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बदलते भारत की राजनीति !

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भारत का राजनीतिक मानचित्र पिछले चार वर्षों में जिस तेजी के साथ बदला है वह अचम्भे की बात नहीं है क्योंकि इससे पहले भी एेसा होता रहा है। 1967 में पूरे देश में गैर-कांग्रेसवाद की लहर उठने के बाद 1971 में इसका रुख उलटा घूम गया था और कुछ राज्यों में इक्का-दुक्का गैर-कांग्रेसी सरकारें ही बचीं मगर 1977 के बाद इसमें फिर परिवर्तन आया और कमोबेश उत्तर भारत के सभी राज्यों में फिर से गैर-कांग्रेसी सरकारें बन गईं मगर 1980 में यह फिर पलटी खा गया और पुनः कांग्रेसी सरकारें आ गईं।

इसका गूढ़ अर्थ यही निकाला जा सकता है कि ये जितने भी परिवर्तन हुए विचारधारा के स्तर पर नहीं हुए बल्कि राजनैतिक विमर्श या एजेंडे के बदलने के स्तर पर हुए। इस बदलाव में स्थायी भाव इसीलिए नहीं रहा क्योंकि यह परिवर्तन वैचारिक स्तर पर नहीं था। इसके बाद की राजनीति और भी ज्यादा उलझी हुई सत्तापरक गठबन्धनों के दौर की है जिसमें वैचारिक या सैद्धान्तिक पक्ष पूरी तरह गौण होता गया। यह दौर इस बात का साक्षी भी है कि इस दौरान केन्द्र कमजोर रहा और राज्यों के स्तर पर विभिन्न राजनैतिक गठजोड़ केवल सत्ता पाने की दृष्टि से बने।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश रहा जहां 1990 से जाति मूलक दलों के उदय के साथ कबायली चरित्र की राजनीति की शुरूआत हुई और सामाजिक स्तर पर नागरिकों की पहचान संकीर्ण होकर वोट बैंक में तब्दील होती गई। यह राजनीति इस राज्य में अभी भी जारी है जिसका प्रमाण फूलपुर और गोरखपुर में हो रहे उपचुनाव हैं जहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में गठबन्धन हो गया है। यह गठबन्धन विशुद्ध रूप से उन दो जातियों या वर्गों यादव व दलित के गठबन्धन के रूप में देखा जा रहा है जो इससे पहले एक-दूसरे को अपने-अपने रुआब के तले लाने के राजनीतिक विचार गढ़ती रही हैं।

अतः सवाल उठ सकता है कि पूरी लड़ाई मंे भाजपा व कांग्रेस जैसी पार्टियों की क्या भूमिका है? मगर हकीकत यह है कि इस जाति युद्ध में कांग्रेस अपनी भूमिका की तलाश करने में असफल रही है जबकि भाजपा ने हिन्दू विचार दर्शन के आधार पर अपना जनाधार बढ़ाया है मगर इस समीकरण में उन अल्पसंख्यक मतदाताओं की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है जो संख्या बल में सबसे बड़े हैं। निश्चित रूप से ये मुस्लिम समुदाय के लोग ही हैं।

अतः सैद्धान्तिक विचार दर्शन यहीं दम तोड़ देता है क्योंकि सामाजिक गोलबन्दी का इससे कोई लेना-देना नहीं होता मगर एेसा भी नहीं है कि सामाजिक गोलबन्दी में सिद्धान्त नहीं होता मगर इसकी शर्त यह होती है कि यह सामाजिक स्तर वंचित या फिछड़े अथवा अधिकारविहीन समाज के सभी समुदायों को एक साथ लेकर चलता है। उत्तर-पश्चिम भारत में इसके प्रणेता डा. भीमराव अम्बेडकर कहे जा सकते हैं जबकि दक्षिण भारत में 1916 के करीब स्थापित हुई जस्टिस पार्टी ने यह कार्य बहुत बड़ी मुहिम छेड़कर शुरू किया था जिसमें इस राज्य के नामवर राजनीतिज्ञ शुरू में शामिल हुए थे और बाद में कुछ कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और कुछ ने समाज सुधारक स्व. पेरियार की द्रविड़ कषगम पार्टी के जरिये सामाजिक न्याय का आन्दोलन छेड़ा जिसे बाद में द्रमुक पार्टी ने अपना मूल मन्त्र बनाया।

यह विशुद्ध रूप से वैचारिक बदलाव की राजनीति थी इसीलिए आज भी 1967 के बाद से अन्नाद्रमुक के अस्तित्व में आ जाने के बावजूद चालू है। तमिलनाडु में यह बदलाव स्व. अन्ना दुरै अपने बूते पर लाये थे और इसके लिए उन्हें किसी राजनैतिक समझौते की जरूरत नहीं पड़ी थी मगर शेष भारत की राजनीति के बारे में हम एेसा नहीं कह सकते हैं। लगभग हर राज्य में (गुजरात आदि को छोड़कर ) जो भी बदलाव आया है वह स्थानीय प्रभावी सामाजिक गुटों के दबदबे को साथ लेकर ही आया है मगर इस बदलाव में भाजपा के राष्ट्रवाद ने मजबूत आधार का कार्य किया है।

बेशक इसका स्वरूप अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग रूपों में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार फेरबदल करके पेश किया गया है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में मेघालय को छोड़कर त्रिपुरा व नागालैंड में भाजपा की विजय को यदि हम इस नजरिये से देखेंगे तो हम भ्रम में नहीं रहेंगे क्योंकि इन राज्यों में मजबूत केन्द्र का अहसास हमेशा ही राजनीति को प्रभावित करता रहा है। दूसरे राजनीति का नियम यह भी है कि इसमें कभी खाली स्थान नहीं रहता है। अतः कांग्रेस जो भी स्थान खाली कर रही है उसकी पूर्ति भाजपा तात्कालिक तौर पर तेजी के साथ कर रही है परन्तु लोकतन्त्र में यह राजनीति का स्थायी चरित्र नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह आगे की तरफ जिस तेजी से भागती है उतनी ही गति से अपने पीछे खालीपन भी छोड़ती जाती है। सवाल इसी खालीपन के न पैदा होने देने का रहता है। यह खालीपन इसीलिए पैदा होता है कि राजनैतिक विमर्श बदलने लगता है।

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