आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान पूरी दुनिया खासकर भारतीय उपमहाद्वीप में कितना अकेला रह गया है इसका उदाहरण राष्ट्रसंघ की आमसभा में उसके पड़ोसी देश अफगानिस्तान और पुराने हिस्से से बने बंगलादेश के राजप्रमुखों द्वारा व्यक्त विचार हैं जिन्होंने उसे दहशतगर्दों की खेती करने वाले मुल्क के रूप में नुमाया किया। अब इसमें किसी प्रकार की दो राय नहीं है कि पाकिस्तान एक आतंकवादी देश है और वहां की राजनीति में भी आतंकवादी सरगनाओं की दखलन्दाजी हो चुकी है। हकीकत तो यह है कि पाकिस्तान को आतंकवादियों की पनाहगाह कहना भी अब छोटा पडऩे लगा है क्योंकि उसका पूरा तन्त्र ही अब आतंकवाद के साये में काम करता लगता है परन्तु भारत के पड़ोसी देश के रूप में वह जिस प्रकार की नौटंकी स्वयं के आतंकवाद से पीडि़त होने की कर रहा है उसकी कैफियत यह है कि वह दुनिया के देशों के सामने खुद को भारत के बराबर ही दुखी दिखाना चाहता है परन्तु तथ्य उसके विपरीत जा रहे हैं क्योंकि दुनिया के सबसे दुर्दान्त आतंकवादी संगठन अलकायदा का मुखिया उसी की शरण में पाया जाता है और अफगानिस्तान को तालिबानी हुकूमत के चंगेजी जबड़े में कसने वाला मुल्ला उमर भी उसी की सरजमीं में सिर छुपाता है मगर हैरत की बात यह है कि दुनिया के इस्लामी देशों के संगठन (ओआईसी) ने कश्मीर मुद्दे पर उसका समर्थन करके उसे अंधेरे में रोशनी की किरण दिखाने का अजूबा कर डाला। भारत के लिए निश्चित रूप से यह चिन्ता का विषय हो सकता है क्योंकि पहली बार 42 के लगभग मुस्लिम देशों के संगठन ने पाकिस्तान को इस मुद्दे पर खुलकर समर्थन दिया है।
भारत के मुस्लिम देशों के साथ सम्बन्ध ऐतिहासिक रूप से मधुर रहे हैं और कश्मीर मुद्दे पर इक्का-दुक्का मुस्लिम राष्ट्रों को छोड़कर पाकिस्तान का हाथ हमेशा खाली रहा है। 1972 के ऐतिहासिक शिमला समझौते के बाद अधिसंख्य मुस्लिम देशों ने इसका पुरजोर समर्थन किया था और मसले का हल आपसी बातचीत से करने की वकालत की थी। इतना ही नहीं जब नवम्बर 2008 में पाकिस्तानी दहशतगर्दों ने हमला किया था तो तत्कालीन विदेश मन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी ने इस मामले में पूरे इस्लामी समूह को विश्वास में लिया था और उनके पास आतंकवादी कार्रवाई में पाकिस्तान का हाथ होने से जुड़े सबूत भेजकर इस मुल्क की तत्कालीन सरकार के हाथ से तोते उड़ा दिये थे। उस समय पाक के वजीरे आजम युसूफ रजा गिलानी पूरी दुनिया के सामने हाथ जोड़ते फिरे थे कि कोई तो अल्लाह का बन्दा दिल्ली की सरकार को मनाये कि वह हमसे बातचीत का दरवाजा खोले मगर एक भी इस्लामी मुल्क इस काम को करने के लिए तैयार नहीं हुआ था। उल्टे पाकिस्तान को इन मुल्कों ने राय दी थी कि वह अपनी सरजमीं से दहशतगर्दी तंजीमों का सफाया करने की मुहिम चलाये वरना वह दहशतगर्द मुल्कों की कतार में कभी भी शामिल किया जा सकता है।
कश्मीर की समस्या तब भी थी और पाकिस्तान अपनी हरकतें बदस्तूर जारी रखते हुए यहां चल रही हिंसक गतिविधियों को आजादी की लड़ाई के नाम से नवाज रहा था मगर उसकी हिम्मत इतनी पस्त हो चुकी थी कि खुद इसी मुल्क से आवाज उठ रही थी कि मुम्बई हमला पाकिस्तान के बाशिन्दों ने ही अंजाम दिया था। अत: हमें आज यह सोचना जरूरी है कि क्यों पाकिस्तान अपने ऊपर दहशतगर्दी का ठप्पा लग जाने के बावजूद कश्मीर समस्या का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने में आगे बढ़ रहा है। यह वास्तविकता है कि जिस चीन के कन्धे पर बैठकर वह आजकल इठला रहा है उसी ने ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में साफ कर दिया कि पाकिस्तान में लश्करे तैयबा जैसे आतंकवादी संगठन अपनी कारगुजारियों में लगे हुए हैं और आतंकवाद का मुकाबला करना दुनिया के लिए बहुत जरूरी है। इसका मतलब यही होता है कि पाकिस्तान के आतंकवाद की पनाहगाह होने में चीन को भी कोई शक नहीं है, मगर कश्मीर के मुद्दे पर उसकी राय इस्लामी देशों से अलग है और उसका कहना है कि इस मसले का हल भारत और पाकिस्तान को मिलकर ही निकालना चाहिए। यह हमारे लिए सांत्वना की बात जरूर हो सकती है मगर सन्तोष की नहीं क्योंकि वह खुद उसी जम्मू-कश्मीर में जमा बैठा है जिसे हम पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं और ऐसा वह पाकिस्तान की शह पर ही कर रहा है।
हालांकि वह कह रहा है कि कश्मीर मामले में 1948 के उस राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव को लागू करने की कोई जरूरत नहीं है जिसकी मांग पाकिस्तान की तरफ से की जा रही है जबकि इस्लामी देश इस प्रस्ताव पर अमल करने की वकालत कर रहे हैं। असल सवाल यह है कि क्यों 1998 के बाद से कश्मीर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर फिर से उठने लगा है। उस वर्ष केन्द्र में भाजपा नीत अटल बिहारी वाजपेयी सरकार थी जब गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के मंच पर कश्मीर का मसला दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने उठा दिया था। उसके बाद से पाकिस्तान एक तरफ आतंकवाद का गढ़ बनता चला गया और दूसरी तरफ वह कश्मीर मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण भी करता रहा। यह जबर्दस्त विरोधाभास है जिसकी तरफ भारत के कूटनीतिज्ञों का ध्यान जाना चाहिए। विशेष रूप से हमारी विदेश नीति का परिष्कार इस प्रकार होना चाहिए कि दुनिया इस हकीकत को समझे कि कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का विस्तार जमीनी हकीकत है।