भारत में जिस तरह बैंक घोटालों की बहार आई हुई है उसकी सच्चाई का पर्दाफाश करने के लिए यह बहुत जरूरी है कि जांच एजेंसियों को यह भी पता लगाना चाहिए कि बैंकों का धन गड़पने वाले व्यापारियों और उद्योगपतियों ने किस-किस राजनैतिक दल को चुनावी चन्दा दिया है? इस तरफ रोशनी डाले बिना हम बैंकों से बेधड़क होकर घोखाधड़ी करने वालों की असलियत का पता नहीं लगा सकते। जहां तक सार्वजनिक बैंकों का सवाल है तो कोई भी सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती कि इन बैंकों में जमा धन की वह संरक्षक होती है। यह सरकार की पुख्ता जमानत ही होती है जिसकी वजह से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रति आम जनता का दृढ़ विश्वास होता है। लोकतन्त्र में सरकार का इकबाल और उसकी संप्रभुता का सिक्का उसके द्वारा जारी विभिन्न वित्तीय अवयव या उत्पाद ही स्थापित करते हैं। इनके रुतबे को अगर कुछ लोग चुनौती देने की हिमाकत करते हैं तो सरकार की हैसियत पर बहुआयामी प्रभाव पड़ता है। इसके नतीजे में सियासत में जो हलचल पैदा होती है वह लोगों में आर्थिक असुरक्षा का माहौल बनाने में अहम रोल अदा करती है इसलिए यह बेवजह नहीं था कि जब 2008-09 की विश्व आर्थिक मन्दी से अमरीका से लेकर आधुनिक यूरोपीय देशों के बैंक धड़ाधड़ धराशायी होकर दिवालिया हो रहे थे तो तत्कालीन वित्तमन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी ने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अपनी कमर सीधी करने के पुख्ता इन्तजामों से इस तरह लैस किया था कि आम जनता पूरी तरह आश्वस्त रह सके मगर एेसा नहीं है कि सार्वजनिक बैंकों के कामकाज में सत्ता के विभिन्न हिस्सों के हस्तक्षेप का उन्हें अहसास नहीं था।
भारतीय संसद की कार्यवाही का वह भाग निकाल कर पढ़ा जाना चाहिए जब बिहार के जनता दल के एक सांसद ने लोकसभा में श्री मुखर्जी से यह सवाल पूछा था कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को निर्देश दें कि उनके चुनाव क्षेत्रों में ये बैंक ऋण देने के मामले में उनकी सिफारिशों का भी ध्यान रखें। इसका जवाब जो प्रणव दा ने दिया था उसे मैं दोहराता हूं- ‘मेरा साफ तौर कहना है कि बैंकों के काम में चुने हुए प्रतिनिधियों के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। ये बैंक वाणिज्यिक प्रतियोगिता के माहौल में अपना कार्य विशुद्ध पेशेवर तरीके से करते हैं। यह सांसदों का काम नहीं है कि वे बैंकों को निर्देश दें। रिजर्व बैंक की निदेशिका के अनुसार उनका कार्य संचालन होता है।’ मगर सबसे बड़ा सवाल जो आज पैदा हो रहा है वह यह है कि सरकारी बैंकों के साथ ही कुछ निजी बैंकों के भी मृत ऋण (एनपीए) हैं, इससे भी बड़ा सवाल यह है कि धोखाधड़ी की वारदातें पंजाब नेशनल बैंक व ओरियंटल बैंक आफ कामर्स जैसे सरकारी बैंकों के साथ ही क्यों होती रहती हैं? यह कैसे संभव है कि इन बैकों की ऋण राशियां सैंकड़ों और हजारों करोड़ रुपए में इकट्ठा होती रहें और बैंक के अधिकारीगण झपकी तब लें जब पानी सिर से ऊपर हो जाये। ओरियंटल बैंक आफ कामर्स को 390 करोड़ रु. का चूना लगाने वाली दिल्ली की जिस हीरे-जवाहरात की फर्म ‘द्वारका दास सेठ इंटरनेशनल व द्वारका दास प्रा.लि.’ के मालिक सभ्य सेठ और अन्य निदेशकों को तब मुजरिम पाया गया जब इसकी खोज एक टी.वी. चैनल के पत्रकार ने की। मजेदार यह है कि आरोपी पहले ही बैंक को चपत लगाकर विदेश फरार हो चुके हैं। मुम्बई के जिस नीरव मोदी ने पंजाब नेशनल बैंक को 11 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की चपत लगाई है वह तो अपना पर्दाफाश होने के बाद विदेश भाग गया। यह सवाल राजनीति का बिल्कुल नहीं है बल्कि वित्त व्यवस्था की उस नीयत का है जो असरदार या रसूखदार लोगों के लिए अपने ही बनाये हुए नियमों को नजरन्दाज करती है। दुनिया में कोई दूसरा एेसा प्रमुख देश नहीं है जहां हीरा या स्वर्ण व्यापारियों को बैंक ऋण देते हों। इस व्यापार में जोखिम की कोई सीमा नहीं होती।
बेशक बैंक किसी को भी ऋण देते समय जोखिम उठाते हैं मगर उन क्षेत्रों में अपना निवेश नहीं करते जिनकी उत्पादकता का उन्हें पूरा ज्ञान न हो और उसे परखने का वैज्ञानिक ढांचा उनके पास मौजूद न हो। हीरे या सोने में निवेश ‘मृत निवेश’ अर्थात गैर-उत्पादक की श्रेणी में आता है। बेशक आभूषण रूप में निर्यात कारोबार होता है मगर इसमें मदद देने के लिए सरकार के वाणिज्य मन्त्रालय की पृथक स्कीम है। अतः जांच का विषय भी बहुआयामी है। चाहे सीबीआई हो या वित्त विभाग का प्रवर्तन विभाग दोनों ही ऊपर वालों को खुश करने के लिए अपनी कागजी कार्रवाई में लग जाते हैं लेकिन जो लोग यह कह रहे हैं कि यह वित्त प्रणाली का असफल होना है, वह उचित नहीं है बल्कि मुद्दा यह है कि प्रणाली क्यों असफल हो रही है जबकि पुख्ता नियम-कानूनों की कमी नहीं है ? इसके लिए हमें स्व. राष्ट्रपति के.आर. नारायणन की उस उक्ति का ध्यान रखना होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘लोकतन्त्र हमें असफल नहीं कर रहा है बल्कि हम लोकतन्त्र को असफल कर रहे हैं’ वरना क्या वजह है कि जिन सार्वजनिक बैंकों के वित्तपोषण के लिए वर्तमान सरकार ने विशेष आर्थिक पैकेज दिया हो, उन्हीं के साथ घोखाधड़ी के मामले उजागर हो रहे हैं।
यह सवाल गंभीर चिन्ता पैदा करता है क्योंकि 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण होने के बाद देश के आर्थिक विकास में इनके योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता। इन बैंकों के कर्मचारियों की क्षमता और दक्षता पर भी सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता। सरकार की आर्थिक नीतियों को अंजाम देने का दायित्व अन्त मंे इन पर ही आकर पड़ता रहा है। भारत में जो औद्योगिक ढांचा खड़ा हुआ है और कृषि से लेकर ग्रामीण व आधारभूत विकास का जो खाका खिंचा है वह सार्वजनिक बैंकों और सरकारी वित्तीय कम्पनियों के योगदान के बिना किसी भी तौर पर संभव नहीं हो सकता था। अतः राजनीतिक आक्षेपों की जगह अगर हम वित्तीय अनुशासन को सख्ती से लागू करें तो समस्या का हल ढूंढने मंे आसानी होगी। वित्तमंत्री अरुण जेतली के इस कथन से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि बैंकिंग व्यवस्था की निगरानी करने वाले संस्थानों को अपनी चौकसी मुस्तैदी के साथ करनी होगी और पूरी तरह अराजनैतिक रहते हुए करनी होगी। हमने यह व्यवस्था बेवजह नहीं बनाई है कि रिजर्व बैंक के गवर्नर को वित्तमन्त्री भी आदेश नहीं दे सकता।