केन्द्र सरकार पशु संरक्षण के सन्दर्भ में जारी अपनी दो सप्ताह पुरानी अधिसूचना पर पुनर्विचार करने का मन बना रही है। यह स्वयं में आश्चर्यजनक है कि अधिसूचना जारी करने से पहले ही सभी पहलुओं पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया। बेहतर होता कि पशु व्यापार व इन पर होने वाली क्रूरता के सभी आयामों को व्यापारिक दायरे में रखकर सोचा जाता और उसी के अनुरूप नई अधिसूचना जारी की जाती। नये आदेश का सबसे बड़ा असर गैर संगठित ग्रामीण क्षेत्र में पशुओं के कारोबार पर पडऩे की संभावना है जिसका प्रभाव दुग्ध या डेयरी उद्योग पर पडऩा स्वाभाविक है। नई अधिसूचना में यह प्रावधान किया गया है कि गौवंश के पशुओं से लेकर भैंस व ऊंट को भी वध या कत्ल के लिए नहीं बेचा जा सकता है। मवेशियों के बाजार में इस उद्देश्य के लिए भी इनमें से किसी पशु का कारोबार नहीं किया जा सकता है। इससे सबसे बड़ी उलझन यह पैदा हो गई थी कि दुधारू पशुओं के दूध देने में असमर्थ हो जाने के बाद गांव के किसान या डेयरी उद्योग में लगे लोग उनका क्या करें? क्योंकि ऐसे पशुओं खासकर भैंस को बेचने के लिए उन्हें कठिन सरकारी औपचारिकताओं से गुजरना होगा। गाय के मामले में यह व्यवस्था उन राज्यों में लागू नहीं होती जहां गौवध पर पूरी तरह प्रतिबन्ध है। दुधारू पशुओं का कारोबार भारत में असंगठित क्षेत्र में ही प्राय: होता है और इनके माध्यम से दूध का कारोबार भी होता है। दूसरी तरफ जब दूध देने से लाचार और बूढ़ी हुई भैंसों का खर्चा उठाने की जिम्मेदारी किसानों पर डाल दी जायेगी तो उनके दूध के कारोबार पर इसका उल्टा असर पड़ेगा और ये लोग डेयरी उत्पादन के धंधे से हाथ झाडऩे के लिए मजबूर हो जायेंगे। इसके साथ ही मांसाहार के कारोबार में लगे हुए लोगों पर असर भी पड़ेगा।
भारत मांस का निर्यात करने वाले देशों में भी प्रमुख है। सबसे ऊपर नई अधिसूचना से पूरे देश में यह भ्रम फैल गया कि सरकार पिछले दरवाजे से लोगों की खानपान की पसन्द में परिवर्तन करना चाहती है जबकि वास्तव में ऐसा कोई उद्देश्य सरकार का नहीं लगता है। इसका लक्ष्य चिन्हित पशुओं के कारोबार को नियमित करने का जरूर रहा है मगर इसमें संवैधानिक उलझनें पैदा हो गईं क्योंकि पशुपालन व कृषि मूल रूप से राज्यों का विषय है और केन्द्र को इस बाबत कोई भी कानून बनाने का अधिकार नहीं है मगर पशुओं पर क्रूरता रोकने का विषय समवर्ती सूची में आता है और केन्द्र इस बारे में कानून बना सकता है। नई अधिसूचना केन्द्र ने अपने इसी अधिकार के तहत जारी की। इसमें बीफ पर प्रतिबन्ध लगाने का कहीं कोई जिक्र सीधे नहीं है मगर कत्ल या वध के लिए पशुओं के खरीदने-बेचने पर प्रतिबन्ध है। गांवों में लगने वाले पशु बाजारों में मांस बिक्री पर भी प्रतिबन्ध है। यह सीधे तौर पर पशुओं पर क्रूरता करने के दायरे में आता है। अत: पशु बाजारों का नियमन करने से किसको इंकार हो सकता है लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे नियमन से डेयरी उद्योग पर विपरीत असर न पड़े और सरकारी झंझटों से मुक्ति पाने के लिए गांवों में किसान दुग्ध उत्पादन का व्यवसाय छोडऩे की तरफ न बढ़ जायें। साथ ही भारतीय बाजारों में मांस उत्पादन व इसकी सप्लाई में मांग के अनुरूप कमी न हो जाए। नई अधिसूचना में इस शर्त से भी किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए कि धार्मिक कृत्यों के लिए चिन्हित पशुओं को वध के लिए नहीं बेचा जाए।
भारत के सन्दर्भ में गाय पूज्य पशु है और इसका सर्वत्र संरक्षण किया जाना चाहिए तथा इसके दूध देने की उम्र गुजर जाने के बाद इसके वंश के सभी सदस्यों की सुरक्षा गौशालाओं में की जानी चाहिए, जिन राज्यों को इस पर आपत्ति हो वे अपना अलग कानून बनाकर उस पर राष्ट्रपति महोदय की स्वीकृति ले सकते हैं या अपने राज्य की परिस्थितियों के अनुसार पशुपालन कानून बना सकते हैं मगर पशुओं पर क्रूरता करना कानून के खिलाफ है। यह भी सच है कि भारत से पशुओं की अवैध तस्करी पड़ोसी देशों को होती है। इस कारोबार पर कानून का डंडा चलना जरूरी है मगर भारत में ही पशु अंगों से होने वाले औद्योगिक उत्पादन का भी ध्यान रखना होगा। गांवों में दुग्ध उत्पादक किसानों की पूंजी ऐसी भैंसों में लगी होती है जो दूध देते रहने के समय उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत करती हैं और दूध सूख जाने पर किसान उसे बेचकर नई दुधारू भैंस खरीद कर अपना धंधा आगे बढ़ाता रहता है। यह पूरी शृंखला है जो उसके धंधे को लाभप्रद बनाये रखती है मगर गायों के सन्दर्भ में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह विषय भारत की पहचान से जुड़ा हुआ है। गौवंश की रक्षा के लिए इस देश के लोगों ने अपने प्राणों तक की भी कभी परवाह नहीं की, तब भी नहीं जब महमूद गजनवी और मोहम्मद गौरी जैसे आक्रान्ताओं ने गाय को आगे रखकर इस देश के लोगों के सिर काटने तक की कायराना हरकतें कीं।