सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने बहुमत से फैसला देते हुए मुस्लिम समाज में जारी तीन तलाक की प्रथा को अवैध करार देते हुए स्पष्ट किया है कि यह गैर संवैधानिक व गैर इस्लामी है। न्यायालय ने भारतीय संविधान के दायरे में यह फैसला दिया है जिसमें धार्मिक आजादी की पूरी स्वतंत्रता है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने मजहब के रास्ते पर चलने का पूरा हक है परन्तु तीन तलाक ऐसी कुप्रथा थी जिसे मजहब के आवरण में ढक कर कुछ लोग सही ठहराने की कोशिश कर रहे थे। दरअसल तीन तलाक सामाजिक कुरीति के रूप में मुस्लिम समाज में कालान्तर में पनपी जिसका इस मजहब के मानने वालों के शरीया कानून से कोई संबंध नहीं था। शरीया में च्तलाक- ए-इद्दत की तीन महीने के अंतराल में तीन बार तलाक कह कर पत्नी को छोड़ने का विधान है जो बिगड़ते-बिगड़ते तलाक-ए-बिद्दत अर्थात एक बार में ही तीन बार तलाक बोल देने या लिख देने में बदल गया। इसने मुस्लिम महिलाओं के जीवन को इस कदर दर्दनाक बना दिया कि शादी होने के बावजूद उनके सिर पर अलग होने की तलवार हमेशा ही लटकी रहने लगी और वे इसी खौफ के साये में अपनी जिंदगी बसर करने के लिए मजबूर रहने लगीं। जाहिर तौर पर स्वतंत्र भारत में यह ऐतिहासिक न्यायिक फैसला है क्योंकि इससे मुसलमान औरतों की स्थिति अपने घर के भीतर मजबूत हुई है। इससे मुस्लिम न्याय व्यवस्था या उस प्रणाली में संशोधन की जरूरत होगी जो 1937 में ब्रिटिश काल के दौरान बने कानून से लागू है।
सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को अवैध करार देते हुए सरकार से कहा है कि वह इस बाबत संसद में एक कानून लाए। जाहिर तौर पर यह कानून शरीया में छेड़छाड़ के बिना ही लाया जा सकता है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि उसका धार्मिक मामलों में दखल देने का कोई इरादा नहीं है। मगर भारत के संविधान में किसी भी स्त्री या पुरुष को बराबर के अधिकार मिले हैं लेकिन धर्म की स्वतंत्रता इसमें तब आड़े आती है जब किसी धर्म में स्त्री और पुरुष के हकों में संतुलन बना कर रखने की आजादी नहीं होती है। अतः धर्म देश और काल की आवश्यकता के अनुसार संशोधित होना चाहिए और उसमें उन कुरीतियों का चलन बंद होना चाहिए जो इंसानियत के खिलाफ ही खड़ी हुई मिलती हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मुस्लिम समाज में सुधार आन्दोलन शुरू करने का पहला कदम माना जा सकता है। परोक्ष रूप से न्यायालय ने यह भी संदेश दिया है कि समाज सुधार के कदम उस मजहबी सम्प्रदाय के भीतर से ही उठाए जाने चाहिए जिससे उसके मानने वाले बदलते समय के साथ कदमताल करने लगें। इसके साथ यह भी सोचना जरूरी है कि भारतीय संविधान के मूल तत्व इसके नागरिकों पर टुकड़ों में लागू नहीं हो सकते। बेशक भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है और इसके नागरिकों की संस्कृति विभिन्न परंपराओं और रवायतों से भरपूर है मगर एक तथ्य सामान्य है कि सभी भारत के नागरिक हैं और सबसे पहले इंसान हैं। अतः संविधान का मानवीय पक्ष सभी पर एक समान रूप से लागू होना चाहिए। हमने धर्म को व्यक्तिगत मामला माना है और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था के अनुसार पूजा–पाठ करने या इस वन्दना का अधिकार है, जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं उन्हें भी भारत का संविधान पूरा संरक्षण प्रदान करता है। इसका अर्थ यही है कि हमने इंसानियत को सर्वोपरि रखा है।
भारत की असली धर्मनिरपेक्षता भी यही है जो उसे यूरोपीय धर्मनिरपेक्षता से अलग रखती है। अतः हमें जल्दी ही वह रास्ता खोजना होगा जिससे विभिन्न धर्मावलम्बियों के इंसानी हकूक एक समान हों और उनका धर्म उन पर भारी न पड़े। भारत की बहुसंख्य हिन्दू आबादी के लिए जब हमने नागरिक आचार संहिता बनाई तो इसी सिद्धांत पर अमल करते हुए स्त्रियों को सम्पत्ति में हक व तलाक लेने का अधिकार दिया और विधवा विवाह को मान्यता दी। यह सब हमने मुस्लिम समाज की पवित्र धार्मिक पुस्तक कुरान शरीफ से लिया। क्योंकि कुरान शरीफ में ही तलाक और विधवा विवाह और स्त्री के सम्पत्ति के हक का विधान है। किसी भी धार्मिक हिन्दू ग्रन्थ में इन सब बातों का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है। इसका सीधा अर्थ यही है कि हमारे पुरखों ने धार्मिक विविधता के अनुपालक अंगों को स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। इसमें उन्होंने सामाजिक प्रगति की दृष्टि पाई तो अब 21वीं सदी में इस्लाम के मानने वालों को वही फ्राख दिली दिखाते हुए भारत की विविधता के खूबसूरत पहलुओं को स्वीकार करते हुए स्वयं को प्रगतिशील समाज के रूप में आगे बढ़ाना चाहिए मानवीय पक्ष को सबसे ऊंचे पायदान पर रखते हुए अपनी रवायतों में सुधार करना चाहिए और स्त्री को उसका जायज हक देना चाहिए। मैं ऐसा कह कर एक समान नागरिक आचार संहिता की वकालत नहीं कर रहा हूं बल्कि यह कह रहा हूं कि भारत के संविधान ने इस देश के प्रत्येक स्त्री–पुरुष को जो बराबर के अधिकार उसकी हस्ती को बरकरार रखते हुए बख्शे हैं उन्हें हासिल किया जाना चाहिए। इंसानी हुकूकों में मजहब कहां बीच में आता है? अगर ऐसा न होता तो क्यों इस्लामी देशों तक में सामाजिक आंदोलन होते?