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‘प्रभु’ भरोसे रेलगाड़ी

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उत्तर प्रदेश के खतौली कस्बे में जो रेल दुर्घटना हुई है उससे सिद्ध हो गया है कि देश का रेल मंत्रालय किस लावारिस हालत में ‘प्रभु भरोसे’ चल रहा है। जब रेल की पटरी के एक छोटे से हिस्से की मरम्मत करने के काम तक को रेलवे विभाग सुरक्षा मानकों के तहत पूरा नहीं कर सकता तो हम किन रेल सुविधाओं के विस्तार के ख्वाब में जी रहे हैं? खतौली की रेल पटरियों पर बिखरे हुए सबूत और आसपास के निवासी गवाही दे रहे हैं कि खस्ता हालत रेल पटरी को दुरुस्त करने के काम को रेल मंत्रालय ने गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि स्थानीय मीडिया पिछले पांच महीने से चिल्ला रहा था कि जिस तरह रेल पटरी को ठीक किया जा रहा है उससे कोई बड़ा हादसा किसी दिन भी हो सकता है। मगर इसका दूसरा पक्ष भी है। वह यह है कि आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की दौड़ में हमने रेलवे मंत्रालय को मुनाफा कमाने की प्रतियोगिता में झोंक दिया है। रेलवे किसी भी स्तर पर किसी प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता है क्योंकि यह देशवासियों की जीवनरेखा ही नहीं बल्कि पूरे भारत को जोडऩे वाली मजबूत कड़ी है। खतौली में जो ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हुई वह ओडिशा के पुरी शहर से हरिद्वार जा रही थी।

इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि रेलगाड़ी की भारत की एकता को बनाए रखने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है मगर इसे मुनाफे में दिखाने के चक्कर में हमने इसके आधारभूत तंत्र को जर्जर कर डाला है जिसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि रेलवे में रेल पटरियों की मरम्मत करने और रखरखाव के विभाग में ही निचले स्तर के चालीस हजार पद खाली पड़े हुए हैं इसके साथ ही दो लाख से अधिक तृतीय श्रेणी कर्मचारियों के पद रिक्त हैं। एक लाख 20 हजार कि.मी. लम्बाई में पूरे देश में फैली रेल पटरियों पर चलने वाली ट्रेनों में रोजाना दो करोड़ 20 लाख सफर करने वाले यात्रियों की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी किसी भी सरकार को सबसे पहले लेनी होगी और यह कार्य मुनाफे के नजरिये से किसी भी तौर पर नहीं किया जा सकता। मगर पिछले 25 सालों से जो नीतियां विभिन्न सरकारें चला रही हैं उनसे पूरे रेलवे तंत्र का अधिकाधिक दोहन तो किया गया है मगर उस तंत्र को मजबूत करने पर ध्यान नहीं दिया गया जिस पर पूरा रेल मंत्रालय खड़ा हुआ है। समाज के सबसे गरीब आदमी के यातायात का सबसे सस्ता साधन रेलवे ही है और इसी को मुनाफे में चलाने की होड़ में शामिल कर लिया गया है।

भारत ने अपना जो कुछ भी विकास किया है वह समाज के निचले पायदान पर खड़े हुए सबसे गरीब व्यक्ति के उत्थान के नजरिये से किया है न कि समाज के ऊंचे पायदान पर खड़े अमीर व्यक्ति की सुख-सुविधा के लिहाज से। भारत की सरकार इसीलिए लोक कल्याणकारी सरकार कहलाती है कि उसकी नीतियां वंचितों को सहारा देने की गरज से बनती हैं। मगर आर्थिक उदारीकरण की प्रतियोगिता ने इसे हानि-लाभ के समीकरण में परिवर्तित कर डाला है। रेलवे इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यात्री सुरक्षा इसका सबसे अहम लक्ष्य शुरू से ही रहा है। यदि ऐसा न होता तो स्व. लाल बहादुर शास्त्री अपने रेलमंत्री रहते रेल दुर्घटना होने पर अपने पद से इस्तीफा क्यों देते? मगर आज के राजनितिज्ञों से ऐसी अपेक्षा करना रेत में सुई ढूंढने के बराबर है। यात्री सुरक्षा के लिए रेलवे में सफर करने वाले यात्रियों से ही पृथक से अधिभार वसूला जाता है और मरते भी वे ही हैं। खतौली में हुई रेल दुर्घटना से साफ हो गया है कि यात्री सुरक्षा को लेकर माननीय रेलमंत्री श्री सुरेश प्रभु कितने संजीदा हैं? वह रेलवे का खर्चा कम करने के लिए पिछले तीन साल से रात-दिन लगे हुए हैं और इस हद तक लगे हुए हैं कि रेलगाडिय़ों को निजी कम्पनियों का इश्तहार बना रहे हैं मगर जिन पटरियों पर ये रेलगाडिय़ां दौड़ती हैं उन्हें लावारिस बनाए हुए हैं।

आम लोगों की जान को खतरे में डाल कर यदि यह कार्य होता है तो उसे हम किस दर्जे में रखेंगे? उनके पद पर विराजने के बाद से अब तक दर्जनों ट्रेन दुर्घटनाएं हो चुकी हैं और सभी लगभग रेलवे विभाग की बदइंतजामी की वजह से हुई हैं। मगर वह रेलवे को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए कर्मचारियों की भर्ती तक नहीं होने दे रहे हैं और सारा काम ठेके पर चल रहा है। रेलवे में खलासी रेल पटरियों को ठीक-ठाक रखने वाली सबसे मजबूत कड़ी होती है। यह सबसे छोटा कर्मचारी होता है मगर उसी की नौकरी पर सबसे बड़ी गाज पिछली कई सरकारों के दौर से गिरी है लेकिन क्या गजब का ङ्क्षहदोस्तान है कि जब खतौली में रेल के डिब्बे पटरियों से उतरे और यात्री कराहने लगे तो आसपास के ग्रामीणों ने ही सबसे पहले राहत कार्य को अंजाम दिया और सभी हिन्दू -मुसलमानों ने मिल कर मानवता का सिर ऊंचा कर डाला। दुर्घटना की जांच की अब औपचारिकताएं पूरी की जाएंगी। रेलवे सुरक्षा विभाग और पुलिस इसकी जांच करेंगे। मगर इस इलाके के लोगों की उस शिकायत का क्या होगा जो उन्होंने महीनों पहले रेलवे के अधिकारियों से की थी कि खस्ता रेल पटरी पर ट्रेन को दौड़ाने से पहले उसकी रफ्तार को कम से कम किए जाने के पुख्ता इंतजाम किए जाने चाहिए। कल्पना कीजिये यदि किसी विकसित या यूरोपीय देश में ऐसा हो जाता कि रेल का डिब्बा किसी के घर में घुस जाता तो क्या होता?

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