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फिर दंतेवाड़ा में निरंकुश हिंसा

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ऋग्वेद की एक बहुत पुरानी ऋचा है जिसका हिन्दी अनुवाद मैं यहां दे रहा हूं। यह नीति शतक की है- ‘‘मगरमच्छ के मुख की दाढ़ी के नीचे से मणि को भले ही साहस करके निकाल लाया जाए, वेगवती लहरों से लहराते समुद्र को भी पार कर लिया जाए, क्रुद्ध नागराज को भी माला की तरह शीश धारण कर ले परन्तु मूर्खों के चित्त में सद्गुणों का संचार करना संभव नहीं।’’ अनेक संतों ने भी कहा है कि हिंसक जानवरों को कभी अहिंसक नहीं बनाया जा सकता। पुराने जमाने में न जाने किस मनोदशा में उक्त बातें लिखी गईं होंगी या कही गई होंगी। हमने नग्न आंखों से देखा कि किस तरह भारत में नक्सलवाद फैलता चला गया आैर अब तक किए गए प्रयासों के बावजूद हम नक्सली हिंसा की चुनौती से सही ढंग से निपट नहीं पा रहे।

दंतेवाड़ा फिर सुर्खियों में है। नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर पुलिस के वाहन को उड़ा दिया। इस घटना में सात पुलिस जवान शहीद हो गए। दंतेवाड़ा के ​किंकदुल से पालनार गांव के मध्य में सड़क निर्माण कराया जा रहा था। निर्माण सामग्री पहुंचाने के लिए सुरक्षा बल तैनात किया गया था। पुलिस दल के जवान सामग्री वाले वाहन के पीछे एक जीप में सवार थे कि तभी नक्सलियों ने बारूदी सुरंग में विस्फोट कर दिया। यह घटना तब हुई जब गृहमंत्री राजनाथ सिंह छत्तीसगढ़ के दौरे पर थे। कितनी बड़ी दुःखद विडम्बना है कि एक तरफ कश्मीर में हमारे जवान आतंकवादियों के हाथों शहीद हो रहे हैं और देश के भीतर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जवान अपने ही लोगों के हाथों मारे जा रहे हैं। दंतेवाड़ा ने हमें बहुत जख्म दिए हैं। 6 अप्रैल, 2010 को हुआ दंतेवाड़ा नरसंहार तो सबको याद होना चाहिए जब लगभग एक हजार नक्सलियों ने हमला कर सीआरपीएफ के 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। सीआरपीएफ के जवानों को जवाबी कार्रवाई का मौका तक नहीं मिला था। तब ऐसी रिपोर्ट आई थी कि सीआरपीएफ जवानों के पास माओवादियों की टक्कर के हथियार ही नहीं थे। तब से लेकर आज तक वक्त काफी बदल चुका है। ऐसा लग रहा था कि नक्सलवाद दम तोड़ रह है लेकिन दंतेवाड़ा की इस घटना से नक्सलियों ने अपनी मौजूदगी दिखाई है। वैसे तो नक्सलवादियों की रणनीति यही रही है कि जब सुरक्षा बल उन पर हावी हों तो वह इधर-उधर बिखर जाते हैं और अपनी शक्ति को एकत्र करते हैं और मौका पाकर फिर हमला करते हैं। अब सुरक्षा बलों के पास आधुनिकतम हथियार भी हैं और उपकरण भी हैं। फिर ऐसा क्यों होता है कि नक्सली और दूसरे आतंकवादी संगठन सुरक्षा बलों पर भारी पड़ते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने नक्सलियों से बातचीत की पेशकश भी की है लेकिन यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि नक्सली बातचीत के जरिए समस्या का राजनीतिक समाधान करने के इच्छुक नहीं हैं। राज्य सरकारों के सामने समस्या यह है कि नक्सलियों के अनेक गुट सक्रिय हैं, आखिर बातचीत की भी जाए तो किससे।

यह बात भी किसी से छिपी हुई नहीं है कि नक्सलियों को किसी न किसी स्तर पर राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त है। अनेकों राजनीतिज्ञ और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग नक्सलियों से हमदर्दी जताते हैं और उनके खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई का विरोध करते हैं।बुद्धिजी​ि​वयों का एक वर्ग नक्सलियों का हितैषी है। ये वही बुद्धिजी​वी हैं जो नक्सलियों की ओर से किए गए खून-खराबे पर एक शब्द भी मुंह से नहीं निकालते। जब जवानों की हत्याएं होती हैं तो इनमें से कोई नक्सलियों की निन्दा नहीं करता। दंतेवाड़ा की ताजा घटना को ही देख लीजिए, क्या किसी बुद्धिजी​वी ने अपनी जुबान खोली है? सवाल यह भी है कि आखिर हमारे जवान कब तक नक्सलियों के हाथों अपनी जान गंवाते रहेंगे। नक्सली अब तालिबानी रूप ले चुके हैं। आतंकवादियों और नक्सलवादियों का मकसद केवल सरकार के घुटने टिकाना होता है। अगर किसी को गलतफहमी है कि वे गरीबों के हित में काम कर रहे हैं तो उन्हें यह बात अपने दिमाग से निकाल देनी चाहिए।

दरअसल आम अपराधी आैर इस प्रकार के गुटों में कोई फर्क नहीं है। राज्य सरकारों ने कई बार स्वीकारा कि कई कम्पनियां नक्सलियों को धन मुहैया कराती रही हैं, ले​िकन कोई सबूत न होने के कारण उनके खिलाफ कार्यवाही नहीं की जा सकती। केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, माओवादियों का फिरौती कारोबार 1400 करोड़ रुपए सालाना का है। माओवादियों को किसी भी काम से पैसा निकलवाने में कोई परहेज नहीं है, फिर चाहे तेंदूपत्ते की बिक्री हो या काम रोकने या उनकी मशीनों को जला देने की धमकी के बूते पर सड़क ठेकेदारों से कमीशन वसूलने की बात हो। इसके अलावा व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों तथा मोबाइल सेवा प्रदाताओं जैसे उच्च आमदनी वाली दूसरी श्रेणियों के कारोबारियों को भी निशाना बनाया जाता है। केंद्रीय गृह मंत्रालय और राज्य सरकारों के आंकड़े अनुमानों पर आधारित हैं, क्योंकि नक्सलवादियों की आमदनी का कोई ब्यौरा तो होता नहीं है। फिर भी ये संगठन इतना पैसा उगाह लेते हैं कि उनकी गतिविधियां आसानी से चलती रहती हैं। इसमें सबसे अधिक नुक्सान पुलिस को होता हैै, जो देश में उग्रवादी ​हिंसा की मार झेलती आई है और झेलती रहेगी।

अब लगता है कि बुलेट के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। आप्रेशन ग्रीन हंट के नतीजे काफी अच्छे निकले थे, उसने नक्सलवाद की कमर तोड़ दी थी। सुरक्षा बल आज भी नक्सलवाद का डटकर मुकाबला कर रहे हैं लेकिन जवानों की बड़े पैमाने पर जान जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। नक्सवाद भारत के खिलाफ एक युद्ध है और इस संघर्ष का अंत होना ही चाहिए। नक्सवाद प्रभावित राज्यों को एक बार फिर नए दृष्टिकोण से काम करने की जरूरत है। लाल आतंक को कुचलना ही होगा। सुरक्षा बलों को अपनी कमियों का आकलन करना होगा और नक्सलियों पर निर्णायक जीत हासिल करनी ही होगी।

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