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पाकिस्तान को शर्मसार करो !

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पाकिस्तान की लगातार बढ़ती शातिराना बदगुमानी को अगर भारत के बढ़ते अन्तर्राष्ट्रीय रुतबे के साथ रखकर जायजा लिया जाये तो यह जबर्दस्त विरोधाभास के रूप में दिखाई देगा। दुनिया के सभी मुस्लिम देशों के साथ भारत के रिश्ते बहुत मधुर और अच्छे हैं। पूरे पश्चिम एशियाई इलाके में भारत के एक करोड़ के लगभग लोग वहां रहकर इन मुल्कों की तरक्की में हाथ बंटा रहे हैं और अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं। अप्रवासी भारतीयों का यह समूह किसी मंझोले यूरोपीय देश की जनसंख्या के बराबर रखा जा सकता है। हाल ही में प्रधानमन्त्री चार अरब देशों की यात्रा करके लौटे हैं और उनकी इस यात्रा से सम्बन्ध और अच्छे ही हुए हैं मगर हमें गंभीरता के साथ इस मुद्दे पर भी विचार करना होगा कि पाकिस्तान, जिसे इस्लाम का किला तक कहा जाता है, उसकी भारत के प्रति नीयत में बदलाव नहीं आ रहा है और वह लगातार दुश्मन परस्ती की हरकतों में उलझता जा रहा है जबकि इस मुल्क की अन्दरूनी हकीकत यह है कि यहां की अवाम भारत से लगातार जारी दुश्मनी से आजिज आ चुकी है और वह भारत के साथ बेहतर सम्बन्ध बनाने की तवक्कों हर चुनी हुई सरकार से करती है। इसका सबूत यह है कि इस मुल्क की राष्ट्रीय एसेम्बली के 2013 में जो चुनाव हुए थे उसका मुख्य मुद्दा भारत से अच्छे सम्बन्ध बनाने का था।

भारत के साथ ताल्लुकात यदि पाकिस्तान में चुनावी मुद्दा बने थे तो उसकी एक ही वजह थी कि इस मुल्क की अवाम लोकतान्त्रिक ताकतों को मजबूत करना चाहती थी और फौज की हुक्मरानी से अलविदा चाहती थी। अब इस मुल्क में फिर कुछ महीने बाद चुनाव होने हैं और यहां की फौज भारत के साथ दुश्मनी बढ़ाने की तरकीबें इस कदर भिड़ा रही है कि अवाम का होने वाले चुनावों में मिजाज बदल जाये। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पाकिस्तान की फौज का ईमान हिन्दोस्तान से दुश्मनी है और इसी की वजह से इसका वजूद किसी भी चुनी हुई सरकार पर भारी पड़ता है। यह एेसे-एेसे नुस्खे निकाल कर लाती है जिससे भारत और पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें कभी बातचीत की मेज पर बैठने की सोच ही न सकें। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि जब भी पाकिस्तान बातचीत की मेज पर बैठा है तो उसे अपनी फौज के जनरलों को अपनी वर्दी के दायरे के भीतर रहने के लिए कहना पड़ा है। चाहे 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद ताशकन्द में हुआ समझौता ही क्यों न हो, पाकिस्तान को भारत की दुनिया की निगाहों में ऊंची हैसियत के आगे घुटने टेकने ही पड़े हैं।

1971 के बंगलादेश युद्ध के बाद शिमला में हुए समझौते में तो यह मुल्क पूरी तरह लम्बा होकर भारत के आगे घुटनों के बल लेट गया था और किसी तरह इसने अपना वजूद कायम रखा था मगर दोनों ही बार अमेरिका ने इसकी पूरी मदद की और इस तरह मदद की कि इसकी फौजों को फिर से सैनिक साजो-सामान से लैस कर दिया। यह बेवजह नहीं कहा जा सकता कि अमेरिका ने हमेशा यहां की फौज के जनरलों से सीधा राब्ता बना कर यहां की लोकतान्त्रिक सरकारों को वह रुतबा नहीं बख्शा जो किसी खुद मुख्तार मुल्क की चुनी हुई सरकार का होना चाहिए। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब कारगिल युद्ध के बाद पाकिस्तान में नवाज शरीफ की सरकार का तख्ता पलट करके जनरल परवेज मुशर्रफ ने मार्शल लाॅ लागू करके फौजी हुकूमत कायम की थी तो राज्यसभा में मौजूद प्रख्यात समाजवादी नेता स्व. जनेश्वर मिश्र ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी से कहा था कि वह अपने पड़ौसी देश में लोकतन्त्र की हत्या किये जाने के खिलाफ सख्त रुख अपनायें।

