितने भी पुराने नोट प्रचलन में थे या तिजोरियों में रखे हुए थे, सभी जमा हो गए और इस यकीन के साथ जमा हुए कि सारा का सारा धन वैध है। रिजर्व बैंक पूरे नौ महीने तक ये आंकड़े देने से हिचकता रहा कि कितने पुराने नोट बैंकों में जमा हो चुके हैं। वह ये आंकड़े तो देता रहा कि उसने कितनी नई मुद्रा के नोट छाप कर बाजार में उतार दिए हैं। सरकार की तरफ से कहा गया कि ज्यादा से ज्यादा भुगतान इलैक्ट्रानिक माध्यम से करने के लिए जरूरी है कि कम से कम लेन–देन नकद रोकड़ा में हो। छोटे-छोटे काम धंधा करने वालों से कहा जाने लगा कि वे रुपए का लेन–देन नकद की जगह इलैक्ट्रोनिक विधि से करें मगर भारत की इस हकीकत को भुला दिया गया कि इसका 80 प्रतिशत हिस्सा ‘इंडिया’ नहीं बल्कि ‘भारत’ है।

इस भारत के रहने वाले लोग गांवों या छोटे कस्बों से आते हैं और छोटा–मोटा रोजगार करके अपना जीवनयापन करते हैं। बुरे वक्तों के लिए दो पैसे जोड़ कर रखते हैं। बचत करने की इनकी वंशानुगत आदत होती है और उस बचत को ये ‘हवा’ भी लगने नहीं देते। सरकार नोटबन्दी का एक साल पूरे होने पर जश्न मनाना चाहती है। एेसा करके वह उन गरीब लोगों को चिढ़ाने का काम कर रही है जिन्होंने इस कदम का सहर्ष स्वागत किया था और सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव भी उन्हें ही झेलना पड़ा। गांवों में मजदूरी करने वालों के काम ठप्प हो गए। छोटे–छोटे दुकानदारों से लेकर रेहड़ी व फड़ लगाने वालों की आमदनी आधी रह गई। लघु उद्यमियाें ने अपने कर्मचारियों की छंटनी कर डाली, बेरोजगारी बढ़ गई। दूसरी तरफ बैंकों के पास जितने भी नोट आये उनकी नए नोटों में परिवर्तनीयता (सकल धनराशि के हिसाब में) वैधानिक मजबूरी बन गई क्योंकि सरकार प्रत्येक पुराने नोट के बराबर की धनराशि को चुकाने काे लेकर कानूनन बाध्य है। हर नोट पर लिखा होता है कि रिजर्व बैंक का गवर्नर धारक को उतनी ही राशि चुकाने की गारंटी लेता है, बेशक इसमें से कुछ धनराशि नोटों की शक्ल में न होकर बैंकों में जमा हो, या इलैक्ट्रोनिक दायरे में घूम रही हो। इसमें से केवल वही धनराशि ही सरकार जब्त कर सकती है जिसका हिसाब–किताब देने में जमाकर्ता असमर्थ हो। दरअसल अर्थव्यवस्था के साथ जो प्रयोग किया गया वह भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सच को अपने दायरे में नहीं ले सका। यह सच पश्चिमी देशों के पूरी तरह विपरीत आस्थाओं और विश्वासों पर टिका हुआ है।

पंजाब में यह कहावत आज भी कही जाती है कि ‘पैसा ओ जेड़ा पल्ले।’ इस देश के लोगों की मानसिकता खर्च की जगह जोड़ने से बंधी हुई है। भारत के गांवों में जो भी कहावतें प्रचलित हैं उनके पीछे बहुत बड़ा सामाजिक विज्ञान काम करता है। हकीकत यह भी है कि पेट में दर्द होने पर गले का इलाज नहीं किया जाता है। यही वजह है कि जिस भ्रष्टाचार और कालेधन से मुक्ति के लिए नोटबन्दी की गई थी वह पारंपरिक रूप से अब भी बाकायदा जारी है, फर्क सिर्फ यह आया है कि पुराने नोटों की जगह नए नोटों ने ले ली है मगर पूरी प्रक्रिया को एक सिरे से नकारना भी तर्कसंगत नहीं है क्यों​िक इसके पीछे नीयत साबुत थी और सच्चा प्रयास भी था कि कालेधन का बनना बन्द हो मगर हम भूल जाते हैं कि हम बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में रह रहे हैं और इसमें धन का सृजन बाजार की शक्तियों पर निर्भर करता है और यह काम जो पूंजीपति या प्रभावशाली व्यक्ति करते हैं वे कोई न कोई तोड़ निकाल कर नया रास्ता खोज लेते हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण ‘पैराडाइज पेपर्स’ का खुलासा है। क्या तोड़ निकाला है कालेधन के अहलकारों ने कि सरकार से कहते रहो कि व्यापार में विस्तार हो रहा है और मुनाफा विदेशों में जमा कराते रहो। यही वजह है कि नोटबंदी के बाद औद्योगिक उत्पादन सस्ते नहीं हुए बल्कि किसान की उपज सस्ती हुई और ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादित वस्तुएं सस्ती हुईं। इसका समीकरण क्या है, इसका जायजा खुद को बड़ा–बड़ा अर्थशास्त्री मानने वाले लोग लेंगे तो पसीना छूटने लगेगा।

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