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इस्तीफे की परम्परा

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रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने लगातार बढ़ती रेल दुर्घटनाओं के मुद्दे पर यदि अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश की है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए और लोकतन्त्र में अन्तिम जिम्मेदारी चुने हुए प्रतिनिधि द्वारा लिये जाने की परंपरा को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। उन्होंने भारतवासियों के लोकतन्त्र में विश्वास को बढ़ाया है और इसके प्रति अपने निष्ठावान होने का प्रमाण दिया है। इसकी मुख्य वजह यह है कि हमने जिस च्लोगों की सरकार, लोगों के द्वारा लोगों के लिएज् के सिद्धांत को अपना कर अपनी प्रशासन प्रणाली को अपनाया है उसमें लोगों का प्रतिनिधि ही इस प्रशासन के सभी अंगों का मुखिया होता है, यहां तक कि देश की सुरक्षा का भार सशस्त्र सेनाओं के जिम्मे होने के बावजूद उनकी सारी जिम्मेदारी रक्षामन्त्री पर होती है और वह संसद के प्रति जवाबदेह होता है। अतः यह बेवजह नहीं था कि 1962 में चीन से हार जाने पर तत्कालीन प्रधानमन्त्री प. जवाहर लाल नेहरू ने रक्षामन्त्री वीके कृष्णा मेनन का इस्तीफा ले लिया था। लोकतन्त्र जनता के चुने हुए प्रतिनिधि को सर्वशक्तिमान की हैसियत तो अता करता है मगर जनता के प्रति सीधे जवाबदेही के साथ। अतः सुरेश प्रभु का इस्तीफा स्वीकार किया जाना चाहिए और उनसे जन सेवा के काम में लग जाने के लिए कहा जाना चाहिए जिससे वह लोकसेवक की उस भूमिका का निर्वाह भी कर सकें जो लोक प्रशासक बनने की अख्तियारी का रास्ता खोलता है।

सवाल यह बिल्कुल नहीं है कि रेलमन्त्री स्वयं रेल नहीं चलाता है, बल्कि असली सवाल यह है कि रेलमन्त्री के नेतृत्व में पूरा रेल मन्त्रालय अपने कार्यकलापों का संचालन करता है और रेलगाड़ी में बैठने वाले गरीब से गरीब यात्री को यह यकीन दिलाता है कि उसका सफर बिना किसी खौफ के पूरा होगा और वह सुरक्षित रूप से अपने गन्तव्य तक पहुंचेगा। मगर राजनीति में आज जिस कदर अंधेरा छाया हुआ है उसमें श्री प्रभु का यह कदम बिना शक एक रोशनी की किरण बनकर फूटेगा और आने वाली पीढि़यों को सन्देश देगा कि लोकतन्त्र में प्रशासन का अर्थ केवल च्लोकशासनज् ही होता है। जरूरी नहीं है कि जो नजीर 27 नवम्बर 1956 को स्व. लाल बहादुर शास्त्री ने तमिलनाडु में रेल दुर्घटना होने पर अपने पद से इस्तीफे की घोषणा भी लोकसभा में करके की हो, उस पर चलने की हिम्मत मौजूदा दौर के सियासतदानों में खत्म हो गई हो। हर दौर में एेसे लोग जन्म लेते रहेंगे जो अपने फर्ज पर फिदा होना अपना ईमान समझेंगे। मगर हमें यह भी सोचना होगा कि हम अपने इस रेल मन्त्रालय में किस तरह सुधार लायें जिसकी पटरियां खस्ताहाल होती जा रही हैं और इसके एक लाख किमी से ज्यादा लम्बे फैले तंत्र का दम फूलने को हो रहा है। रात–दिन इन पटरियों पर दौड़ती हजारों ट्रेनें यात्रियों की सुरक्षा से समझौता करती लग रही हैं। मैंने पहले भी इस तरफ इशारा किया था कि भारतीय रेल किसी नफे-नुकसान का हिसाब–किताब लगाई जाने वाली कम्पनी की तरह नहीं चलाई जा सकती है। यह 125 करोड़ देशवासियों का ऐसा सहारा है जिसमें बैठकर वे एक-दूसरे से जुड़ते हैं और अपने इस विशाल देश की महान संस्कृति से परिचय पाते हैं। यह कार्य निरन्तर चलता रहता है।

इसके लिए सबसे जरूरी है कि इसकी पटरियों की सुरक्षा से लेकर इसमे काम करने वाले लाखों कर्मचारियों की सुरक्षा के भी पुख्ते इन्तजाम किये जाये और आधुनिक टैक्नोलोजी के जरिये रेल आवागमन को नियमित करने की व्यवस्था की जाए, परन्तु इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण रेलवे पटरियों की सुरक्षा और रखरखाव का कार्य है, क्योंकि सभी प्रकार की ट्रेनों के दौड़ने का यही आधारभूत तन्त्र है। इस तन्त्र को पुख्ता करने का ध्यान सर्वाधिक रूप से रामविलास पासवान ने 1996 से 1998 के बीच किया था जब वह देवेगौड़ा व गुजराल सरकार में रेलमन्त्री थे। उन्होंने रेलवे के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को सर्वाधिक रूप से सम्मानित किया था जिससे वे रात और दिन रेल पटरियों की सुरक्षा में लगे रहे और अपना कार्य निष्ठा से करते रहें। यह पासवान का विशेष अन्दाज रहा है कि वह जिस मन्त्रालय में भी जाते हैं उसमें सबसे पहले चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की हालत पर ही ध्यान देते हैं। कच्चे खलासियों तक को रेलवे पास देकर उन्होंने उन्हें रेलवे से पूरी तरह जोड़ने का काम किया। यह ऊपर से बहुत छोटा काम लगता है मगर अन्दर से बहुत असरदार तरीके से काम करता है।

मगर अफसोस इसके बाद से सरकार की नीतियों में जिस तरह का परिवर्तन आया उससे रेलवे को एक कम्पनी की तरह चलाने की विधि विकसित होती गई और जोर इस बात पर बढ़ता गया कि किस तरह बिछी हुई रेल पटरियों पर ज्यादा से ज्यादा रेलगाडि़यां (मालगाडि़यों समेत) चला कर मुनाफा कमाया जाये। बेशक इसके बाद गैसल दुर्घटना होने पर नीतीश कुमार ने भी रेलमन्त्री पद से इस्तीफा दिया मगर रेलवे विभाग में तभी से रिक्तियों को खाली रखकर खर्चा कम दिखाने की प्रवृत्ति बल पकड़ने लगी। इससे रेलवे का आधारभूत ढांचा अधिक से अधिक क्षमता उपयोग करने के चक्कर में खस्ताहाल होता चला गया। गत शनिवार को खतौली में हुई रेल दुर्घटना ने हमें खोल कर बताया कि किस तरह मुनाफा कमाने की नीति सार्वजनिक सम्पत्ति को खाक करती है औऱ लोगों की जान-माल से बेपरवाह बनाती है। आज ओरैया में एक ट्रेन के दस डिब्बे पटरी से उतर जाने से हमें पता चला कि रेलवे में लापरवाही का सिलसिला कितने गहरी जड़ें जमा चुका है। कम से कम यह निष्कर्ष तो हम निकाल सकते हैं कि विकास का रास्ता धरातल से शुरू होकर ही आसमान तक जा सकता है। जमीन को पक्की करके ही उस पर बहुमंजिली इमारत खड़ी की जा सकती है।

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