कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी का आज महात्मा गांधी की समाधि ‘राजघाट’ पर धरने पर बैठना इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वह पूरे देश में फैली नफरत और और घृणा की हवा को प्रेम की ‘बयार’ से बदलना चाहते हैं। निश्चित रूप से यह गांधीवादी सोच का व्यावहारिक प्रदर्शन है। यही वह सोच है जो भारत को ‘भारत’ बनाती है और कांग्रेस पार्टी को इस देश के राजनैतिक वातावरण में फैली आक्सीजन की तरह आवश्यक सिद्ध करती है। गौर से देखा जाये तो आधुनिक भारत का इतिहास कांग्रेस के इतिहास से अलग नहीं है और जब-जब यह पार्टी कमजोर हुई है तब-तब ही भारत का ‘सार्वभौमिक सर्वजन हिताय’ विचार तार-तार हुआ है। दलितों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में समान स्तर व समान अवसर देने का मन्त्र कांग्रेस पार्टी ने ही सबसे पहले स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान फूंक कर भारत पर शासन करने वाली ब्रिटेन की सरकार के सामने चुनौती पेश कर दी थी और घोषणा कर दी थी कि आजाद भारत का संविधान दलित का बेटा डा. भीमराव अम्बेडकर ही लिखेगा। यह भारत के इतिहास की सबसे बड़ी एेतिहासिक घटना थी क्योंकि तब अंग्रेज सरकार ने संविधान लिखने के लिए माने हुए अंग्रेज विध विशेषज्ञ उपलब्ध कराने को कहा था मगर महात्मा गांधी ने एेसे सभी सुझावों को ठोकर पर रखते हुए डा. भीमराव अम्बेडकर का नाम सुझाया था और उन्हें इसकी मसौदा समिति का अध्यक्ष बनवाया था। हालांकि इससे पहले 1934 के करीब पं. मोती लाल नेहरू ने भारतीय संविधान का मोटा प्रारूप तैयार कर दिया था जिसके आधार पर अगले वर्ष ब्रिटिश राज मंे चलने वाले भारत की प्रान्तीय असेम्बलियों के चुनाव हुए थे। डा. अम्बेडकर ने जो संविधान भारत को दिया वह प्रत्येक वयस्क को एक वोट का अधिकार देने के साथ एक समान नागरिक अधिकार देने का था जिसमें धर्म को निजी मामला बताकर प्रत्येक व्यक्ति में वैज्ञानिक विचार को पनपाने के दायित्व से राजसत्ता को बांध दिया गया था।
स्वतन्त्र भारत की राजसत्ता आम जनता को मिले एक वोट के अधिकार से उपजी ‘जनसत्ता’ थी जिसमें हिन्दू समाज में फैली जाति प्रथा की कुरीति को मिटाने का संकल्प आर्थिक व सामाजिक गैर-बराबरी को मिटा कर किया गया था। अनुसूचित जातियों व जन-जातियों को आरक्षण इसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए दिया गया था। अतः श्री राहुल गांधी के आज के धरने को इस नजर से देखा जाना चाहिए और बदलती परिस्थितियों के अनुरूप व्यावहारिक उपायों को परखा जाना चाहिए। जो लोग प्रतीकों के माध्यम से पत्थरों की इमारतें खड़ी करके दलितों के साथ होने वाली नाइंसाफी को शब्दों के ढकोसले से ढकना चाहते हैं उनके लिए इस जमीनी हकीकत को पहचानना जरूरी है कि विगत दिनों हुए शान्तिपूर्ण दलित आदोलन को जानबूझ कर हिंसक बनाने वालों की पहचान करने में राज्य सरकारें अभी तक कामयाब नहीं हो पाई हैं और दलित वर्ग की युवा पीढ़ी के लोगों की ‘हिट लिस्ट’ प्रचारित की जा रही है जिससे सदियों से दबा-कुचला यह समाज अपने मौलिक व बुनियादी संवैधानिक अधिकारों की मांग न कर सके। इस सन्दर्भ में मैं समाजवादी चिन्तक और जननेता डा. राम मनोहर लोहिया की उस उक्ति का हवाला देना चाहता हूं जो उन्होंने एेसी ही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में कही थी- ‘‘यदि किसी अमीर और गरीब में कोई लड़ाई होती है तो हमेशा गरीब का साथ दो क्योंकि उसका आत्मबल हरने वाली अमीरों की चौकड़ी ने उसे कभी सिर उठाकर अपनी बात कहने का मौका ही नहीं दिया है’’ मगर आज की राजनीति पाखंड का बाना पहन कर उन्हीं लोगों काे मूर्ख बनाने को उतावली हो रही है जिन्होंने इस देश को बनाने मंे अपना खून-पसीना एक किया है।
