मुहम्मद अली जिन्ना भारतीय इतिहास के एेसे ‘खलनायक’ हैं जिन्होंने इस मुल्क की आजादी को खूंरेजी में डुबो कर महात्मा गांधी के अहिंसक संघर्ष को हिंसा की नजर करके हिन्दू और मुसलमान के नाम पर दो राष्ट्रों में विभक्त कर दिया था मगर पाकिस्तान बन जाने पर महात्मा गांधी की हत्या करने वाले लोग भी जिन्ना से कम पाप के भागी नहीं थे जिन्होंने ‘अहिंसा’ के पुजारी ‘बापू’ की हत्या करके मुनादी करने की गुस्ताखी की थी कि भारत का दृष्टिकोण पाकिस्तान की मांग करने वाले मजहबी मुहाफिजों से अलग नहीं है। जिन्ना ने हिन्दोस्तान की आजादी में मुसलमानों की सारी कुर्बानियों पर पानी फेरते हुए जब पाकिस्तान काे तामीर करने का अहद ब्रिटेन की सरकार से लिया तो तभी यह तय हो गया था कि उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में पश्चिमी देशों के लिए वह खिड़की खोल दी थी जिसकी मार्फत वे हिन्दोस्तान की जमीन में छुपी हुई ताकत को लगातार रौंदते हुए दोनों मुल्कों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर सकते थे और अपनी ‘पेशवाई’ चला सकते थे। जिन्ना भी जानते थे कि उनकी मांग पूरी तरह नाजायज है क्योंकि भारत में हिन्दू और मुसलमान दो कौमें किसी भी तौर पर साबित नहीं की जा सकती थीं। सामाजिक और आर्थिक रूप से दोनों समुदायों की एक-दूसरे पर निर्भरता लगातार जिन्ना को डराती रहती थी और उन्हें खौफ खाये रहता था कि गांधी और नेहरू के फलसफे पर चलने वाला हिन्दोस्तान कांग्रेस की सदारत में कभी भी रंग पलट सकता है इसीलिए स्वयं मजहबी रवायतों को न मानने वाले जिन्ना ने मजहब का मसला सबसे ऊपर रखकर मुसलमानों को बरगलाया कि उनकी दीनी हरकतें हिन्दुओं से कोई मेल नहीं खातीं इसीलिए उन्हें अलग मुल्क चाहिए और एेसा मुल्क चाहिए जहां उनकी रहनुमाई मुस्लिम नेताओं के हाथ में हो और उनकी हुकूमत उनके मजहब के नुक्ता-ए-नजर से चले, दरअसल जिन्ना भारत के राष्ट्रभक्त मुसलमानों को वह पाठ पढ़ा रहे थे जिस पर मुगलों के शासनकाल तक में कभी अमल नहीं हुआ था। हकीकत में जिन्ना भारत के साथ ‘राष्ट्रद्रोह’ कर रहे थे और इसकी गंगा-जमुनी तहजीब को मजहबी तास्सुब की भेंट चढ़ा रहे थे। अपनी नाजायज मांग के लिए उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों को एक-दूसरे के खून का प्यासा बनाकर एेसा मंजर पेश किया कि इंसानियत की रूह कांप गई, कत्लोगारत का बाजार इस कदर गर्म हुआ कि दस लाख लोग इसमें हलाक हो गये और अंग्रेजों को बहाना मिल गया कि भारत दो कौमों का एेसा गठजोड़ है जिनमें कोई चीज सांझा नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि क्या एेसे इंसान की तस्वीरें हम अपने किसी विश्वविद्यालय में लगाकर अपने जख्मों को हवा देने की गफलत कर सकते हैं? जिस पाकिस्तान की पूरी सरजमीं आजादी के आन्दोलन में कांग्रेस पार्टी के जलसों से सराबाेर रही है क्या वहां हमें कहीं महात्मा गांधी की तस्वीर देखने को मिलती है? लाहौर के सैन्ट्रल पार्क में लाला लाजपत राय की प्रतिमा स्थापित थी जिसे 1947 में तोड़ िदया गया था तब भारतीय उस प्रतिमा को अपने देश ले आये और उसे गंगा में धुलवाकर