23 जनवरी को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती पर देशभर में अनेक संगठनों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। हजारों कार्यक्रम हुए लेकिन सब महज रस्म अदायगी ही लगे। भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए नेताजी ने जो अभूतपूर्व प्रयास किए उसे न सिर्फ सदियों तक याद रखा जाएगा बल्कि देश के नागरिक हमेशा के लिए कृतज्ञ रहेंगे। उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद की एक ऐसी शक्ति का संचार किया जो लोगों के अन्दर वर्षों से निष्क्रिय पड़ी थी। नेताजी के क्रांतिकारी विचारों ने लोगों में इतनी ऊर्जा भर दी थी कि वे देश की आजादी के लिए सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार हो गए थे। इतिहासकारों ने सुभाष बाबू पर अंगुली उठाई थी और बार-बार वह कहते थे कि नेताजी ने भारत को छोड़ा ही क्यों? माना अहिंसक क्रांति खोखली थी, इसका विरोध भारत में ही रहकर किया जाना चाहिए था। जिन लोगों ने बार-बार प्रश्न किए उनमें लालरंगी इतिहासकारों का हाथ प्रमुख था। आज बच्चे-बच्चे को ऐसी जानकारी दी जानी चाहिए कि आखिर सुभाष बाबू ने भारत क्यों छोड़ा। आइये, हम सुभाष बाबू की नजर से ही सत्य को परखें। आज की युवा पीढ़ी जानेगी तो उनकी आत्मा द्रवित हो उठेगी। 9 जुलाई 1943 को सिंगापुर में दिए गए उनके भाषण का अंश प्रस्तुत कर रहा हूं।
बर्लिन में जो प्रसारण हो रहा था उससे अंग्रेज क्षुब्ध हो गए थे। सबसे बड़ी दुर्भाग्य की बात तथाकथित अहिंसकों को यह लगने लगा था कि सुभाष बाबू का मार्ग बापू महात्मा गांधी के विपरीत होते हुए भी उन्हें पसन्द आने लगा था। नेताजी ने कहा था-‘‘आप सब इस बात से वाकिफ हैं कि पिछले दो दशकों में जितने भी सविनय अवज्ञा आंदोलन बापू ने चलाए हैं, मैं उनमें शामिल रहा हूं। इसके अलावा बिना मुकद्दमों के मुझे बार-बार जेल में डाला जाता रहा कि मेरा कुछ गुप्त क्रांतिकारियों से सम्बन्ध है। मैं किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह और अतिशयोक्ति के साथ कह सकता हूं कि किसी भी अन्य राष्ट्रवादी नेता की अपेक्षा मेरे इस क्षेत्र में व्यापक अनुभव हैं। अपने अनुभव के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि वे सभी प्रयास जो हम अब तक कर सके, वे अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यदि हमारे प्रयास लोगों को स्वाधीनता दिलाने के लिए देश के अन्दर पर्याप्त होते तो मैं इतना मूर्ख नहीं कि जोखिम भरे मार्ग का चयन करता। ऐसे में मैं बता देना कर्त्तव्य समझता हूं कि जो संघर्ष देश के भीतर चल रहा है उसे बाहर से मदद करने के उद्देश्य से ही मैंने भारत छोड़ा। हमारे देश को दो तरह की सहायता की जरूरत है- नैतिकता और सामग्री की। हमें नैतिक रूप से इस बात के लिए आश्वस्त रहना होगा कि अन्तिम जीत हमारी होगी। दूसरी सबसे प्रमुख बात यह है कि हमें बाहर से सैनिक सहायता चाहिए।
पहली को पूरी करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय युद्ध स्थिति का सही आकलन करना होगा और उससे यह निष्कर्ष निकालना होगा कि युद्ध के क्या परिणाम निकलते हैं।’’ नेताजी ने विदेश की धरती पर खड़े होकर चमत्कार कर दिखाया था। उन्होंने अदम्य साहस दिखाकर आजाद हिन्द फौज को खड़ा कर दिया था। इस फौज का गठन जापान के सहयोग से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए किया था। सबसे ज्यादा खलबली तो अहिंसक सत्याग्रहियों में थी। गांधीजी बार-बार अंग्रेजों से मिलते रहे और हर बार बापू का सुर एक ही होता-‘‘क्या आपके रहते इतिहास में हमारे इन तथाकथित आंदोलनों का कोई नामलेवा भी बचेगा? अगर सुभाष बाबू सफल हो गए तो हमें कौन पूछेगा?’’ नेताजी की मौत को लेकर भी सियासत होती रही। संघ से लेकर भाजपा और अन्य दल केन्द्र की सरकारों से उनकी जिन्दगी से जुड़े रहस्यों से पर्दा उठाने की मांग करते रहे हैं और अब जाकर भारत सरकार ने उनसे जुड़ी फाइलों को एक-एक करके सार्वजनिक कर दिया है। हालांकि एक सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला, वो यह है कि क्या वाकई हवाई दुर्घटना में नेताजी की मौत हो गई थी या वे वेश बदलकर रह रहे थे।
भारत के अन्तिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन के उस जमाने के सहायक के पद पर रहे लियोनार्ड मोसले के उस रहस्योद्घाटन की बात करें जिसमें पंडित नेहरू ने लार्ड माउंटबेटन को लिखा था जिसमें उन्होंने देश का बंटवारा स्वीकार कर लिया था। बापू तो आजादी का श्रेय केवल अिहंसकों को देना चाहते थे। वे चाहते थे कि आजादी का श्रेय किसी भी हालत में क्रांतिकारियों खासतौर पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को ताे बिल्कुल नहीं जाए। बस इतिहास में केवल एक बात दर्ज होनी चाहिए- महात्मा गांधी ने देश को आजाद कराया। यह बात भी सामने आ चुकी है कि पंडित नेहरू ने नेताजी की जासूसी कराई थी। पंडित नेहरू को आशंका थी कि अगर नेताजी देश में लौट आए तो उनके पद को खतरा हो सकता है। पिछले माह राज्यसभा में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती को देशप्रेम दिवस घोषित करने की मांग उठाई गई थी।
माकपा की निष्कासित सदस्य रीताव्रता बनर्जी ने उच्च सदन में नेताजी जयन्ती पर राष्ट्रीय अवकाश घोषित करने की मांग की। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इस मांग का समर्थन किया था। यद्यपि सभापति एम. वेंकैया नायडू ने इस मांग पर सदन की भावना से सहमति जताई थी और कहा था कि सरकार इस पर गंभीरता से विचार करेगी। मुझे नहीं लगता कि सरकार को यह मांग पूरी करने में कोई बाधा है। आज न केवल इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत है बल्कि उसके पुनर्मूल्यांकन की भी आवश्यकता है। यह कैसा इतिहास है जिसमें 14 अगस्त 1947 की रात विभिन्न रूपों में दर्ज है। इतिहास के पन्नों से असत्य की गर्द हटाकर सत्य को समझना होगा। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा देने वाले नेताजी हमारे दिलों में हमेशा रहेंगे।