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नीति आयोग की ‘नीति’

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योजना आयोग के समाप्त होने के बाद से नीति आयोग का कामकाज जिस तरह से चल रहा है उसे लेकर विभिन्न राज्यों में अपने विकास के प्रति वह विश्वास का भाव नहीं जम पाया है जिसकी अपेक्षा की जा रही थी। स्थानीय जरूरतों के मुताबिक विकास का ढांचा खड़ा करना नीति आयोग का लक्ष्य बताया गया था मगर अभी तक एक भी एेसा उदाहरण पेश नहीं किया जा सकता जिसे देखकर यह अंदाजा लग सके कि यह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। भारत ने योजना आयोग के निर्दिष्ट ढांचे में पंचवर्षीय योजनाएं बनाकर जिस तरह अपना विकास किया वह पूरी दुनिया के सामने एक आश्चर्य से कम नहीं था क्योकि खुले लोकतान्त्रिक ढांचे के तहत सामान्य नागरिक के निजी सम्मान व गौरव की रक्षा करते हुए भारत की बहु-सांस्कृतिक वैविध्यपूर्ण संरचना के अन्तर्गत जो विकास किया गया वह नागरिकों के एेसे स्वतःस्फूर्त उत्साह का परिणाम था जिसमें राज्य या सरकार की भूमिका मात्र उत्प्रेरक की थी।

बेशक बड़े-बड़े सार्वजनिक संस्थानों को खड़ा करके सरकार ने औद्योगिक विकास का वह आधारभूत ढांचा खड़ा किया जिसकी समग्र आैद्योगीकरण के लिए जरूरत थी मगर इसी रास्ते से भारत की निर्भरता लगातार कृषि क्षेत्र पर कम होती गई और यह आज दुनिया के बीस औद्योगीकृत देशों में से एक है। इसी व्यवस्था ने हमारा जो कायाकल्प किया उसी के आधार पर 1991 में डा. मनमोहन सिंह आर्थिक उदारीकरण का चक्र चलाने की हिम्मत जुटा सके मगर लगातार निजीकरण के चलते योजना आयोग की भूमिका भी लगातार सीमित होती गई और 2014 में हमने इसे अलविदा कह दिया। इसके स्थान पर जो व्यवस्था खड़ी की गई वह नीति आयोग था जिसमें सभी राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की हिस्सेदारी थी जिससे वह अपने-अपने राज्य के विकास की परियोजनाओं को स्थानीय जरूरतों का ध्यान रखते हुए पूरा कर सकें परन्तु इसमें कितनी सफलता मिल पाई इसके लिए यही उदाहरण काफी होगा कि बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार ने अपने राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग पुनः कर डाली है। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग इससे झारखंड को अलग किए जाने के बाद से लालू जी के समय से ही हो रही है। इसका मतलब यही निकलता है कि नीति आयोग के गठन के बावजूद राज्यों के विकास के ढांचे में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। समस्या जैसे पहले थी वैसी ही अब है।

बिना शक नीतीश कुमार की एक मुख्यमन्त्री के रूप में अब वह विश्वसनीयता नहीं है जो पहले थी क्योंकि उन्होंने 2015 के चुनाव जीतने के बाद बीच रास्ते में अपनी मंजिल बदल दी थी मगर इससे बिहार की परिस्थितियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। वह जितना फटे हाल पहले था उतना ही आज भी है। हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्वतन्त्र भारत में योजना आयोग के गठन का फैसला नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सुगठित आर्थिक विकास के विचारों से प्रेरित होकर किया था। 1937 के कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए नेताजी ने भारत के लोगों के विकास के लिए एक ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ के गठन का प्रस्ताव रखा था। अपने इस भाषण में नेताजी ने ग्रामीण मूलक भारत के विकास के लिए योजनाबद्ध तरीके से परियोजनाएं बनाने पर बल देते हुए साफ किया था कि अंग्रेजी शासन के दौरान सामन्ती व्यवस्था के साये में जीने वाले भारतीयों को स्थानीय जागीरदारों और महाजनों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है। इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है। सरकार केवल राजस्व उगाही का केन्द्र है जिसे लोगों के सुख-दुख से कोई लेना-देना नहीं है। नेताजी का मानना था कि स्वतन्त्र भारत में स्वराज मिलने पर भारत के विकास का ढांचा वह होना चाहिए जिसमें प्रत्येक नागरिक को अपने स्तर के ऊपर उठने का अहसास हो। एेसा हम तभी कर सकते हैं जब योजनाबद्ध तरीके से विकास प्रक्रिया को चलाकर प्रत्येक नागरिक के जीवन में बदलाव का आभास कराएं। इसके लिए राष्ट्रीय योजना समिति बनाकर इसके साये तले वृहद रूप में समयबद्ध तरीके से लक्षित विकास परियोजनाएं चलाएं। लगभग 65 साल तक हमने यही किया परन्तु आर्थिक उदारीकरण ने अर्थव्यवस्था का जो रूपान्तरण किया उसमें विदेशी निवेश एक एेसे नए मन्त्र के रूप में उभरा जिसने योजना आयोग को मूकदर्शक बनाकर रख दिया मगर मुनाफे को केन्द्र में रखकर किए गए किसी भी निवेश से हम समावेशी विकास की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं।

अतः यह बेवजह नहीं है कि राज्यों की समस्याएं आज भी वही हैं जो कमोबेश पहले थीं। अतः आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री चन्द्र बाबू नायडू यदि इसके तेलंगाना के अलग होने के दिन से ही विशेष राज्य के दर्जे की मांग कर रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। सवाल यह है कि नीति आयोग के माध्यम से राज्यों की विकास मूलक समस्याओं का समाधान किस प्रकार निकले ? इसके लिए हमें एक एेसा तंत्र तो स्थापित करना ही पड़ेगा जो राज्यों की जायज मांगों के अनुसार तुरत–फुरत फैसला लेकर विकास की गाड़ी को इस प्रकार आगे ले जाता रहे कि प्रत्येक राज्य के लोगों की औसत आय में वद्धि की दर इस प्रकार हो कि पिछड़े राज्य स्वयं के पिछड़ा होने के अहसास से छूट सकें।

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