दलितों और पिछड़ों को आपस में लड़ाकर यह राजनीति उस धनमूलक व्यवस्था का दबदबा बरकरार रखने के लिए पूरा जोर लगा रही है जो किसानों से उनकी जमीन छीनकर न केवल विकास की अट्टालिकाओं में उसे मालिक से नौकर बनाकर कैद करना चाहती है बल्कि उसकी कड़ी मेहनत से पैदा की गई फसल को भी सड़कों पर बिखेर कर उसकी कीमत को तबाह कर देना चाहती है। इतना ही नहीं बल्कि मजहबी रंगों के लबादे में हिन्दोस्तान के लोगों को तक्सीम करने की सािजशें भारत के हिन्दू या मुसलमान होने की पहचान पर परवान चढ़ रही हैं। भारत तब अपना माथा पकड़ कर बहुत रोया था जब हमने मदरसे और पाठशाला में विद्यार्थी ढूंढने के बजाय हिन्दू और मुसलमान ढूंढने शुरू कर दिये थे। कौन इन जागे हुए सांस्कृतिक पेशकारों को बताये कि भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की प्राथमिक शिक्षा बिहार के सीवान जिले के एक मदरसे में ही हुई थी। इन्हें कौन समझाये कि मौलवी महेश प्रसाद ने हिन्दी के महान विद्वान राहुल सांकृत्यायन को उर्दू पढ़ाई थी। इनके ज्ञान सरोवर में विलुप्त उस धारे को कौन दिखाये कि प्रख्यात शास्त्रीय गायिका गौहर जान ने 1916 में ही ग्रामोफोन कम्पनी के लिए यह खयाल गाकर पूरे भारत को झुमा दिया था- ‘‘मेरे हजरत ने मदीने में मनाई होली-उनके आशाब ने क्या खूब रचाई होली।’’
यही भारत का वह ‘आइडिया आफ इंडिया’ है जिसकी बुनियाद पर डा. अम्बेडकर ने इसका संविधान लिखा और पूरी दुनिया को बताया कि भारत का समाज अपनी दकियानूसी सामाजिक भेदभाव की बुनावट को इसी संविधान के रास्ते पर चलकर नेस्तनाबूद करने की हिम्मत अपने लोगों में पैदा करेगा और आधुनिक कहलाया जायेगा मगर वोट बैंकों की संरचना की खातिर हम उस रास्ते पर चल पड़े जिसमें दो समुदायों या सम्प्रदायों को आपस में भिड़ाकर निकले हुए खून से सत्ता की तस्वीर बनाई जाने की तदबीर भिड़ायी जाने लगे तो हम उस हिन्दोस्तान की ताबीर कभी नहीं देख सकते जिसमें गरीब व दबे-कुचले समाज को सम्मान के साथ जीवन गुजारने का अवसर प्राप्त हो। हम जिस समरसता और समता को भारत का आख्यान बना देना चाहते हैं वह सियासत के मुहावरों से ज्यादा और कुछ नहीं हो सकता। हुकूमत में हिन्दोस्तान के 130 करोड़ लोगों का बराबर का हिस्सा होता है, इन्हें हुकूमत में आने के लिए जाति और धर्म के नाम पर बांटने की हर कोशिश को मुल्क के बांटने की तरकीब के तौर पर ही देखा जायेगा। अपने मुल्क से प्यार करना राष्ट्रभक्ति है मगर अपने मुल्क के लोगों के किसी भी समुदाय के नागरिकों से भेदभाव करना मुल्क को तोड़ने के दायरे में ही आता है। राहुल गांधी के आज के धरने को कांग्रेस के धरने की नजर से देखने की गलती जो लोग करेंगे वे भारत की सम्यक समन्वित शक्ति का विरोध ही करेंगे लेकिन कांग्रेस को ऐसी बातों से सतर्कता बरतनी चाहिए थी जिसमें धरने की गंभीरता खत्म हुई और पूरा उपवास एक प्रहसन में तब्दील हो गया।