महात्मा गांधी की ओढ़ी हुई अहिंसा, जो कबाइलियों के कश्मीर पर आक्रमण के साथ ही तार-तार हो गई थी, उसने ही कश्मीर के दो टुकड़े करवा दिये थे और शेष कश्मीर को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से मिलकर ऐसे क्षेत्र में तब्दील कर दिया जो आज तक भारत माता की छाती पर ऐसा गहरा जख्म है जिसे आजादी के 70 वर्षों बाद भी भरा नहीं जा सका। पं. नेहरू की भयंकर भूल जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू करना था जिसका अंजाम हम आज भी भुगत रहे हैं। अनुच्छेद 370 पंडित नेहरू की भूल और शेख अब्दुल्ला की कुटिल चालों से ही लागू हुआ। भारत के पहले विधि मंत्री बाबा साहेब अम्बेडकर थे, उनकी विद्वता की धूम सारे विश्व में थी। पंडित नेहरू ने जब अनुच्छेद 370 का जिक्र बाबा साहेब अम्बेडकर से किया तो वह गुस्से में लाल हो गये और बोले-
”आपकी करतूतों से पहले ही भारत का बड़ा अहित हो चुका है। आप जिस अनुच्छेद की बात कर रहे हैं, अगर वह लागू हो जाये तो कश्मीर में अलगाववाद का ऐसा विष पैदा होगा, जिसके प्रभाव से सारी घाटी दूषित हो जायेगी। भारत की एकता और अखंडता और प्रभुसत्ता को आप क्यों दाव पर लगाना चाहते हैं।” तब पंडित नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से कहा कि वही जाकर बाबा साहेब से बात कर लें। रात के समय शेख ने धारा 370 का वही पंडित नेहरू वाला प्रस्ताव बाबा साहेब के सामने रखा तो वह बोले- ”मैं अगर शिष्टाचार न जानता तो इसी बात पर तुम्हें इस घर से निकाल देता। मैं राष्ट्र का विधि मंत्री हूं और तुम चाहते हो कि मैं राष्ट्रद्रोह करूं। एक बार अगर अनुच्छेद 370 लागू हुआ तो इसके घातक परिणाम होंगे। क्या तुम्हें पता भी है?” बाद में पं. नेहरू ने गोपालस्वामी अयंगर की पीठ थपथपाई और प्रस्ताव लाया गया और इसे अस्थाई कहकर पारित करवा दिया गया। शेख और नेहरू की कुटिलता जीत गई।
1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद गृहमंत्री सरदार पटेल के प्रयासों से सभी देशी रियासतों का भारत में पूर्ण विलय हुआ परन्तु प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं हो पाया था। उन्होंने वहां के शासक राजा हरि सिंह को हटाकर शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंप दी। उस समय तक शेख जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र बनाये रखने या पाकिस्तान में मिलाने के षड्यंत्र में लगा था। उसके बाद की कहानी सबको पता है। शेख ने जम्मू-कश्मीर में आने वाले हर भारतीय को अनुमति पत्र लेना अनिवार्य कर दिया। 1953 में प्रजा परिषद और भारतीय जनसंघ ने इसके विरोध में सत्याग्रह किया। ‘एक देश, दो प्रधान, दो विधान, दो निशान नहीं चलेंगे’ के नारे गूंजे। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना बलिदान दे दिया। भारत सरकार और शेख अब्दुल्ला के मध्य बढ़ते अविश्वास के कारण 9 अगस्त 1953 में उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाला गया। आखिर ऐसा पंडित नेहरू को क्यों करना पड़ा? इसका रहस्य क्या था? क्या शेख अब्दुल्ला भारत के विरुद्घ षड्यंत्र रच रहे थे? हालांकि 1964 में उन्हें रिहा कर दिया गया।
