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सीलिंग : उलझ गई दिल्ली

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राजधानी दिल्ली काफी अनियोजित बसी हुई है। दिल्ली में हर वर्ष दूसरे राज्यों से आने वाले लोग रोजी-रोटी के लिए यहीं बस रहे हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण यह अनियोजित बसाव विकट रूप ले चुका है। हर आवासीय क्षेत्र में खुली छोटी-छोटी दुकानों पर कोई नियंत्रण नहीं है। रिहायशी और व्यावसायिक क्षेत्रों से संबंधित नियमों में कुछ तो अंतर होना ही चाहिए लेकिन अब यह अंतर समाप्त हो चुका है। दिल्ली के लिए आजादी से पहले भी मास्टर प्लान बने और आजादी के बाद भी बने। बार-बार उसमें संशोधन किए गए।

आज दिल्ली रहने के काबिल नहीं रह गई। नागरिक सुविधाओं तक पहुंच, पार्किंग और आवाजाही की समस्या विकराल रूप ले चुकी है। आज अपने घर से मुख्य सड़क तक वाहन भी आसानी से नहीं ले जा सकते। निजी वाहनों की संख्या रोजाना बढ़ रही है। दिल्ली में वायु प्रदूषण की समस्या से आज सब परिचित ही हैं। राजधानी में सीलिंग का कहर फिर से जारी है। सीलिंग के खिलाफ व्यापारियों में रोष स्वाभाविक है। अब तो सी​लिंग का वैधानिक आधार समाप्त करने के लिए डीडीए द्वारा मास्टर प्लान में संशोधन पर शीर्ष अदालत ने रोक लगा दी है।

इससे सी​लिंग से राहत मिलने की उम्मीद बेहद कमजोर पड़ गई है। गत 9 फरवरी को कोर्ट ने दिल्ली विकास प्राधिकरण से पूछा था कि वह मास्टर प्लान में बदलाव क्यों करना चाहता है? क्या इस बदलाव से पर्यावरण पर पड़ने वाले असर पर विचार किया गया है? डीडीए ने अभी तक इसका जवाब दाखिल नहीं किया है। शीर्ष अदालत की पीठ ने नाराजगी भी जताई और कहा कि ‘डीडीए की दादागिरी नहीं चलेगी, यह तो कोर्ट की कार्यवाही की अवमानना है।’ शीर्ष अदालत द्वारा मास्टर प्लान 2021 में संशोधन पर रोक लगाने के बाद सीलिंग को लेकर 2006 जैसे हालात बन गए हैं।

उस समय हाहाकार मचने के बाद दिल्ली सरकार के अनुरोध पर केन्द्र सरकार ने व्यापारियों की कारोबारी संपत्तियों को बचाने के लिए अध्यादेश जारी किया था। अनेक सड़कों को रिहायशी क्षेत्रों के दायरे से बाहर कर दिया गया। चूंकि कोई भी राजनीतिक दल व्यापारियों का समर्थन खोना नहीं चाहता था इसके लिए फार्मूला निकाला गया कि व्यापारी कन्वर्जन चार्ज देकर अपनी दुकानों को नियमित करा सकते हैं।

बार-बार अवधि समाप्त होने पर अध्यादेश जारी कर सीलिंग पर रोक लगा दी गई लेकिन समस्या का स्थायी हल नहीं निकाला गया। सीलिंग को लेकर नेता एक-दूसरे से लड़ रहे हैं, लड़ इसलिए रहे हैं क्योंकि वे सीलिंग को रोकने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। विपक्ष कहता है कि सी​लिंग दिल्ली सरकार रोक सकती है और दिल्ली सरकार कहती है कि केन्द्र और भाजपा शासित नगर निगम की गलतियों के चलते सीलिंग हो रही है।

व्यापारियों के लगातार विरोध प्रदर्शनों के चलते केन्द्र पहल करने को मजबूर हुआ था। दिल्ली के उपराज्यपाल की अध्यक्षता में डीडीए की बैठक हुई। बैठक में व्यापारियों को राहत देने के तीन प्रस्तावों को मंजूरी दी गई। इनके मुताबिक एफएआर यानी फ्लोर एरिया रेशो को एक सौ अस्सी से बढ़ाकर तीन सौ पचास करने, एफएआर में बढ़ौतरी से बेसमेंट काे सी​लिंग के दायरे से बाहर करने और 12 मीटर से चौड़ी सड़कों पर गोदामों को नियमित करने का फैसला किया गया। इसके बाद जो व्यापारी सीलिंग के दायरे में आते हैं उनके लिए कन्वर्जन शुल्क पर दस गुणा जुर्माना घटाकर दो गुणा कर दिया जाएगा।

अब मास्टर प्लान में संशोधन पर स्टे के बाद व्यापारी फिर राहत की मांग करेंगे। अब सवाल यह है कि क्या सी​लिंग रुकनी चाहिए? अगर सीलिंग रोकी जाती है तो यह एक तरह से गैर-कानूनी काम को संरक्षण देने के समान होगा। डीडीए झुग्गियां तो एक मिनट में हटा देता है, लोगों के सिर से छत छीन लेता है तो फिर करोड़पति व्यापारियों पर रहम क्यों? व्यापारी कह रहे हैं कि उनकी दुकानों पर काम करने वाले हजारों लोग बेरोजगार हो जाएंगे, तर्क मानवीय लगता है, आखिर सवाल गरीबी और नौकरी का है।

हैरानी की बात यह है कि जो लोग कर्मचारी हितों की बात तो करते हैं लेकिन पॉश कालोनियों और बड़े बाजारों में लाखों का व्यापार करने वाले व्यापारी कन्वर्जन चार्ज क्यों नहीं दे सकते। कन्वर्जन चार्ज भी गैर-कानूनी कामों को कानूनी बनाने का एक तरीका ही तो है। जो क्षेत्र आवासीय थे, वहां लोगों ने सस्ते मकान खरीद कर शोरूम, रेस्तरां बना लिए। लाखों की सम्पत्ति का इस्तेमाल करोड़ों की सम्पत्ति के तौर पर किया जा रहा है। अवैध निर्माण के धंधे ने रहने की जगह ही खत्म कर दी, रिहायशी इलाकों में रहना अब दूभर होता जा रहा है।

अगर ऐसे ही कानून को तोड़ा जाता रहा तो मास्टर प्लान केवल कागजी रह जाएगा। समाज की व्यवस्था है जो ज्यादा ऊंचा बोलता है दिल्ली उसकी सुन लेती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर मास्टर प्लान में संशोधन किए गए तो फिर दिल्ली का पर्यावरण तबाह हो जाएगा, भीड़भाड़ में दिल्ली खो जाएगी, ट्रैफिक गलियों में भी जाम हो जाएगा। सी​लिंग का ​मसला टेढ़ा हो गया है और दिल्ली उलझ कर रह गई है। क्या दिल्ली को बाजार के हाथ गिरवी रखा जा सकता है? जरूरत कुछ तात्कालिक उपायों के कदमों की नहीं, बल्कि दीर्घकालीन दृष्टि और वृहद योजना की है।

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