फिर से हिरद्वार में स्थापित किया। महात्मा गांधी के सिद्धान्तों और आदर्शों के लिए दीवानगी की हद यह थी कि पूरे फाटा व नार्थ वेस्ट प्रोविंस से लेकर बलोचिस्तान तक में लड़ाकू पख्तून, पठानों व बलोचों में सत्याग्रह के प्रति अटूट आस्था थी और सीमान्त गांधी ‘खान अब्दुल गफ्फार खां’ के नेतृत्व में उनके खुदाई खिदमतगारों ने अंग्रेजों की बन्दूकों के आगे अपने सीने खोल दिये थे। एेसे इलाके को जब पाकिस्तान में शामिल किया गया था तो सीमान्त गांधी ने राष्ट्रपिता से कहा था कि ‘बापू आपने हमे किन भेिड़याें के हवाले कर दिया।’ जिन्ना ने पिछली सदी का वह एेतिहासिक अपराध किया है जिसे चुकता करने में दोनों मुल्कों की कई पीढि़यों को फना होना पड़ेगा, भारत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अगर जिन्ना की तस्वीर वहां के छात्र संगठन परिसर में 1938 से लगी हुई है तो यह भारत की नई पीढ़ी को कोई सन्देश नहीं देती बल्कि मजहब के नाम पर मुल्क का बंटवारा करने की सनद के तौर पर देखी जानी चाहिए। सवाल यह नहीं है कि इसकी मांग अभी आगामी लोकसभा चुनावों को देखते हुए भाजपा का अलीगढ़ का सांसद क्यों उठा रहा है बल्कि सवाल यह है कि इसकी जरूरत ही क्यों पड़ी? मगर इसके ठीक विपरीत संसद के केन्द्रीय कक्ष में हिन्दू महासभा के नेता रहे वीर सावरकर का चित्र भी ठीक महात्मा गांधी के चित्र के सामने दूसरे कोने पर वाजपेयी शासन काल के दौरान श्री लालकृष्ण अडवानी ने टंगवाया था जिन्होंने पहली बार 1917 में हिन्दू-मुस्लिम आधार पर द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त दिया था। बेशक एक विशेष विचारधारा के लोग इसका खंडन करते रहते हैं मगर पुख्ता इतिहास से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता, सावरकर ने एक क्रान्तिकारी के तौर पर अंग्रेजों की जेल की यातनाएं भी सहीं।
मगर इससे जिन्ना का चित्र स्वतन्त्र भारत में किसी भी स्थान पर लगाये जाने का कोई औचित्य नहीं बनता है क्योंकि जिन्ना तो भारत के अपराधी थे। वह किसी हिन्दू या मुसलमान के नहीं बल्कि समस्त भारतवासियों के लिए खलनायक थे। हम भूल जाते हैं कि जब 1937 में संयुक्त बंगाल एसेम्बली में कांग्रेस पार्टी को बहुमत नहीं मिला था तो वहां जिन्ना की मुस्लिम लीग और सावरकर की हिन्दू महासभा ने हाथ मिलाकर सांझा गठबन्धन सरकार चलाई थी और नागरिकों को हिन्दू- मुसलमान के आधार पर इस कदर बांटा कि 1947 में बंगाल का आधा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान बन गया जिसे बाद में 1971 में भारत की प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी की राजनीतिक दूरदृष्टि ने बंगलादेश में परिवर्तित करके जिन्ना के जुर्मों से निजात दिलाई। जिन्ना को खुद बंगाली मुसलमानों ने ही जमींदोज कर डाला और अहद किया कि उनका कौमी तराना गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की कलम से निकला नगमा ही होगा मगर जिन्ना की तस्वीर को लेकर जो लोग सियासत करना चाहते हैं वे हिन्दोस्तान के मिजाज को नहीं समझते। उनकी कैफियत इतनी सी है कि वे अंगुली कटाकर ‘शहीद’ बनना चाहते हैं।