वामपंथियों द्वारा त्रिपुरा में भी कुख्यात केरल मॉडल का बखूबी प्रयोग किया जाता रहा है जिसमें हिंसा को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। त्रिपुरा में राजनीतिक विरोधियों का ही सफाया नहीं किया गया बल्कि माकपा के भीतर जो भी नेता सफलता प्राप्त कर लेता है या दूसरों को पीछे छोड़ देता है उसे भी ङ्क्षहसा झेलनी पड़ी है। उनकी भी हत्याएं हुई हैं। त्रिपुरा को वामपंथियों ने केरल मॉडल की गोपनीय प्रयोगशाला बना दिया है। 1983 में कांग्रेस विधायक परिमल साहा और उनके करीबी की दिनदहाड़े हत्या की गई थी। इसके पीछे कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं का हाथ बताया जा रहा था। न्याय की जंग 23 वर्ष चली। जब कोर्ट से फैसला आया तो 24 आरोपियों में से 7 की मृत्यु हो चुकी थी और एक अभी भी फरार है। 1998 में तत्कालीन सरकार में स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री माणिक सरकार के प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले बिमल सिन्हा की कुछ उग्रवादियों ने हत्या कर दी थी। विपक्ष का आरोप था कि इसके पीछे मुख्यमंत्री माणिक सरकार का हाथ है लेकिन सरकार ने न केवल सीबीआई जांच की मांग ठुकराई बल्कि जांच के लिए बनी यूसुफ कमेटी की रिपोर्ट को भी 16 साल तक दबाकर रखा।
यहां विरोध करने पर अपनी ही पार्टी के विधायक मार दिए जाते हैं। विरोधी दलों के नेताओं की हत्या करवा दी जाती है। कोई अधिकारी सुरक्षित नहीं। न्याय के लिए कोई जगह नहीं है। बलात्कार एक राजनीतिक हथियार बन चुका है। यदि कोई वामपंथियों की रैली में नहीं जाता तो उसे दुश्मन की तरह चिन्हित कर दिया जाता है। हर चुनाव के बाद विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं के पीछे पड़ जाते हैं। उन्हें मारा-पीटा जाता है, उनके घर जलाए जाते हैं, उनके परिवार की महिलाओं से बलात्कार किया जाता है ताकि यह परिवार पुन: चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा बनने की हिम्मत ही न जुटा सके। एक शांतिप्रिय राज्य को ङ्क्षहसक और क्रूर रणक्षेत्र में परिवर्तित कर दिया गया है। आदिवासी और बंगाली, जिनके बीच पूर्व में कोई समस्या ही नहीं थी, एक-दूसरे के दुश्मन बन गए। 1970 का आदिवासी-बंगाली दंगा वामपंथ का ही करवाया हुआ था। अन्य राज्यों में बलात्कार की घटनाओं, हत्याओं की घटनाओं को राष्ट्रीय मीडिया बहुत उछालता है लेकिन त्रिपुरा की घटनाएं कभी-कभार ही खबरों में मिलती हैं। वर्ष 2014 की मोदी लहर के बाद त्रिपुरा भी भाजपा से अछूता नहीं रहा। साल 2014 से इनके निशाने पर भाजपा के कार्यकर्ता आ गए हैं। हाल ही के पंचायत और विधानसभा उपचुनाव में भाजपा एक मजबूत दल के रूप में उभरी है। भाजपा का तेजी से बढ़ता हुआ ग्राफ माणिक सरकार के माथे पर शिकन पैदा कर रहा है और इस कारण भाजपा के खिलाफ ‘केरल-मॉडल’ का प्रयोग तेजी से बढ़ा है और भाजपा कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जा रहा है।
समय-समय पर केरल की तरह ही भाजपा-सी.पी.एम. कार्यकर्ताओं के भिडऩे की खबरें सामने आ रही हैं। 26 दिसम्बर 2016 को भाजपा नेता चांद मोहन की क्रूर ढंग से हत्या हुई और भाजपा ने इसके पीछे सी.पी.एम. का हाथ बताया। इसी महीने भाजपा के जिला महासचिव अरिफुल इस्लाम के घर तथाकथित तौर पर सी.पी.एम. के कार्यकर्ताओं ने तोडफ़ोड़ मचाई और घर के सदस्यों को भाजपा से दूर रहने के लिए डराया-धमकाया। भाजपा का आरोप है उसके अन्य मुस्लिम नेताओं को भी इसी तरह प्रताडि़त किया जा रहा है बल्कि 25 मुस्लिम परिवारों ने तो यह आरोप भी लगाया है कि सी.पी.एम. छोड़कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने के कारण स्थानीय मस्जिद में भी उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। ऐसी कई घटनाएं लगातार हो रही हैं और ऐसा अन्दाजा लगाया जा रहा है कि अगले साल फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वामपंथी दल के द्वारा इस तरह की हरकतों को अन्जाम दिया जा रहा है। पिछले माह जुलाई में माकपा कार्यकर्ताओं ने कई जगह भाजपा कार्यालयों पर हमले किए हैं। धेलंगना क्षेत्र में बाबुल मजूमदार नामक शिक्षक की मौत हो गई और भाजपा के दो कार्यकर्ता भी मारे गए। भाजपा कार्यकर्ताओं के कई घर जलाए गए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने त्रिपुरा में कुछ ही महीनों में पार्टी की सुनामी ला दी है। 2014 के चुनाव से पूर्व अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में भाजपा कार्यकर्ता एक छोटा सा मैदान भी नहीं भर पाए थे। वहीं अब एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या के विरोध में उसी मैदान में 50 हजार लोग शामिल हुए। यह त्रिपुरा के वामपंथमुक्त राज्य होने का संकेत है। भारत की राजनीति को ङ्क्षहसामुक्त बनाने के लिए वामपंथ और अन्य दलों की खूनी सियासत बन्द करनी ही होगी।