मालेगांव विस्फोट कांड के आरोपी लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई जमानत पर जम कर राजनीति हो रही है और इसे हिन्दू व मुस्लिम आतंकवाद जैसी अवधारणाओं से जोड़ा जा रहा है। आतंकवाद की यह अवधारणा ही मूलत: गलत है, क्योंकि भारत के नागरिक किसी भी प्रकार के आतंकवाद के पूरी तरह विरुद्ध हैं। वास्तव में यह उग्रवादी उन्मादी विचारधारा होती है जो आतंकवाद को जन्म देती है और इसकी जड़ प्रतिशोध या बदले की भावना में दबी होती है। भारत की संस्कृति इस प्रकार के विचार को ही पूरी तरह नकारती है और वसुधैव कुटुम्बकम् का उद्घोष करती है
इसके बावजूद यह सत्य है कि हमारे देश में कुछ संगठन आतंकवाद को पनपाने की कोशिश करते रहे हैं जिनमें ‘सिम्मी’जैसी जमात प्रमुख रही है। भारत के हिन्दुओं का यह इतिहास रहा है कि उन्होंने कभी भी किसी उग्र विचारधारा को स्वीकार नहीं किया यहां तक कि स्वातंत्र्य वीर सावरकर की हिन्दू महासभा की इस अवधारणा को भी नहीं कि राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण होना चाहिए।इस देश के लोगों ने इसके जवाब में महात्मा गांधी का अहिंसा का रास्ता अपनाया और उल्टे अंग्रेजों की लाठियां खाना गंवारा किया। अत: जो लोग किसी प्रकार के भी हिन्दू आतंकवाद की बात करते हैं वे भारत की मिट्टी की तासीर से वाकिफ नहीं हैं, जहां तक मुस्लिम आतंकवाद का सवाल है उसका जनक और प्रणेता पाकिस्तान है, क्योंकि वह भारत में अव्यवस्था फैला कर इसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उससे भी ज्यादा की तादाद में यहां रहने वाले मुसलमान नागरिकों में असुरक्षा की भावना पैदा करना चाहता है और यहां के कथित हिन्दू संगठनों के विरुद्ध उन्हें भड़काना चाहता है।
यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि पिछली यूपीए की मनमोहन सरकार के दौरान हिन्दू या भगवा आतंकवाद शब्दों को हवा दी गई जिससे भारत के दो प्रमुख सम्प्रदायों के बीच शक का माहौल बनने के हालात पैदा होते चले गए। सितम्बर 2008 में मालेगांव बम विस्फोट मामले में साध्वी प्रज्ञा, रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय के साथ ही लेफ्टि. कर्नल श्रीकांत पुरोहित को गिरफ्तार किया और महाराष्ट्र की विशेष पुलिस एटीएस ने उन पर मुकद्दमा चलाना शुरू किया। उस समय कर्नल पुरोहित भारतीय सेना की सेवा में थे और सेना के गुप्तचर विभाग में तैनात थे। उन पर रिटा. मेजर उपाध्याय द्वारा स्थापित ‘अभिनव भारत’ संस्था की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए कहा गया।
यह संस्था उग्रवादी विचारों की थी। मगर आरोप है कि उन्होंने इस संस्था के साथ मिलकर मालेगांव में विस्फोट करने के षड्यंत्र में हिस्सा लिया और सेना द्वारा प्रयोग किये जाने वाला 60 किले विस्फोट आरडीएक्स मुहैया कराया। कर्नल पुरोहित ने इस घटना को उन्हें फंसाने की गरज से रचा गया एक षड्यंत्र बताया और कहा कि अभिनव भारत की गतिविधियों के बारे में वह सेना के अपने उच्चाधिकारियों को अवगत कराते रहे थे। दूसरे सेना विस्फोट के लिए आरडीएक्स का उपयोग ही नहीं करती है। यह आरडीएक्स उन्हें फंसाने की गरज से उनके घर पर एटीएस ने ही रखवाया।
पूरे मामले में इस घटना से ही हिन्दू या मुस्लिम आतंकवाद का रंग लिया हो ऐसा नहीं है, बल्कि समझौता एक्सप्रैस विस्फोट मामले में भी पाकिस्तान द्वारा गुहार लगाये जाने पर कुछ हिन्दुओं को पकड़ लिया गया था। इससे सबसे ज्यादा नुकसान भारत का ही हुआ, क्योंकि यहां के सामाजिक तानेबाने में दरारें आनी शुरू हो गईं। सवाल न पहले यह था कि आतंकवादी मुसलमान है या हिन्दू बल्कि असली सवाल यह था कि वह आतंकवादी था। मगर कांग्रेस के दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं का क्या किया जाये जो यह कह रहे हैं कि भाजपा की केंद्र सरकार हिन्दुओं के खिलाफ आतंकवाद के मामले ढीले करा रही है।
ऐसा कहकर वह न तो कांग्रेसी रह गये हैं और न ही किसी अन्य राजनीतिक दल के बल्कि उन्होंने ‘मुस्लिम लीग’ मानसिकता का परिचय जरूर दे दिया है, उन्हें इस देश की न्याय प्रणाली पर ही भरोसा नहीं रहा है। कर्नल पुरोहित पिछले नौ साल से जेल में बंद हैं और उनके खिलाफ दो-दो जांच एजेसियां एटीएस और एनआईए चार्जशीट दायर कर रही हैं और दोनों ही अलग-अलग आरोप लगा रही हैं। उन पर एटीएस ने मकोका के तहत भी आरोप लगाये थे जिन्हें पिछले वर्ष ही न्यायालय ने खारिज कर दिया था। उन्हें जमानत लेने का क्या न्यायिक अधिकार भी नहीं हैं। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें केवल जमानत दी है, उनके खिलाफ लगाये गये आरोप निरस्त नहीं किए हैं। निचली अदालत में उनके खिलाफ बाकायदा मुकद्दमा चलेगा।
यदि अदालत में आरोप सिद्ध नहीं हो पाते हैं तो उनके जेल में बिताए 9 साल कौन वापस करेगा। इसमें हिन्दू और मुसलमान का सवाल लाना बेमानी है, क्योंकि पिछले वर्ष ही अदालत से कई ऐसे मुसलमान नागरिक निर्दोष होकर छूटे थे जिनकी पूरी जवानी जेल में ही बीत गई थी। उन पर भी आतंकवाद के आरोप लगे थे। अत: सशर्त जमानत यदि किसी आरोपी को मिलती है तो इसे हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से क्यों देखा जाए, बल्कि सवाल तो जांच एजेंसियों की प्रक्रिया पर उठता है कि वे चार्जशीट तक दायर करने में सालों लगा देती हैं और अदालत से हिरासत पर हिरासत की दरकार करती रहती हैं।