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राम माधव और कश्मीर समस्या

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भारतीय जनता पार्टी के महासचिव राम माधव ने अपनी पार्टी और केन्द्र सरकार की कश्मीर नीति का जो खुलासा किया है उससे इस मुद्दे पर जमी हुई धुंध को छंटने में काफी मदद मिलेगी। सबसे पहले यह समझा जाना जरूरी है कि कश्मीर का मसला अब खाली सियासी मसला नहीं रह गया है बल्कि इसमें दहशतगर्दी की नई समस्या जुड़ चुकी है। अत: केन्द्र की मोदी सरकार को दोनों ही मोर्चों पर इससे जूझना होगा। फिलहाल हमें यह सोचना होगा कि इस राज्य में सामान्य स्थिति बनाने के लिए सरकार ने क्या रणनीति तैयार की है। इसी रणनीति के बारे में श्री माधव ने रिपब्लिक टीवी से बातचीत करके साफ किया कि रियासत की सरकार में भाजपा के शामिल होने की वजह सिर्फ हुकूमत में अख्तियार होना नहीं है बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ही ऐसा फैसला किया गया है और सूबे में लोकतन्त्र को फलने-फूलने देने की गरज से किया गया है।

असल में श्री माधव ही जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा गठबन्धन की सरकार के रचनाकार हैं। उन्होंने यह हौंसला दिखाया था कि जम्मू-कश्मीर के बारे में भाजपा के नजरिये से गैर इत्तेफाकी रखने वाली पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई जा सकती है और राष्ट्रीय हितों को भी पूरी तरह सुरक्षित रखा जा सकता है। यकीनन यह दूरगामी सोच थी क्योंकि पीडीपी मरहूम मुफ्ती मुहम्मद सईद की सरपरस्ती में दोनों कश्मीरों को मिलाने की पुरजोर वकालत करती रही थी और नागरिकों की खुली आवाजाही के साथ ही भारत और पाकिस्तान दोनों की ही मुद्राओं (करेंसी) तक को चलाने की तहरीर पेश करती रही थी। बिना शक मुफ्ती साहब के इन्तकाल फरमाने के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के सूबे के मुख्यमन्त्री बनने के बाद भी इस नजरिये में कोई फर्क नहीं आया है। दूसरी तरफ कश्मीर में जिस तरह की अफरा-तफरी का माहौल पिछले कुछ महीनों से बना है उसमें फौज के किरदार को लेकर लगातार नुक्ताचीनी का बाजार गर्म हुआ है और सूबाई सरकार हाशिये पर खड़ी दिखाई दे रही है मगर यह बेसबब नहीं है क्योंकि भाजपा इस सूबे से दहशतगर्दी को एकबारगी जड़ से खत्म करना चाहती है और फिरकापरस्त ताकतों व अलगाववादियों को उनकी सही जगह बताना चाहती है।

श्री माधव ने जोर देकर कहा कि केन्द्र की सरकार अलगाववादी ताकतों से बात नहीं करेगी मगर राज्य सरकार यदि चाहे और महबूबा जरूरी समझें तो उनसे बात कर सकती हैं। श्री माधव ने स्वीकार किया कि पीडीपी के साथ सरकार बनाते हुए जो एजेंडा तैयार किया गया था उसमें यह मंजूर किया गया था कि मसले का हल ढूंढने के लिए सभी रियासती हिस्सेदारों से (स्टेक होल्डर) से बातचीत की जानी चाहिए। अगर हुर्रियत कान्फ्रेंस को महबूबा हिस्सेदारी मानती हैं तो वह उनसे बातचीत कर सकती हैं। जहां तक पाकिस्तान से बातचीत करने का सवाल है तो भारत की सरकार जब इस बारे में ठीक समझेगी उचित फैसला करेगी। श्री माधव ने बहुत बेबाकी के साथ कबूल किया कि पाकिस्तान द्वारा हुर्रियत नेताओं से सीधे बातचीत करने की पेशकश की वजह से ही भारत ने उससे बातचीत बन्द करने का फैसला किया था।

यह पूरी तरह सोच-समझ कर लिया गया फैसला था। इससे पहले भी मनमोहन सरकार के जमाने में मुम्बई हमला होने के बाद एक साल से ज्यादा वक्त तक दोनों मुल्कों के बीच बातचीत बन्द रही थी मगर सूबे में भाजपा सरकार में तब एक सैकेंड के लिए भी नहीं रहेगी अगर उसे यह लगेगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा को किसी प्रकार का भी खतरा है या राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कोई काम हो रहा है। जहां तक महबूबा मुफ्ती की इस तजवीज का सवाल है कि बातचीत के बिना समस्या का हल मुमकिन नहीं है तो यह उनका अपना विचार है और लोकतन्त्र में सभी को अपना मत रखने का हक है मगर टी.वी. पर श्री माधव से हुई बातचीत से पूरे मुल्क के लोगों के सामने वह तस्वीर आ गई जो भाजपा ने इस बारे में बना रखी है। यह तस्वीर सूबे से आतंकवादियों के सफाये की है और हुर्रियत के लीडरान को अपनी हैसियत समझने की है। फौज का किरदार सिर्फ दहशतगर्दों के खात्मे तक महमूद है। दरअसल ऐसी बेबाक तस्वीर का इन्तजार भारत के सामान्य नागरिकों को अर्से से था। अब नई दिल्ली में बैठकर ‘बातचीत-बातचीत’का शोर मचाने वाले लोगों को समझ जाना चाहिए कि मोदी सरकार की ‘कश्मीर-नीति’क्या है।

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