देश के 14वें राष्ट्रपति के लिए अब चुनाव होना सुनिश्चित है। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार को अपना प्रत्याशी बना कर साफ कर दिया है कि सत्तारूढ़ एनडीए के प्रत्याशी श्री रामनाथ कोविंद को कड़े मुकाबले से गुजरना होगा। लोकतन्त्र में यह स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि बेहतर से बेहतर प्रत्याशी को भी विरोध का सामना करना पड़ सकता है जिस तरह पिछले राष्ट्रपति चुनाव में श्री प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी को लेकर हुआ था। मगर विपक्षी दलों ने मीरा कुमार का चयन करके साफ कर दिया है कि वह सत्तारूढ़ भाजपा के दलित कार्ड को दलित कार्ड से ही काटेगी और प्रतीकात्मक रूप से सत्तारूढ़ पार्टी को दलितों की मसीहा नहीं बनने देगी। विपक्ष को यह अधिकार लोकतंत्र देता है कि वह अपने उम्मीदवार का चयन भी सभी राजनैतिक समीकरणों और गणित का ध्यान रख कर करे जिस तरह सत्तारूढ़ दल ने श्री कोविंद का चुनाव करते समय रखा था।
यह नहीं भूला जाना चाहिए कि राष्ट्रपति चुनाव की पूरी प्रक्रिया पूर्णत: राजनैतिक होती है जबकि यह पद पूरी तरह अराजनीतिक होता है। यह भी भारत के लोकतन्त्र की खूबसूरती है कि राजनैतिक उठा-पटक और कशमकश के दौर से चुने हुए प्रत्याशी विजयी होकर जब राष्ट्रपति का आसन ग्रहण करते हैं तो वह पूरी तरह अराजनैतिक हो जाते हैं और उनका कार्य सिर्फ संविधान की सुरक्षा और भारत देश की भौगोलिक सीमाओं का संरक्षण रह जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि राष्ट्रपति ही भारत की सेना के तीनों अंगों के सुप्रीम कमांडर होते हैं फिलहाल पूरे देश की विधानसभाओं और संसद में जो राजनैतिक दलगत स्थिति है उसे देख कर विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि 17 जुलाई को मतदान होने पर विजय श्री कोविंद की ही होगी मगर श्रीमती मीरा कुमार के विपक्ष का प्रत्याशी घोषित होने की वजह से असमंजस को बढ़ावा मिल सकता है। इसमें भी कोई दो राय नहीं हो सकती। इसकी असली वजह दोनों ही प्रत्याशियों का दलित समुदाय से आना है। सत्ताधारी दल की यह रणनीति हल्की पड़ी है कि किसी दलित समुदाय के प्रत्याशी को समर्थन देना प्रत्येक पार्टी का कत्र्तव्य होना चाहिए। मीरा कुमार के भी दलित होने की वजह से दोनों ओर से यही तर्क दिया जा सकता है।
मगर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका बिहार के मुख्यमन्त्री और जनता दल(यू) अध्यक्ष श्री नीतीश कुमार की होने वाली है जिन्होंने विपक्षी गठबन्धन में रहने के बावजूद भाजपा प्रत्याशी श्री कोविंद को समर्थन देने की घोषणा कर दी है। इसकी असली वजह बिहार के राज्यपाल के रूप में श्री कोविंद का शिष्टतापूर्ण व संविधान परक आचरण रहा है लेकिन दूसरी तरफ मीरा कुमार स्व. जगजीवन बाबू की पुत्री हैं और लोकसभा की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं। हालांकि उनका पूरा राजनैतिक जीवन बहुत सपाट और अपने पिता के आभामंडल के घेरे में ही रहा है मगर वह बिहार की बेटी तो हैं औऱ दलित भी हैं, जिसकी वजह से नीतीश बाबू को श्री कोविंद के समर्थन की कैफियत की वजह ढूंढने में मशक्कत हो सकती है और उनके सहयोगी लालू प्रसाद इसे तिल का ताड़ बना कर पेश कर सकते हैं। दूसरी तरफ लालू जी की राजनैतिक विश्वसनीयता रसातल पर है क्योंकि उनका पूरा परिवार ही भ्रष्टाचार की दलदल में धंसा हुआ है। अत: लालू को नीतीश बाबू की सरकार में बने रहने के लिए अपने तेवरों को ढीला करना ही होगा। बिहार के वर्तमान राजनैतिक माहौल में लालू को सिवाय नीतीश के आंगन के कहीं और ठौर नहीं है। इस बात को घाघ समझे जाने वाले लालू न समझते हों, ऐसा संभव नहीं है।
मगर यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि राष्ट्रपति चुनाव में दल-बदल कानून लागू नहीं होता है और हर दल के प्रत्येक सांसद या विधायक को अपने मन मुताबिक वोट देने का संवैधानिक अधिकार होता है। यह मतदान पूरी तरह गोपनीय रहता है। अत: दलित प्रत्याशियों के मुकाबले में कोई भी दल केवल दलित को ही राष्ट्रपति बनाने की मुहिम से खुद को जुड़ा हुआ बता सकता है। इससे 17 जुलाई तक दोनों ही प्रत्याशियों को अपनी-अपनी जीत के ख्वाब में रहने से कोई नहीं रोक सकता। दरअसल यह चुनाव भाजपा विरोध और समर्थन में तब्दील होना निश्चित है जिसकी वजह से श्री कोविंद की जीत निश्चित लग रही है क्योंकि पूरे देश मे भाजपा के समर्थक दलों के सदस्यों की संख्या चुने हुए सदनों में काफी ज्यादा है। इनमें दक्षिण के अन्नाद्रमुक व तेलंगाना राष्ट्रीय समिति से लेकर ओडिशा के बीजू जनता दल आदि के नाम प्रमुख हैं। फिर भी चुनाव तो चुनाव होता है जिसके लिए दोनों प्रत्याशियों को ही कमर कसनी होगी जिससे मुकाबला दिलचस्प हुए बिना नहीं रह सकता।