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विशेषाधिकार का विशेष महत्व

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भारत के लोकतंत्र में संसद के सदस्यों को जो विशेषाधिकार प्रदान किए गए हैं उनका मूल उद्देश्य सत्ता को किसी भी रूप या तरीके से बेलगाम होने से रोकने का है। हमने जो संसदीय प्रणाली अपनाई है उसमें बहुमत का शासन होता है मगर अल्पमत में रहने वाले दलों के सदस्यों को भी जनता ही चुनकर भेजती है। उनका मुख्य कार्य संसद के भीतर सरकार को जवाबदेह बनाए रखने का होता है। यह जवाबदेही प्रत्यक्ष रूप से आम जनता के प्रति होती है जिसकी चौकीदारी विरोधी दल के सदस्य करते हैं। यह चौकीदारी इस सीमा तक होती है कि चुने हुए किसी भी सदन के भीतर किसी भी सदस्य को अपनी बात खुलकर कहने का पूरा अधिकार रहता है और इस हद तक रहता है कि उसके किसी भी कथन को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। यह प्रावधान हमारे संविधान निर्माताओं ने इसीलिए किया जिससे संसद के भीतर प्रत्येक चुना हुआ सदस्य बिना सत्ता की धमक और रौब में आए जनता की तकलीफों का बयान बिना किसी खतरे या खौफ के कर सके। यह बेवजह नहीं है कि लोकसभा में इसके अध्यक्ष और राज्यसभा में इसके सभापति की सत्ता सर्वोच्च रखी गई और प्रधानमंत्री तक को उनके प्रति जवाबदेह बनाया गया।

सदन के भीतर सभापति की निगाह में प्रधानमंत्री (पी.एम.) और संसद सदस्य (एम.पी.) के बीच अधिकारों का कोई भेद नहीं रहता (कुछ विशिष्ट नियमों को छोड़कर) मगर लोकतंत्र में प्रेस (मीडिया) की भागीदारी को भी बहुत महत्वपूर्ण पहले दिन से ही बनाया गया और संसद की कार्यवाही प्रकाशित करने के नियम बनाए गए। संसद की कार्यवाही से यदि कोई शब्द सभापति निकाल देते हैं तो उसे प्रकाशित करने का अधिकार प्रैस को नहीं दिया गया। इतना ही नहीं यदि कोई दस्तावेज संसद में रखे जाने से पहले ही प्रैस में प्रकाशित हो जाता है तो उसे भी अवैध स्वरूप में संसद के विशेषाधिकारों का हनन माना गया और दूसरी तरफ संसद के सत्र के चलते यदि सरकार का कोई मंत्री संसद से बाहर नीतिगत या निर्णयात्मक घोषणा करता है तो उसे भी विशेषाधिकार हनन की श्रेणी में रखा गया। यह दुतरफा व्यवस्था इसीलिए की गई जिससे सरकार की पहली जवाबदेही संसद के प्रति बनी रहे और उसके हर फैसले की तस्दीक जनता के चुने हुए प्रतिनिधि कर सकें। जाहिर है जब संसद की कार्यवाही को छापने या दिखाने के नियम बनाए गए थे उस समय देश में इलैक्ट्रोनिक मीडिया के नाम पर दूरदर्शन तक नहीं था। इसका प्रथम प्रसारण ही 15 सितम्बर 1959 को हुआ था मगर आज परिस्थितियां पूरी बदली हुई हैं।

