पाकिस्तान में एक बार फिर चुनी हुई सरकार के प्रधानमन्त्री को वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने बर्खास्त कर दिया है। उन पर भ्रष्टाचार के आरोपों के तहत जांच बिठाई गई थी जिसकी जांच के लिए एक संयुक्त जांच दल गठित हुआ था जिसने उन्हें अपनी सम्पत्ति गैर कानूनी तरीके से अर्जित करने का दोषी पाया। इससे पहले 2012 में भी ऐसा ही नजारा पेश हुआ था जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री यूसुफ रजा गिलानी को सर्वोच्च न्यायालय ने बर्खास्त कर दिया था। उन पर न्यायालय की अवमानना करने का दोष पाया गया था क्योंकि उन्होंने पीपुल्स पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और उनकी महरूम पत्नी बेनजीर भुट्टो के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कराने में गलत बयानी की थी और न्यायालय को गुमराह किया था। मगर मौजूदा वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ पर बहुचर्चित पनामा गेट में यह खुलासा होने पर कि उन्होंने और उनके परिवार के सदस्यों ने विदेशों में अपने देश के कानूनों को ताक पर रखकर भारी सम्पत्ति बनाई है। जांच के आदेश दे दिये गये थे और इसका निर्देश स्वयं नवाज शरीफ ने ही प्रधानमन्त्री रहते दिया था।
पाकिस्तान के प्रजातन्त्र में यह पहला मौका था कि जब हुकूमत पर काबिज किसी प्रधानमन्त्री ने अपने ही खिलाफ जांच करने के आदेश दिये। इसका संज्ञान लिया जाना इसलिए जरूरी है क्योंकि पाकिस्तान का लोकतन्त्र अधकचरा माना जाता है जिसमें कानून के शासन की वह स्थिति नहीं है जो स्वस्थ लोकतान्त्रिक देशों में होती है। पाकिस्तान की राष्ट्रीय एसेम्बली के चुनाव अगले वर्ष 2018 में होने वाले हैं और उससे पहले वहां के प्रधानमन्त्री को बर्खास्त कर दिया है। इतिहास अपने आपको किस तरह दोहराता है उसका भी यह उदाहरण है क्योंकि पिछली बार जब गिलानी साहब को सत्ता से बेदखल किया गया था तब भी चुनाव होने में एक साल का समय ही शेष था। गिलानी साहब की पार्टी पीपुल्स पार्टी थी जबकि शरीफ साहब की मुस्लिम लीग (एन) है। ऐसी स्थिति को पाकिस्तान के लोकतन्त्र के लिए किसी भी सूरत में अच्छा नहीं माना जा सकता क्योंकि इस देश के लोग इस व्यवस्था के भीतर खुली सांस लेना सीख रहे हैं जबकि यहां की फौजें लगातार हुकूमत को अपनी दावेदारी में रखना चाहती हैं।
भारत के साथ पाकिस्तान की दुश्मनी के रवैये के पीछे यहां की फौज की भूमिका ही प्रमुख रही है। इसकी वजह यह है कि पाकिस्तानी अवाम की चुनी हुई सरकार के जेरे साया भारत से दोस्ताना ताल्लुकात बढ़ाने की जब भी कोशिशें होती हैं तो यहां की फौज बीच में टांग अड़ा कर भारत के खिलाफ मजहबी जुनून कड़ा करके अपनी ताकत में इजाफा करने की कोशिश करती है। यही वजह थी कि 1998 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने जब लाहौर की बस से सद्भावना यात्रा की तो 1999 में कारगिल युद्ध हो गया था और वहां चुनी हुई नवाज शरीफ सरकार को हटाकर फौजी हुकूमत काबिज हो गई थी। जनरल परवेज मुशर्रफ की हुकूमत 2008 तक चली और इस दौरान भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों में इस तरह खटास पैदा हुई कि नवम्बर 2008 में वहां यूसुफ रजा गिलानी की चुनी हुई सरकार होने के बावजूद मुम्बई में आतंकवादी हमला पाकिस्तान की सरजमीन से ही संचालित हुआ।
फौजी हुकूमत के दौरान पाकिस्तान को दहशतगर्दों की सैरगाह में तब्दील कर दिया गया और वहां की फौजों ने दहशतगर्दों की एक अलग बटालियन तक तैयार कर डाली। दूसरे फौज की कोशिश यह भी रही है कि पाकिस्तान के लोकतान्त्रिक नेताओं को चोर और झूठा व बेइमान साबित किया जाता रहे जिससे उनकी हुक्मदारी पाक नागरिकों पर चलती रहे और वे अवाम की निगाहों में मुल्क को एकजुट रखने के अलम्बरदार बने रहे। इसके लिए पाकिस्तानी फौज ने भारत के कश्मीर को अपना मोहरा बनाया हुआ है जहां वह दहशतगर्दी बढ़ाकर भारत को उकसाना चाहती है। पाकिस्तान की फौज की इस देश में तभी तक सक्रिय भूमिका है जब तक वहां लोकतन्त्र पक्के तौर पर नहीं जमता है और यहां के सियासदानों की हैसियत हमेशा शक के घेरे में नहीं रहती है।
वैसे नवाज शरीफ पाकिस्तान के सबसे बड़े उद्योगपति हैं और उनका बहुत लम्बा-चौड़ा पुश्तैनी कारोबार है। अत: उनका पनामा लीक में नाम आने पर ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए था क्योंकि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पारदर्शी नहीं है लेकिन पूरे मामले से पाकिस्तानी फौज की भूमिका को नजरन्दाज कर देना गलती होगी क्योंकि इस मुल्क में किसी भी लोकतान्त्रिक नेता की लोकप्रियता फौज के लिए खतरे की घंटी है। यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि मियां नवाज शरीफ की पार्टी 2013 के चुनावों में जिन मुद्दे पर जीत कर हुकूमत में आई थी उनमें सबसे बड़ा मुद्दा भारत के साथ दोस्ताना ताल्लुकात कायम करना था लेकिन न तो यह अमरीका के एक वक्त के आका अमरीका को भा रहा था और न अब के आका चीन को भा रहा है। इसलिए पूरे मामले में भारत को अपनी भूमिका बहुत सावधानी के साथ देखनी होगी।