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पद्मावती और रानी कर्णवती !

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21वीं सदी के भारत में अगर 14वीं सदी के शुरू के किसी व्यक्तित्व को लेकर बनी फिल्म को लेकर राजनीति गर्मा रही है तो इसका सीधा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि हमारे ‘मानसिक विकास’ और ‘वैज्ञानिक विकास’ में कोई समानता नहीं है। यदि कुछ लोग ताजमहल से लेकर मुगल काल में खड़ी हुई अन्य इमारतों को इतिहास का अत्याचार समझते हैं तो उन्हें भारत की महान संस्कृति के बारे में अधूरा ज्ञान है। ये लोग दक्षिण एशिया की उस संस्कृति का किस पैमाने से मूल्यांकन करेंगे जिसमें ​वियतनाम से लेकर कम्बोडिया व मलेशिया व थाईलैंड तक सर्वत्र बौद्ध संस्कृति के अवशेष बिखरे पड़े हैं ? दर असल इतिहास अपना निर्णय इस आधार पर नहीं करता है कि किस हिन्दू या मुसलमान शासक का शासन रहा होगा बल्कि वह उस समय में व्याप्त जमीनी हकीकत की राजनीति से करता है। मध्य युगीन भारत की असलियत यही थी कि उस समय देशी राजे–रजवाड़े ही आपस में इस कदर उलझे हुए थे कि अपने राज्य विस्तार की आकांक्षा को पूरा करने के लिए वे विदेशी आक्रान्ताओं को दावत तक दे डालते थे।

क्या भारत के इतिहास से कन्नौज के राजा ‘राजा जयचन्द’ का नाम मिटाया जा सकता है जिसने दिल्ली की सत्ता पर बैठे पृथ्वीराज चौहान से बदला लेने के लिए मोहम्मद गौरी को आमन्त्रण दिया था ? क्या रानी पद्मावती के राज्य चित्तौड़ के ही शासक रहे राणा सांगा को भुलाया जा सकता है जिन्होंने दिल्ली की सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम लोदी का मुकाबला करने के लिए पहले मुगल शासक बने बाबर को आमन्त्रित किया था? क्या उस मीर जाफर को भुलाया जा सकता है जिसने बंगाल के नवाब का सीधा सम्बन्धी होते हुए भी उसे हराने के लिए अंग्रेजों के साथ षड्यंत्र किया था ? इन लोगों काे अगर हम हिन्दू या मुसलमान के रूप में पहचानते हुए मूल्यांकन करते हैं तो उस समय के उस सच को नकारने की कोशिश करते हैं जो तब की राजनीति को निर्देशित कर रहा था। हिन्दू राजा दूसरे हिन्दू राजा को पछाड़ने के लिए मुसलमान सुल्तान की मदद ले रहा था और मुसलमान मुसाहिब खुद नवाबी गद्दी पर बैठने के लिए उसे धोखा दे रहा था। अतः हम किस आत्म गौरव और शान का ढिंढोरा पीट कर राजनीति की रोटियां सेंकना चाहते हैं। वर्तमान दौर लोकतन्त्र का है और इसमें किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि उस कानून का शासन चलता है जो संविधान के पन्नों में लिखा हुआ है, मगर कुछ लोग समझ रहे हैं कि वे अभी भी 13वीं सदी में जी रहे हैं और कानून को कथित पुरातनी गढ़ी हुई स्वाभिमान की गाथाओं से धमका सकते हैं। कानून को अपने हाथ में लेने वाले ऐसे लोगों को किसी भी राजनीतिक पार्टी का शासन यदि खुल कर खेलने की मोहलत देता है वह स्वयं आम जनता की निगाहोंं में अपने राजनैतिक मन्तव्य का रहस्य खोल देता है। सोचिये जयपुर राजघराने की राजकुमारी जोधा बाई का विवाह क्यों मुगल शासक अकबर से होता ? जाहिर है यह उस समय की यथार्थवादी सोच का ही परिणाम था कि एक राजपूतनी ने मुसलमान बादशाह से विवाह किया और उसी बादशाह अकबर ने मेवाड़ के दूसरे राजपूत शासक महाराणा प्रताप से अपने राज्य विस्तार हेतु युद्ध किया, किन्तु यह भी हिन्दू–मुसलमानों के बीच युद्ध नहीं हो रहा था बल्कि दो राजाओं के बीच युद्ध हुआ था क्योंकि महाराणा प्रताप का सेनापति मुसलमान लड़ाका हाकिम खां सूर था और अकबर की सेना की कमान हिन्दू राजा जयसिंह ने संभाली हुई थी। बिना शक राजस्थान में पर्दा प्रथा का प्रचलन मुस्लिम आक्रमणों के बाद ही हुआ और हारने वाले राजा की रानियों द्वारा जौहर किये जाने की प्रथा भी तभी शुरू हुई। यह तो इतिहास में दर्ज है कि मेवाड़ की ही महारानी रही रानी कर्णवती ने गुजरात के शासक बहादुर शाह के आक्रमण से अपने राज्य को बचाने के लिए दिल्ली की गद्दी पर बैठे मुगल बादशाह हुमाऊं को पत्र लिख कर उससे मदद की दरकार की थी क्योंकि तब इस रियासत की विभिन्न छोटी –छोटी रियासतों के रजवाड़ों ने रानी काे साथ देने से इंकार कर दिया था। रानी कर्णवती का खत हुमाऊं को तब मिला था जब वह बंगाल में युद्ध कर रहा था। खत मिलते ही उसने मेवाड़ की तरफ कूच किया। इस खत में रानी कर्णवती ने हुमाऊं को अपना भाई बनाते हुए राखी भी भेजी थी। मगर जब हुमाऊं उदयपुर पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी और रानी कर्णवती ने बहादुर शाह की जीत के बाद अन्य रानियों के साथ जौहर कर लिया था। अतः इतिहास को हम केवल इतिहास की तरह ही देखें और ज्यादा भावुकता मंे न पड़ कर भविष्य की आने वाली पीढि़यों के लिए रंजिश से भरा हिन्दोस्तान न छोड़ें तो समझा जायेगा कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं।

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