किसी ने तब सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब लोकसभा और राज्यसभा के अपने न्यूज चैनल होंगे जिन पर दोनों सदनों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होने लगेगा और देश में इलैक्ट्रोनिक मीडिया की ऐसी क्रांति होगी कि सैकड़ों न्यूज चैनल शुरू हो जाएंगे जिनमें गला काट प्रतियोगिता इस हद तक होगी कि लंदन से लेकर न्यूयार्क और दुनिया के हर हिस्से की जीती-जागती खबरें मिनटों-सैकेंडों में दर्शकों को देखने को मिल जायेंगी लेकिन मुद्दा संसद की कार्यवाही को लेकर है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण इनके ही चैनलों पर सीधे दिखाया जाता है तो सदन के भीतर किसी भी सदस्य द्वारा कहे गए हर शब्द को आम जनता सीधे सुन और देख लेती है। उसका हर शब्द तुरंत ही सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाता है जबकि वह मूल रूप से संसद की सम्पत्ति होता है और उसमें सुधार करने का अधिकार सदन के सभापीठ के पास रहता है। एक बार उसके प्रसारण हो जाने के बाद उसमें संशोधन करने के फैसले का असर सार्वजनिक सम्पत्ति बने सदस्य के शब्दों पर किस तरह पड़ सकता है? लोकसभा या राज्यसभा चैनलों से जो शब्द एक बार प्रसारित हो चुके हैं उन्हें किस तरह वापस लिया जा सकता है? राज्यसभा में आज समाजवादी पार्टी के सदस्य नरेश अग्रवाल की सदन की कार्यवाही से निकाली गई टिप्पणी पर जो विवाद खड़ा हुआ वह उचित ही था क्योंकि उनके सदन के भीतर दिए गए वक्तव्य पर कोई अदालती कार्रवाई नहीं हो सकती और भारत की किसी भी अदालत में न तो मुकद्दमा चल सकता है और न ही किसी थाने में भी रपट दर्ज हो सकती है मगर इसका संबंध सदस्यों से भी कम नहीं है।

उन्हें मालूम है कि वह जो कुछ भी सदन में बोल रहे हैं वह सीधे आम जनता के पास पहुंच रहा है और लोग उनके शब्दों को सुन रहे हैं अत: कोई भी अतिरंजित या भारतीयों को भड़काने वाली टिप्पणी करने से पहले उन्हें स्वयं भी सौ बार सोचना चाहिए। हमारे संविधान निर्माताओं ने उन्हें विशेषाधिकार इस देश की आम जनता के हितों का संरक्षण करने के लिए दिए हैं, उन्हें आपस में लड़ाने के लिए नहीं। चाहे सत्तापक्ष के लोग हों या विपक्ष के, सभी की यह पहली जिम्मेदारी बनती है कि संसद से जो आवाज जाए वह आम जनता को सशक्त को बनाने और भारत की एकजुटता के लिए जाए, उन्हें धर्म या जाति के नाम पर तोडऩे के लिए नहीं। संविधान की कसम उठाकर ही कोई भी सदस्य संसद की कार्यवाही में शामिल होता है। इसके निर्देशानुसार ही आचरण करने के लिए तो सदनों की नियमावली बनी है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि संसद के भीतर किसी भी सदस्य के आचरण को लेकर सड़कों पर कोहराम मचाया जाए क्योंकि उसके प्रत्येक कार्य के लिए सदन के पीठाधिपति जिम्मेदार होते हैं और वह निर्णय करते हैं कि उसके किस कथन को रिकार्ड में रहने दिया जाए या बाहर किया जाए। संसद की गरिमा को बनाए रखने की पूरी व्यवस्था है जो अपना काम बखूबी कर रही है मगर बदली हुई परिस्थितियों में हमें कुछ न कुछ तो करना होगा। इसमें दोष सदन की कार्यवाही का सीधा प्रसारण करने वाले चैनलों का नहीं है। हमने यह परिपाटी अपनी संसद को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए की है जिससे लोगों को यह पता लग सके कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि संसद में पहुंच कर क्या करते हैं। उनके विशेषाधिकार कोई तोहफा नहीं हैं बल्कि जिम्मेदारी है जिन्हें लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए ही दिया गया है। यह सदस्य की काबिलियत पर निर्भर करता है कि वह इनका उपयोग किस तरह करता है।

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