पद्मावती फिल्म के पूरे भारत में प्रदर्शन को हरी झंडी देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया है कि किसी भी राज्य सरकार को इसे प्रतिबन्धित करने का अधिकार नहीं है क्योंकि फिल्म निर्माण से लेकर इसे सिनेमाघरों पर दिखाने का सम्बन्ध संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार से जुड़ा हुआ है। यह फिल्म जिस एेतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी है वह मूलरूप से हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक कालखंड काव्य रचयिता मलिक ‘मुहम्मद जायसी’ की रचना ‘पद्मावत’ पर आधारित है। हिन्दी साहित्य में गद्य लेखन के आदि लेखक ‘देवकी नन्दन खत्री’ का जो स्थान है पद्य लेखन में वही स्थान जायसी का माना जाता है। स्व. खत्री ने ‘भूतनाथ’ व ‘चन्द्रकान्ता’ जैसे अमर उपन्यास हिन्दी साहित्य को देकर इस विधा को नई पीढि़यों के लिए खोला। इन उपन्यासाें में श्री देवकी नन्दन ने रहस्य, रोमांच व प्रेम का अद्भुत समागम कुछ एेतिहासिक स्थलों को लेकर अपनी कल्पना शक्ति के बूते पर भरा। संभवतः एेसी ही लौकिक कल्पना शक्ति का प्रयोग जायसी ने कुछ एेतिहासिक स्थानों व नायक-नायिका के चुनाव को लेकर किया होगा।
जाहिर तौर पर कवि की कल्पना समाज में व्याप्त अवधारणाओं के सहारे ही जन्म लेती है जिनका विस्तार करके वह सकारात्मक परिणामों के साथ समाज को सन्देश देता है। परन्तु जरूरी नहीं है कि यही नियम फिल्म निर्माताओं पर भी लागू हो क्योंकि उनका मूल उद्देश्य धन कमाना होता है और जनता का भरपूर मनोरंजन करना भी होता है अतः वे कल्पना की एेसी ऊंची उड़ान भर जाते हैं जिसमें इतिहास कहीं न कहीं अतिरंजित हो जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत में अभी तक की सबसे सफल और मर्म स्पर्शी फिल्म ‘मुगले आजम’ है। यह पूरी फिल्म एेसी लोकगाथाओं में वर्णित नायिका ‘अनारकली’ के चारों तरफ घूमती है जिसका लिखित पुख्ता इतिहास में कहीं कोई वर्णन नहीं है। सवाल यह है कि चित्तौड़ की महारानी पद्मावती को केन्द्र में बनी फिल्म पर इतना बावेला ‘राजपूती शान’ को लेकर क्यों मचाया जा रहा है ? छह सौ साल पहले के इतिहास से 21वीं सदी के राजपूतों की शान किस तरह जुड़ी रह सकती है जबकि भारत में राजा-महाराजाओं का अस्तित्व समाप्त हो चुका है और प्रत्येक जाति के नागरिक के एक समान अधिकार हैं।
राजसी दौर में दलितों पर जिस तरह अत्याचार रियासतों में किए जाते तो क्या हमें उस इतिहास पर भी गर्व करना चाहिए? जाहिर है कि मनुष्यों पर जाति के नाम पर किए जाने वाले वे अत्याचार हमारा सिर शर्म से झुकाये बिना नहीं रहेंगे। जब भारत में स्वतंत्रता के बाद संविधान लागू हुआ और हम गणराज्य बने तो समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा कि ‘भारत में असली प्रजातन्त्र तभी आयेगा जब एक महारानी और मेहतरानी एक साथ बैठ कर खाएंगे। डा. लोहिया का यह कहना प्रतीकात्मक ज्यादा था क्योंकि उनका असली मन्तव्य यही था कि लोकतन्त्र का अर्थ सामन्ती रवायतों को तिलांजलि देना ही नहीं बल्कि इतिहास की उन वेदनाओं को भी उलट देना है जिनसे किसी भी मनुष्य के विशिष्ट व्यवहार से गर्व की अभिव्यक्ति की लहर उठती हो। हिन्दी के ही वीर रस के कवि कहे जाने वाले स्व. श्याम नारायण पांडेय ने चित्तौड़ की शान बचाने वाले दो रणबांकुरे गोरा और बादल की कविता लिखी। इनके बारे में इतिहासकारों में अभी तक मतभेद है कि वे दो भाई थे या चाचा-भतीजे। जैसा कि स्पष्ट है कि कवि लोकोक्तियों या किंवदन्तियों या लोक कथाओं से सन्दर्भ उठा कर अपनी कल्पना शक्ति से उसे रचना के रूप में ढालते रहते हैं अतः पद्मावती का सत्य भी इससे अधिक और कुछ नहीं हो सकता।
जाहिर है कि पूरा राजस्थान ही राजपूती रियासतों के शासन में था अतः वहां के लोककथा नायक भी समय-काल के अनुरूप उसी समाज की संरचना से रहेंगे। किन्तु आधुनिक दौर के राजस्थान के नायक तो स्व. मोहन लाल सुखाडि़या या बरकतुल्लाह खां या कुम्भाराम आर्य या जय नारायण व्यास ही हो सकते हैं अथवा वे राजपूत हो सकते हैं जिहोंने प्रजा मंडल बना कर पुराने रजवाड़ों के खिलाफ संघर्ष किया था। सभी देशी रजवाड़े तो ब्रिटिश राज में अंग्रेजों की चाटुकारिता कर रहे थे। राजस्थान का गौरव यदि कहीं छिपा हुआ है तो वह उन आदिवासी भीलों में हैं जिन्होंने मुगल साम्राज्य के खिलाफ महाराणा प्रताप की मदद की थी। हम दासता के प्रतिबिम्बों में अपना गौरव किस प्रकार ढूंढ़ सकते हैं।
हम सौ दिन आगे चल कर हजार दिन पीछे कैसे जा सकते हैं? क्या राजपूती आन-शान–बान के झड़ाबरदारों को दीवान जर्मनी दास की लिखी पुस्तक ‘गोली’ की कथाएं याद नहीं हैं? अतः हम किन पुराने ख्वाबों में घूम रहे हैं? हमारा इतिहास यह भी है कि मुगल बादशाह अकबर ने जयपुर राजघराने की जोधाबाई से विवाह किया था जिसका पुत्र जहांगीर हुआ और बाकी मुगल शहंशाह इसी वंश की कड़ी थे, लेकिन क्या कयामत है कि गुजरात और राजस्थान की सरकारों ने पद्मावती फिल्म के प्रदर्शित होने से पहले ही इन पर प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा कर दी। इस फैसले से यही पता चलता है कि इन दोनों राज्यों की सरकारों की मंशा लोगों को दकियानूस बनाए रखने की है। कानून–व्यवस्था के नाम पर किसी भी वर्ग को संविधान का पालन न करने की छूट देना सीधे तौर पर राज्य का एेसे लोगों के साथ परोक्ष गठबन्धन की श्रेणी में ही आता है। यह कानून के शासन को धत्ता बताने से अलग रख कर नहीं देखा जा सकता। अतः सर्वोच्च न्यायालय की यह ताईद की फिल्म के कलाकारों सहित इसके प्रदर्शन के लिए समुचित सुरक्षा-व्यवस्था करना राज्य सरकारों का दायित्व है, कानून के शासन को अधिष्ठापित करता है।