भारत में विपक्षी एकता का सपना एेसा नहीं रहा है जो पूरा ही न हो सके। स्वतन्त्रता के बाद कई बार एेसे मौके आए हैं जब विपक्ष एक होकर मजबूती के साथ खड़ा हुआ है। पहला मौका 1967 में आया था जब गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर कम्युनिस्ट और जनसंघ भी इकट्ठा हो गए थे और इन्होंने तब कई राज्यों की संविदा सरकारों में शिरकत की थी। विभिन्न राजनीतिक मत व सिद्धान्त रखने वाले इन दलों की एकता ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी मगर इसका एक लाभ देश को जरूर हुआ कि इन विपक्षी दलों ने अपने भीतर से राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर नेतृत्व देने की क्षमता का सिलसिलेवार विकास किया मगर यह सिलसिला भी लम्बा नहीं चला और 1971 के आते-आते मध्यमार्गी व दक्षिण पंथी कहे जाने वाले दलों ने पुनः
1967 का प्रयोग करना चाहा जिसे स्व. इन्दिरा गांधी के जादुई नेतृत्व ने बुरी तरह धराशायी कर डाला मगर इसके पीछे उनका राजनीतिक सिद्धान्त बहुत खरा था जिसे उस समय देश की आम जनता ने मन से स्वीकार किया था। बिना शक यह कहा जा सकता है कि इन्दिरा जी के बाद अभी तक कोई दूसरा एेसा राजनीतिज्ञ देश में नहीं हुआ है जो सैद्धान्तिक विचारों पर टिकी हुई लोकप्रियता के उस शिखर तक पहुंच सके। स्व. राजीव गांधी को 1984 में जो कुछ भी प्राप्त हुआ वह इन्दिरा जी की हत्या से उपजे गुस्से का ही परिणाम था।
इससे पहले 1977 में इन्दिरा जी स्वयं देख चुकी थीं कि उन्हीं की मुरीद जनता ने उन्हें उनके राजनीतिक अवसरवाद का क्या सिला दिया था। वह अपना चुनाव तक हार गई थीं मगर इसके बाद इन्दिरा जी ने फिर से पुराना रास्ता पकड़ा और लोगों ने उन पर तुरन्त विश्वास भी कर लिया और 1980 में उन्हें पुनः सत्ता सौंप दी लेकिन इन्दिरा गांधी की राजनीति कभी भी हवा में थेकली बांधने की नहीं रही। उनका केवल इतना ही कहना था कि कांग्रेस पार्टी ही इस देश के आम आदमी की अपेक्षाओं पर खरा उतर कर देश का शासन चला सकती है, किसी अन्य पार्टी में न तो यह क्षमता है और न उनकी सोच ही इस देश की विविधता को देखते हुए समावेशी नीयत की है।
इन्दिरा जी का यह कहना रहता था कि भारत कभी भी टुकड़ों में बंटी सोच के आधार पर नहीं चल सकता है क्योंकि भारत का विचार (आइडिया आफ इंडिया) टुकड़ों को जोड़ कर खूबसूरत तस्वीर बनाने का है। तर्क दिया जा सकता है कि फिर इस देश में विभिन्न क्षेत्रीय दलों के गठबन्धन को क्यों सफलता नहीं मिल सकती है? इसका बहुत सीधा-सादा जवाब है कि इन टुकड़ों को जोड़ कर इकट्ठा रखने के लिए जिस सांझा वैचारिक डोर की जररूत है वह किसी एक दल के पास नहीं है।
अतः इन्हें जोड़े रखने के लिए जिस धागे की जरूरत पड़ेगी वह केवल कांग्रेस का ही हो सकता है। इसकी वजह है कि कांग्रेस की हालत मरे हुए हाथी के समान हो जाने के बावजूद इसकी कीमत जिन्दा हाथी से सवागुनी हो चुकी है। इसका कारण यह है कि हमारे सामने तुलना करने के लिए कांग्रेस या उसके नेतृत्व में चलने वाली सरकारों के कार्यकलाप हैं। अतः भारत का कांग्रेस मुक्त होने का सपना हकीकत को नकारने जैसा ही होगा मगर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में एेसी जुमलेबाजी होती रहती है।
