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पाक को राजनाथ की चुनौती

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गृहमन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने कश्मीर समस्या को लेकर पाकिस्तान समेत हुर्रियत कांफ्रैंस के साथ बातचीत के दरवाजे खुले रखने का जो संकेत दिया है उसका स्वागत किया जाना चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि आखिरकार कब तक हम इस सच्चाई से भाग सकते हैं कि किसी भी समस्या का अन्तिम हल केवल बातचीत की मेज पर बैठकर ही होता है। बेशक पूरी दुनिया में दो-दो विश्व युद्ध हुए मगर जो अन्तिम हल निकला वह बातचीत की मेज पर बैठकर ही निकला। पाकिस्तान की फितरत से यह देश वाकिफ न हो एेसा नहीं है। हम जानते हैं कि हर बार शान्ति की बात करके उसने हमारी पीठ में छुरा घोंपा और सोचने पर मजबूर किया कि हमारी नेक नीयत होने के बावजूद उसके इरादे नेक क्यों नहीं रहते ?

मगर हकीकत यह भी है कि दोनों मुल्कों की अवाम के बीच दोस्ती की गहरी चाह रही है। पाकिस्तान में आगामी जुलाई महीने तक इसकी राष्ट्रीय असैम्बली के नए चुनाव होने वाले हैं जिनमें भारत के साथ अच्छे ताल्लुकात का भी एक मुद्दा उभर रहा है जबकि पांच साल पहले 2013 में इन्हीं चुनावों का मुख्य मुद्दा भारत के साथ दोस्ती का इस कदर बना था कि भारत के राजनीतिज्ञों तक को लग रहा था कि पाकिस्तान को अपनी फितरत बदलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है मगर एेसा नहीं हुआ। इसकी असली वजह पाकिस्तान का वह आधा-अधूरा लोकतन्त्र है जिसमें न केवल फौज की हुक्मबरदारी वहां की चुनी हुई सरकार पर रहती है बल्कि वहां के राजनीतिज्ञों और राजनीतिक दलों को भी फौज अपने हिसाब से इस्तेमाल करती है। यहां की राजनीति सिवाय एक-दूसरे नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उन्हें बेइमान साबित करने के अलावा कुछ नहीं है जिससे फौज अपनी मनमानी करती रहे और यहां की फौज की अहमियत तभी तक है जब तक कि भारत के साथ दुश्मनी जिन्दा रहे। अपने वजूद को बचाये रखने के लिए पाकिस्तानी फौज भारत के साथ दोस्ती के हर कदम को बीच में ही नेस्तनाबूद कर डालती है। इसके लिए उसने अपनी पनाह में दहशतगर्दों की पूरी बटालियन तैयार कर रखी है जो जम्मू-कश्मीर के नाम पर हिन्दोस्तान को लगातार उलझाये रखना चाहती है और धरती के इस ‘बहिश्त’ को ‘जहन्नुम’ में बदल देना चाहती है।

यही वजह है कि पाकिस्तान कश्मीर के देशभक्त लोगों को भारत विरोधी दिखाने के लिए हर नाजायज तरीकों का इस्तेमाल कुछ भटके लोगों के सहारे करने की फिराक में रहता है मगर श्री राजनाथ सिंह ने बातचीत के विकल्प को खुला रखकर पाकिस्तान के सामने चुनौती फैंक दी है कि उसमें अगर हिम्मत है तो सबसे पहले वह अपनी फौज के इरादों में तब्दीली करे और सीमा पार से होने वाले आतंकवाद पर काबू करे और सरहदों पर अमन-चैन का माहौल बनाए। गृहमन्त्री को इस हकीकत का इल्म है कि भारत की सीमा में सरहदों पर बसे गांवों के लोगों की वर्तमान स्थिति के चलते क्या हालत हो रही है और उन्हें किन मुश्किलों से गुजरना पड़ रहा है। इस स्थिति को कब तक चलने दिया जा सकता है कि बिना वजह के हो रही गोलाबारी से हमारे नागरिक हलाक होते रहें और हम जवाब में गोलाबारी करके सन्तुष्ट हो जाएं कि हमने ईंट का जवाब पत्थर से दे दिया। बेशक इसकी गुंजाइश तब होती है जब बाकायदा युद्ध का एेलान हो गया हो और दोनों देशों के बीच किसी भी प्रकार के दौत्य संबंध न हों मगर भारत और पाकिस्तान के बीच हर प्रकार के जायज राजनयिक व व्यापारिक सम्बन्ध काबिज हैं। यहां तक कि भारत के लोग पाकिस्तान से आयातित चीनी खा रहे हैं।

इसके बावजूद निरीह नागरिकों की मौतें हो रही हैं। एेसा तो युद्ध काल के समय भी इसके लिए बने नियमों के तहत करने की इजाजत नहीं होती। जब दोनों देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय या नियन्त्रण सीमा रेखाएं स्पष्ट हैं तो इस प्रकार की कार्रवाई पूरी तरह उन सैनिक अनुबन्धों की आचार संहिता के खिलाफ है जिनका पालन करने की कसम से पाकिस्तान बन्धा हुआ है। इसी वजह से हम देखते रहते हैं कि पाकिस्तान के उच्चायुक्त को भारत के विदेश मन्त्रालय में बुलाकर विरोध प्रकट किया जाता रहता है मगर इसके बावजूद पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आता है तो हमें एेसा रास्ता निकालना होगा जिससे पाकिस्तान को मजबूर किया जा सके कि उसकी फौज की एेसी वहशियाना हरकतें उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर असफल देश ( रोग स्टेट) घोषित कर देंगी। सियासत का असली काम यही होता है कि वह बिना फौज का इस्तेमाल किए और जानो-माल का नुक्सान किए ही दुश्मन को सही रास्ते पर ले आए। पिछले कुछ साल के दौरान हमारे सैनिकों का बलिदान इस कदर हुआ है कि हम उनके रक्त का कर्ज तक अदा नहीं कर पा रहे हैं और नतीजे में हालात और ज्यादा खराब होते जा रहे हैं।

गृहमन्त्री ने रमजान के मुबारक महीने में अपनी तरफ से ही इकतरफा युद्ध विराम की घोषणा करके यही पैगाम दिया था कि जिस मजहब के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था उसी की नसीहतों पर अमल करके यह मुल्क कत्लो-गारत के रास्ते को छोड़कर अमन-चैन पर चले। जहां तक हुर्रियत कांफ्रैंस का सवाल है तो उसे यह समझना चाहिए कि भारत के संविधान के तहत उसे बगावत करने की नसीहतें देने का हक नहीं दिया जा सकता। कश्मीरी नागरिकों के हकों की हिफाजत के लिए उन्हीं की चुनी हुई सरकार काम कर रही है। यह सरकार जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुसार भारतीय संविधान के अहाते में अपना फर्ज निभाने के अहद से बंधी हुई है। फिर भी उन्हें कोई शिकायत है तो केन्द्र सरकार के दरवाजे उनके लिए खुले हुए हैं।

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