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रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या

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म्यांमार अर्थात बर्मा के रोहिंग्या मुस्लिम नागरिकों को शरण देने के मुद्दे पर भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में आज जो चुनिन्दा हलफनामा दायर किया है उसमें राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिक रूप से अपनी चिन्ता के केन्द्र में रखा है। इस मामले में निश्चित रूप से किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं किया जा सकता मगर इसके बावजूद यह प्रश्न अपनी जगह पर वाजिब तौर पर खड़ा रहता है कि क्या म्यांमार से इस जातीय समुदाय के लोगों का जबरन पलायन जिस तरह म्यांमार की सरकार कर रही है उस पर दुनिया के अन्य देशों को ध्यान नहीं देना चाहिए और इन नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा नहीं की जानी चाहिए।

सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि वास्तव में म्यांमार के निवासी होते हुए भी ये लोग म्यांमार की सरकार की निगाह में वहां के नागिरक क्यों नहीं है? इसके साथ ही यह भी समझा जाना चाहिए कि भारत की भूमिका उनके सन्दर्भ में क्यों निर्णायक है? म्यांमार बहुत लम्बे अर्से तक फौजी शासन के बूटों तले रहा है जिसकी वजह से वहां नागरिक अधिकारों का हनन होता रहा है। फिलहाल वहां जिस तरह का लोकतन्त्र काबिज किया गया है उसमें भी फौज की भूमिका को अहम रखा गया है। अत: विभिन्न जातीय समूहों को देखने का फौजी तरीका लोकतान्त्रिक नजरिये से मेल नहीं खा सकता।

1982 में रोहिंग्या लोगों को वहां की सरकार ने अपने देश का नागरिक मानने से इन्कार कर दिया और कानूनन यह व्यवस्था की कि ‘अराकान जातीय समूह’ के ये लोग म्यांमार के आठ अन्य मूल जातीय समूहों का हिस्सा नहीं रहे हैं। ये बंगला भाषा से मिलती-जुलती भाषा बोलते हैं और इनका असली स्थान बंगलादेश का हिस्सा रहा अराकान है मगर अराकान मूल के लोगों में हिन्दू भी हैं। बेशक इनकी संख्या कम है मगर ‘राखिन’ प्रदेश से इनका भी लेना-देना है जिसे रोहिंग्या अपना प्रदेश मानते हैं। तभी से यह मांग इस समूह के लोगों द्वारा उठाई जाती रही है कि उन्हें भी आत्म निर्णय का अधिकार मिलना चाहिए और उनकी भी पहचान मुकर्रर होनी चाहिए। यह हैरत की बात हो सकती है कि जो लोग सदियों से म्यांमार में रहते आये हैं वे वहां के नागरिक क्यों नहीं हो सकते। यहीं पर भारत की भूमिका महत्वपूर्ण बनती है क्योंकि 1935 तक पूरा म्यांमार ब्रिटिश भारत का ही हिस्सा था और यहां के निवासी भी भारतीय ही कहलाते थे। वस्तुत: रोहिंग्या ‘भारतीय-आर्य’ जातीय समूह के लोग हैं जिन्होंने आठवीं शताब्दी के बाद से इस्लाम धर्म अपनाना शुरू किया मगर 1982 के म्यांमार कानून के तहत इन्हें न केवल नागरिकता से वंचित रखा गया बल्कि सरकारी शिक्षा और नौकरियों में भी इनका प्रवेश निषेध कर दिया गया।