हकीकत तो यही रहेगी कि स्वतन्त्र भारत को मजबूत लोकतन्त्र कांग्रेस के नेतृत्व में ही मिला है। इसी की नीतियों के चलते भारत में आजादी के पहले दिन से ही बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली ने अपनी जड़ें जमाईं और प्रत्येक राजनीतिक दल को फलने-फूलने का अवसर भी प्राप्त हुआ मगर संविधान से किसी प्रकार का समझौता किए बगैर (केवल इमरजैंसी के 18 महीने के दौर को छोड़कर) मूल मुद्दों की राजनीति को भी इसी पार्टी ने प्रोत्साहित किया और यह तक परवाह नहीं की कि इससे उसे ही नुकसान हो सकता है।
कांग्रेस की यही सोच उसे मौजूदा परिस्थितियों में सभी विपक्षी दलों की अगुवाई करने वाला पात्र इसलिए बनाती है कि उसमें परपीड़न की भावना नगण्य है मगर इसके लिए सबसे पहले कांग्रेस से ही अलग होकर क्षेत्रीय कांग्रेस के रूप में उभरने वाले दलों का सांझा मोर्चा जरूरी है।
यदि गौर से देखा जाये तो आज भी मूल कांग्रेस के लोकसभा में 47 सदस्य होने के बावजूद सभी क्षेत्रीय कांग्रेस पार्टियों ( तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस, वाईएसआर कांग्रेस आदि) की सदस्य संख्या एक सौ के करीब है लेकिन किसी सूरत में यह न समझा जाए कि मैं कांग्रेस की वकालत कर रहा हूं बल्कि केवल इतना बता रहा हूं कि सशक्त राष्ट्रीय विकल्प का रास्ता क्या हो सकता है?
आखिरकार भारतीय जनसंघ ने भी तो भारतीय जनता पार्टी के अवतार में आकर विकल्प बनने का रास्ता खोजा और सफलता प्राप्त की। असफलताओं से घबरा कर पीछे भागने का काम राजनीति में नहीं होता है। अतः कल तक जो लोग राहुल गांधी को राजनीति में अधकचरा साबित करने की मुहिममें रात-दिन लगे हुए थे वे आजकल चौबीस घंटे राहुल गांधी के नाम का राग न अलापते। 1967 में जब डा. राम मनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया था तो उन्होंने एक बात बहुत महत्वपूर्ण कही थी मगर मजाकिया अंदाज में कही थी।
उन्होंने तब के विभिन्न राजनीतिक दलों से कहा था कि शेर का शिकार वह कर सकता है जिसमें उसके दांत गिनने की हिम्मत हो। अतः सब एक बार इकट्ठा होकर कम से कम यह काम तो कर डालो, जिससे उसका खौफ खत्म हो जाए क्योंकि शेर से बड़ा शेर का खौफ ही तो होता है।
अतः विपक्ष यदि एकत्र होता है तो इससे सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को कतई घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि इससे यही सिद्ध होता है कि उसकी ताकत का अन्दाजा विपक्षी दलों को है इसीलिए वे उसके विरुद्ध लामबन्द हो रहे हैं मगर यह भी सत्य है कि विपक्षी दलों ने आज जिस तरह किसानों, बैंक घोटाले, पैट्रोल कीमत, दलित उत्पीड़न, आन्ध्र को विशेष दर्जा, कावेरी जल व दिल्ली में सीलिंग के जिन सात मुद्दों पर एकमत होकर अपनी एक आवाज में सरकार से हिसाब-किताब मांगा है वह राजनीति में नया जन अभियान बन सकता है। विपक्ष की यह पहली सफलता कही जा सकती है क्योंकि इन सभी मामलों में सभी 17 दल राजनीतिक पहचान से ऊपर उठकर जनान्दोलन चलाने पर एकमत हो गए हैं। इसका परिणाम तो इतना जरूर होना चाहिए कि राजनीति जनकेन्द्रित बनने की तरफ चले।