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पाकिस्तान की सही जगह?

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मोदी सरकार के 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि पड़ोसी पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति में कितना और किस स्तर पर बदलाव आया है? यह सवाल भारत के लोगों के लिए इसलिए पहेली बना हुआ है कि भारत के सख्त रुख के बावजूद पाकिस्तान के रवैये में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है और उसकी वही गतिविधियां जारी हैं जो पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार के दौरान जारी थीं बल्कि पाक से लगी सरहदों पर उसकी फौजों ने पहले से ज्यादा गोलीबारी करके हमारे न केवल सेना के वीर जवानों को शहीद किया है बल्कि सीमान्त भारतीय नागरिकों को भी निशाना बनाया है। बिना शक भारतीय सेना की तरफ से भी बराबर की जवाबी कार्रवाई की गई है और पाकिस्तान को सबक सिखाने का भरपूर प्रयास किया गया है मगर इसके नतीजे में हालात में किसी तरह का बदलाव नहीं आया। यहां तक कि भारत की जांबाज सेनाओं ने पाक अधिकृत कश्मीर में घुसकर झपट्टामार ( सर्जिकल स्ट्राइक) भी की किन्तु उसके बाद पाक ने सीमा पर किसी प्रकार का शान्तिपूर्ण वातावरण बनाने की कोशिश नहीं की और वह बार-बार सीमा रेखा का उल्लंघन करता रहा। दोनों देशों के बीच बाकायदा औपचारिक राजनयिक सम्बन्ध होने के बावजूद पाकिस्तान जिस तरह सीमा रेखा पर लगातार तनाव बनाए रखना चाहता है उससे यही लगता है कि उसकी नीयत भारत को लगातार परेशान करने की है और उसी दहशतगर्दी को पनाह देने की राह पर चलने की है जिसे पूर्व फौजी हुक्मरान जनरल जिया-उल-हक ने इजाद किया था कि ‘भारत को हजार जख्म दो।’ यह पूरी दुनिया को मालूम है कि पाकिस्तान एक पुख्ता लोकतन्त्र नहीं है और वहां की फौज का उसकी विदेश नीति तय करने में अहम किरदार रहता है।

पाक की फौज की रोजी-रोटी भारत से दुश्मनी पर मयस्सर करती है जिसकी वजह से उसने जम्मू-कश्मीर को अपना निशाना बनाया हुआ है मगर पाकिस्तान ने बहुत चालाकी के साथ जम्मू-कश्मीर मसले को 1972 में हुए शिमला समझौते की जद से बाहर निकालने की कोशिश की है। इस समझौते के तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने पाकिस्तान के पंख इस तरह कतर दिये थे कि वह जम्मू-कश्मीर का ‘कलमा’ पढ़ना छोड़ कर भारत के साथ अपने सभी मसलों का हल केवल बातचीत के जरिये ढूंढे मगर हम भूल जाते हैं कि पाकिस्तान की पीठ पर अमेरिका समेत अन्य प. यूरोपीय देशों का हाथ इस तरह रहा है कि वह अपनी फौजी ताकत के साथ ही अपने एटमी मंसूबों को भी परवान चढ़ाता रहा और 1998 के आते-आते उसने परमाणु परीक्षण करके भारत के सामने नई चुनौती खड़ी कर दी। गौर करने वाली बात यह है कि 1947 में जिस मुल्क के तामीर होने पर भारत ने उसे एक सौ करोड़ रु. का कर्ज अपनी फौज बनाने के लिए दिया हो उसने इतनी ताकत किसके बूते पर हासिल की? इसलिए इसमें हैरानी की बात नहीं है कि इसके बाद ही पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर मुद्दे का फिर से अन्तर्राष्ट्रीयकरण करना शुरू किया और इसकी पहली सुगबुगाहट 1998 में ही दक्षिण अफ्रीका में हुए गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में सुनाई दी।

इसके बाद पाकिस्तान में फौजी तख्ता पलट होने से शिमला समझौते को बरतरफ करने की कोशिशें होने लगीं और वहां का फौजी हुक्मरान जनरल परवेज मुशर्रफ 1948 के राष्ट्रसंघ के उस प्रस्ताव का गीत गाने लगा जिसमें पूरे जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का प्रावधान इस शर्त के साथ था कि पाकिस्तान कब्जाये गए कश्मीर से अपनी फौजें हटायेगा मगर भारत ने इस प्रस्ताव को तभी कूड़े की टोकरी में डाल दिया था और एेलान किया था कि पाकिस्तान की हैसियत इस इलाके में एक हमलावर से ज्यादा कुछ नहीं है किन्तु 1998 में 50 साल बाद जब जनरल परवेज मुशर्रफ ने इसे फिर से जिन्दा करने की तरकीब भिड़ाई तो पाकिस्तानी फौज अपने पूरे अख्तियार में आ चुकी थी और वह पिछली लोकतांत्रिक सरकारों द्वारा किए गए समझौतों को कागज का टुकड़ा समझने लगी थी। यह भी हैरत की बात नहीं है कि पाकिस्तान ने जनरल परवेज मुशर्रफ की हुक्मरानी के दौरान ही अपनी फौजों का तालिबानीकरण किया और दहशतगर्द तंजीमों की एक पूरी बटालियन खड़ी कर डाली। अगर एेसा न होता तो नवम्बर 2008 में मुम्बई में पाकिस्तानी दहशतगर्द समुद्र के रास्ते आकर किस तरह हमला करते? तब तक पाकिस्तान में पीपुल्स पार्टी की चुनी हुई सरकार काबिज हो गई थी और परवेज मुुशर्रफ को घर में बिठा दिया गया था मगर पाकिस्तान की फौज वही थी जिसे जनरल मुशर्रफ ने तालिबानी ढांचे में ढाल दिया था।

बेशक इसके बाद पाकिस्तान में चुनी हुई सरकारें ही आई हैं मगर उनके हाथ वहां की फौज ने इस तरह बांधे हुए हैं कि उसकी हुक्मरानी बदस्तूर चालू रहे। फौज का दबदबा पाकिस्तान में तभी तक कायम रह सकता है जब तक वह भारत को अपना दुश्मन दिखाती रहे, इसी वजह से सरहदों पर पाक की फौज लगातार खूंरेजी का माहौल बनाए रखना चाहती है। भारत एक लोकतान्त्रिक देश है जिसे सियासी पार्टियां चलाती हैं। यह सियासत ही होती है जो बड़ी से बड़ी जंग मैदान की जगह मेज पर जीतती है और अपने मुल्क समेत इसकी फौज को और मजबूत बनाने के लिए अपने सरमाये का इस्तेमाल करती है। जंग से बड़ा ‘जंग का खौफ’ दिखाकर सियासत दुश्मन को उसकी औकात में लाने का नाम भी होता है। बेशक पाकिस्तान आज चीन की गोदी में बैठा हुआ है मगर चीन भी जानता है कि आज का हिन्दोस्तान 1962 का हिन्दोस्तान नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि चीन ने पिछले दिनों ही जम्मू-कश्मीर सूबे को भारत के नक्शे में दिखाया? हमें मौजूदा हकीकत को अपने हक में किसी न किसी दिन तो मोड़ना ही होगा और पाकिस्तान को उसकी सही जगह बतानी ही होगी।

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