स्व. मिश्र का कहना था कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश कहलाता है और उसके पड़ौस में ही अगर कहीं लोकतन्त्र को कुचल कर गैर-कानूनी तरीके से वहां की जनता की इच्छा के विरुद्ध सत्ता पलट किया जाता है तो भारत का फर्ज बनता है कि वह इसका गंभीरता के साथ संज्ञान लेते हुए लोकतन्त्र के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाये परन्तु तब श्री मिश्र को यह जवाब मिला था कि किसी भी दूसरे देश के अन्दरूनी मामलों में दखल देने की भारत की नीति नहीं है जबकि पाकिस्तान अपने वजूद में आने के बाद से ही लगातार भारत के अन्दरूनी मामलों (कश्मीर में) दखलन्दाजी करता रहा है। इसके साथ ही यह भी याद दिलाना जरूरी है कि जब वाजपेयी सरकार के दौरान कश्मीर में दहशतगर्दों ने कातिलाना हरकतें शुरू कर दी थीं और सलाहुद्दीन जैसे आतंकवादी मुंह पर कपड़ा बांध कर भारत के नुमाइन्दों से बातचीत कर रहे थे तो राज्यसभा में ही विपक्षी नेता की हैसियत से बैठे पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने अटल बिहारी वाजपेयी से कहा था कि हम आतंकवादियों से क्यों बात कर रहे हैं ? हम आतंकवाद को फैलाने वाले और उसे जन्म देने वाले पाकिस्तान से क्यों बात नहीं करते? इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वहां कैसी और किसकी सरकार है।

पिछले 51 सालों में पाकिस्तान आधे से भी ज्यादा समय तक फौजी शासकों के तहत रहा है और हमें सभी के साथ निपटना आता है मगर आज परिस्थितियां वैसी नहीं हैं जैसी 1999 या 2000 में थीं या फिर जैसी मुशर्रफ की आगरा यात्रा के समय थीं। इसके बावजूद मुशर्रफ से ही हमने 2004 में हलफनामा भरवाया था कि पाकिस्तान की जमीन का भारत के खिलाफ दहशतगर्दी में प्रयोग नहीं होगा। इसके बाद भारत में सरकारें बदलीं और दहशतगर्द हमले भी हुए बल्कि पाकिस्तान में दहशतगर्द तंजीमों के चेहरे भी बदल गये और उन दहशतगर्दों ने भी अपनी नई तंजीम खड़ी कर ली जिन्हें वाजपेयी शासन के दौरान खुद भारत के विदेश मन्त्री जसवन्त सिंह अपने साथ विमान में बिठाकर कन्धार तक छोड़ कर आये थे। ये सारे सबूत हम दुनिया को दिखायें इसकी जरूरत भी नहीं है क्योंकि पाकिस्तान के कारनामें खुद ही हाफिज सईद जैसे आतंकवादी की शक्ल में उसी की सरजमीं में कहर बरपा रहे हैं। कहने का मतलब सिर्फ यह है कि हम दुनिया में अपने बढ़ते रुतबे का इस्तेमाल करने से क्यों हिचक रहे हैं। सऊदी अरब हो या संयुक्त अरब अमीरात या ईरान, इराक या तुर्की, सभी तो दहशतगर्दी की मुखालफत करते हैं। फिर क्यों पाकिस्तान को हम इस्लामी बिरादरी में शर्मसार नहीं कर सकते जिससे वह खुद ही हमारी कदमबोसी पर मजबूर हो और इस तरह मजबूर हो कि उसकी नामुराद फौज पाकिस्तान की जनता से ही पनाह मांगती फिरे। क्योंकि इसी फौज ने आम पाकिस्तानियों के घर लूटकर अपने बंगले बनाने का काम पिछले सत्तर सालों में किया है।

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