”हां हमने भी दंगों में सपने जलते देखे हैं
जिन बागों में कभी खेले थे, उनको भी जलते देखा है
आंखों में बवंडर देखे हैं, सीने में खंजर देखे हैं
मासूमों की आंखों में अनसुलझे सवाल देखे हैं
जो देखना ना चाहते थे, दंगों में वो सब देखे हैं।”
सहारनपुर में बुधवार को फिर एक युवक की मौत हो गई, फिर दलितों पर हमला हुआ, आगजनी हुई। हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित शब्बीरपुर गांव समेत साथ लगते गांवों में भी माहौल तनावपूर्ण है। बसपा प्रमुख मायावती ने गांव शब्बीरपुर का दौरा किया था और उन्होंने रास्ते में कुछ जगहों पर लोगों को सम्बोधित भी किया था। मायावती के शब्बीरपुर गांव पहुंचने से पहले ही कुछ दलितों ने ठाकुरों के घर पर पथराव करना शुरू कर दिया था लेकिन मायावती के जाने के बाद ठाकुरों ने दलितों के घरों पर हमला बोल दिया। पिछले चार हफ्तों में चार बार हिंसा हो चुकी है, दोनों समुदाय आमने-सामने हैं। हालात किसी से छिपे हुए नहीं हैं। फिर पुलिस ने मायावती को वहां जाने की अनुमति ही नहीं देनी चाहिए थी। सहारनपुर के हालात पुलिस और प्रशासन की विफलता का परिणाम ज्यादा नजर आ रहे हैं। स्थिति यह है कि सहारनपुर शहर आज भी सुलग रहा है। पहले शब्बीरपुर गांव में राजपूतों ने महाराणा प्रताप की जयंती पर शोभायात्रा निकाली थी, जिस दौरान हिंसक झड़प हुई थी। फिर दलितों के 25 घर फूंक दिए गए। तनाव का कारण यह भी था कि दलित समाज खुद पैसे जोड़कर अम्बेडकर की प्रतिमा लगाना चाहता था लेकिन दूसरे समुदाय ने इसका विरोध किया था। गांव की प्रधानी भी पिछले दस वर्षों से दलितों के पास थी, जिससे गांव की ऊंची जाति के लोग खफा थे।
अब क्योंकि वहां चुनाव होने वाले हैं इसलिए स्थानीय सियासत भी इससे जुड़ चुकी है। एक-दूसरे पर निर्भरता की वजह से गांव में इस तरह कोई हिंसक विवाद नहीं हुआ था। दलित समाज के लोग ऊंची जाति के लोगों के यहां फसल कटाई का काम करते हैं लेकिन सियासत के कारण सामाजिक ताना-बाना बिखर गया है। राजपूत युवक की हत्या में 17 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें 8 दलित हैं। कुछ लोगों का कहना है कि उनके घर वाले हंगामे में शामिल नहीं थे फिर भी पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके ले गई। दलितों की गिरफ्तारी के विरोध में जंतर-मंतर पर भीम सेना के झंडे तले हजारों लोग इकट्ठे हुए और जोरदार प्रदर्शन किया। यद्यपि भीम सेना से जुड़े लोग संविधान के दायरे में रहकर काम करने की बात करते हैं, दलितों को संगठित करने की बात करते हैं लेकिन अहम सवाल यह उठ रहा है कि अगर ऐसे ही समानांतर संगठन खड़े होने लगे तो यह सेनाएं ज्यादा उग्र और हिंसक हो उठती हैं। बिहार में जाति के आधार पर बनी सेनाओं का कार्यकलाप हम पहले ही देख चुके हैं। दरअसल दलितों के हितों का दावा करने वाले राजनीतिज्ञ और पार्टियां उनके लिए कुछ खास नहीं कर रहीं, इसलिए ऐसी पार्टियों की प्रासंगिकता खत्म हो रही है। दलित के नाम पर भी केवल सियासत की जा रही है। भीम सेना का आरोप है कि सहारनपुर हिंसा के बाद अगड़ी जाति के लोगों को हथियारों के साथ प्रदर्शन की अनुमति दी गई जबकि दलितों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने से रोका गया। वैसे सेना और संगठन बनाने में अगड़ी जातियां भी किसी से पीछे नहीं। लोग गौरक्षा के नाम पर, बच्चे चोरी ऌहोने की अफवाह पर कानून अपने हाथों में लेकर किसी को भी मार रहे हैं।
ऐसी घटनाएं बढ़ेंगी तो दलितों में विरोधी भावनाएं भड़केंगी। कोई भी संगठन हिन्दूवादी हो या कोई जातिवादी या बिरादरी का संगठन हो, किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। सवाल यह भी है कि अम्बेडकर शोभायात्रा रोके जाने के कारण अगर सत्तारूढ़ पार्टी के सांसद के नेतृत्व में सैकड़ों लोग एसएसपी के घर पहुंच कर वहां तोडफ़ोड़ करते हैं लेकिन उनके विरुद्ध नामजद रिपोर्ट दर्ज किए जाने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं होती तो फिर इसका संकेत नकारात्मक ही जाएगा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार की सबसे बड़ी चुनौती राज्य में कानून व्यवस्था को बहाल करना है, इसलिए उन्होंने बार-बार अपनी पार्टी के विधायकों, कार्यकर्ताओं को विनम्रता से काम करने की अपील की है। पार्टी के कार्यकर्ताओं का कत्र्तव्य है कि वे कोई ऐेसा काम नहीं करें जिससे पार्टी और योगी सरकार की बदनामी हो। सभी दलों को चाहिए कि सहारनपुर में जातिगत टकराव को दूर करने के लिए सामाजिक समरूपता का वातावरण तैयार करें। सियासत हिंसक हो गई तो फिर कुछ नहीं बचेगा। राजनीतिक दलों, प्रशासन और पुलिस को दोनों समुदायों को एक साथ बैठाकर उनके मतभेद दूर करने के प्रयास करने चाहिएं। अगर सद्भाव कायम नहीं किया गया तो शहर सुलगता ही रहेगा।