1971 में तो शेख अब्दुल्ला देश से निष्कासित कर दिये गये। बाद में स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला से समझौता करके उन्हें फिर से जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बना दिया। यह सब लिखने का अभिप्राय यही है कि शेख अब्दुल्ला परिवार की राष्ट्र के साथ कोई प्रतिबद्घता नहीं। 1977 में खुद को शेर-ए-कश्मीर कहलाने वाले शेख अब्दुल्ला ने परमपूज्य अर शहीद लाला जगत नारायण जी और पूज्य पिता श्री रमेश चन्द्र जी के तीखे सम्पादकियों से परेशान होकर पंजाब केसरी समाचार पत्र पर जम्मू-कश्मीर में प्रतिबन्ध लगा दिया था। तब हमने सुप्रीम कोर्ट तक कानूनी लड़ाई लड़ी और शीर्ष न्यायपालिका ने पंजाब केसरी पर लगाया गया प्रतिबन्ध हटा दिया। प्रैस की स्वतंत्रता के लिये लालाजी शेख अब्दुल्ला से जूझ गये थे। जितना नुकसान शेख अब्दुल्ला परिवार ने जम्मू-कश्मीर का किया, उतना किसी ने नहीं किया। कश्मीर समस्या को लेकर जितनी भ्रम की स्थितियां निर्मित हैं उनमें एक व्यक्ति का योगदान था और वह थे शेख अब्दुल्ला। आखिर क्या कारण थे कि उन्होंने अलगाववादी तेवर दिखाने शुरू कर दिये। उनके बाद उनके पुत्र फारूक अब्दुल्ला तीन बार मुख्यमंत्री रहे और उनके पोते उमर अब्दुल्ला एक बार मुख्यमंत्री रहे। अब फारूक अब्दुल्ला कह रहे हैं कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिये चीन और अमेरिका की मदद लो। पाक से बातचीत करो। यानी जो पाकिस्तान चाहता है, उसके सुर में फारूक बोल रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर फारूक अब्दुल्ला के बाप ही जागीर नहीं। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो फिर तीसरे देश की मध्यस्थता हम क्यों स्वीकार करें। फारूक ने ऐसा कहकर देश की रक्षा और आतंकवाद से जूझते शहीद होने वाले जवानों की शहादत का अपमान किया है। मुझे याद है जब फारूक अब्दुल्ला ने कश्मीर की स्वायत्तता का राग छेड़ा था। प्रधानमंत्री अमेरिका की यात्रा करने वाले थे। फारूक दिल्ली आकर उनसे मिले, तब उनके वापिस आने तक संयम बरतने का आश्वासन दिया था। उधर प्रधानमंत्री का जहाज उड़ा और इधर कश्मीर विधानसभा में नाटक शुरू हो गया। ऐसे-ऐसे प्रवचन हुए विधानसभा में हुए मानो वह कश्मीर नहीं ब्लूचिस्तान की असैम्बली हो। जो प्रस्ताव पारित हुआ था वह देशद्रोह का नग्न दस्तावेज था। उस दस्तावेज में भारत की उतनी ही भूमिका थी कि वह इस राज्य की किसी भी बाहरी आक्रमण के समय रक्षा करे। पैसों का अनवरत प्रवाह होता रहे और यहां की सरकार भारत के सभी विधानों का उपहास उड़ाते हुए अपना फाइनल राउंड खेलने अर्थात विखंडित करने का दुष्प्रयत्न करती रहे। इस परिवार ने 370 की आड़ में राष्ट्र विखंडन के प्रस्ताव को ही आगे बढ़ाया। अब्दुल्ला सीमाएं लांघ गये। उन्हें यह भी ख्याल नहीं आया कि वह देश हित में कई बार संविधान की शपथ ले चुके हैं। ऐसे लोगों की क्या भारत में जगह होनी चाहिये? राष्ट्रीय नेतृत्व सतर्क रहे। अब तो एक बार फिर सवा अरब भारतीयों को कश्मीर बचाने की शपथ लेनी होगी।