1935 तक भारत का हिस्सा रहने वाले किसी भी देश के नागरिकों के किसी समुदाय के साथ यदि इस प्रकार का व्यवहार वहां की सरकार करती है तो भारत में चिन्ता होना स्वाभाविक बात है क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने 1935 में जो नया ‘भारत सरकार कानून’ अपनी संसद में पारित करके बनाया था उसमें म्यांमार को अलग देश घोषित करने के बाद ही यह कदम उठाया गया था जबकि इससे पहले के 1917 के ब्रिटिश सरकार के भारत सरकार अधिनियम के तहत म्यांमार भारत का ही हिस्सा था। उस समय अंग्रेजों ने श्रीलंका को भारत से अलग किया था अत: इन देशों की जातीय समूहों की समस्याओं से मूल रूप से भारत का सम्बन्ध छिपा हुआ है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारत की सरकार पाकिस्तान या बंगलादेश में भी किसी जातीय समूह पर अत्याचार होने की स्थिति में उसकी समस्याओं पर मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर ही विचार करती है अत: रोहिंग्या जातीय समूह के लोगों के अधिकारों के मुद्दे पर भारत का राष्ट्रसंघ में रुख उनके मानवीय व नागरिक अधिकारों के हक में ही हो सकता है। सदियों से राखिन प्रदेश के निवासियों को म्यांमार की सरकार अपना नागरिक ही मानने के लिए क्यों तैयार नहीं हो रही है और उन्हें सभी सरकारी सुविधाओं से वह किस आधार पर वंचित रख सकती है।

हम रोहिंग्या लोगों की समस्या को हिन्दू-मुसलमान की नजर से देखने का जोखिम नहीं उठा सकते और इस पर घरेलू स्तर पर राजनीति कतई नहीं कर सकते क्योंकि इससे भारत के भीतर के साम्प्रदायिक सौहार्द को ही हम शक के घेरे में लाकर खड़ा कर देने की भूल कर बैठेंगे। मूल सवाल यह है कि किसी भी देश में रहने वाले लोग राज्यविहीन (स्टेटलेस) किस प्रकार हो सकते हैं। यदि राज्य उन पर अत्याचार करता है तो वे दुनिया के इंसानियत पसन्द देशों का दरवाजा खटखटायेंगे ही। अराकान जातीय समूह के इन लोगों का नाता तो भारतीयों से है मगर इसके साथ ही हम अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा से भी किसी प्रकार का समझौता नहीं कर सकते। यदि रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों का रिश्ता आतंकवादी संगठनों या पाकिस्तान की दहशतगर्द तंजीमों से रहा है तो उसका इलाज भी हमें ढूंढना होगा। इसके लिए सबसे बेहतर यह होगा कि भारत, म्यांमार व बंगलादेश मिलकर रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या का पक्का समाधान ढूंढें और इस पूरे समूह को पाकिस्तान के फरेबी जाल से मुक्त रखने के प्रयास करें। यह कहना किसी तौर पर उचित नहीं है कि मुस्लिम होने के नाते रोहिंग्या किसी मुस्लिम देश की शरण में ही जायें, इसके साथ-साथ हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि इस मुद्दे पर भारत के कट्टरपंथी समझे जाने वाले मुस्लिम संगठन किसी भी तरीके से हिन्दू-मुसलमान की राजनीति को न पनपायें।

‘इत्तेहाद-ए-मुसलमीन’ के नेता असदुद्दीन ओवैसी का यह तर्क पूरी तरह गलत है कि जब भारत तिब्बत से निर्वासित लोगों को शरण दे सकता है तो रोहिंग्या मुसलमानों को क्यों नहीं। वह दो बेमेल परिस्थितियों की तुलना कर रहे हैं। चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया था जबकि रोहिंग्या म्यांमार से भागना नहीं चाहते बल्कि वे वहीं रहना चाहते हैं मगर वहां की सरकार उन्हें अपने यहां से भगाने पर आमादा है जिसका लाभ पाकिस्तान जैसा आतंकवाद को पनाह देने वाला देश उठाना चाहता है और भारत जैसे मानवीय अधिकारों के अलम्बरदार देश की सदभावना की राह में अवरोध पैदा करना चाहता है। रोहिंग्या लोगों में जो हिन्दू हैं उनके साथ भी म्यांमार की सरकार ऐसा ही व्यवहार कर रही है। फौज ने उन पर भी जुल्म किये हैं और उनके घरों को भी जलाया गया है अत: समस्या हिन्दू-मुसलमान की नहीं है, भारतीय उपमहाद्वीप के निवासियों की है।

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