दुनिया में राजनैतिक स्वातन्त्र्य और सामाजिक समता का भौतिकवादी दृष्टिकोण से वैज्ञानिक विश्लेषण करने वाले महान चिन्तक कार्ल मार्क्स का आज दो सौवां जन्म दिवस है जिसे पूंजीवाद की बाजार व्यवस्था वाली दुनिया के विभिन्न देश अपने-अपने तरीके से मना रहे हैं और कह रहे हैं कि मार्क्स के वस्तुपरक द्वन्दात्मक विकास के दर्शन को मानवीय सभ्यता का इतिहास किसी भी युग में नहीं बदल सकता क्योंकि यह समाज को उस शोषण से मुक्ति की राह दिखाता है जो मनुष्य निर्मित एेसी व्यवस्था से पनपते हैं
जिसमें धन या पूंजी पर एकाधिकार करके व्यक्ति को जन्मजात छोटा या बड़ा बना दिया जाता है। भारत के सन्दर्भ में कार्ल मार्क्स का महत्व इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में ही भारत की सामन्ती सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा यहां के आर्थिक स्रोतों पर नियन्त्रण करने के प्रयासों के अधीन किया था। मार्क्स एेसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1857 के भारतीय सैनिकों व राजाओं के विद्रोह को ‘स्वतन्त्रता संग्राम’ कहा था।
अंग्रेजों द्वारा इस विद्रोह को ‘गदर’ का नाम दिया गया था जिसे मार्क्स ने लन्दन में बैठकर ही एक सिरे से नकारते हुए कहा था कि भारत की जनता द्वारा यह एेसी क्रान्ति की शुरूआत थी जिसमें आर्थिक सत्ता के छिनने के विरुद्ध आम नागरिक व मजदूर से लेकर किसान व सैनिक और रजवाड़े अपना अधिकार लेने का प्रयास कर रहे थे।
मार्क्स ने तब भारत के कपड़ा उद्योग को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा भारत में कपड़ा मिलें खोलने के साथ ही मेनचेस्टर में निर्मित कपड़े से भारतीय बाजारों को पाटकर चौपट करने की रणनीति बताया था और भारत को गुलामी की जंजीरों में बांधने की पुख्ता कोशिश बताते हुए स्पष्ट किया था कि ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत के कृषि राजस्व पर ही अपना अधिकार नहीं जता रही है बल्कि वह यहां के लोगों की आर्थिक ताकत को नष्ट करके इनके उद्योग-धन्धों को भी चौपट कर रही है और भारत से कच्चा माल ले जाकर यहां के बाजारों को अपने बनाये हुए माल से पाट रही है तथा दूसरी तरफ भारत में ही कपड़ा मिलें खोलकर भारतीय दस्तकारों और बुनकरों को गुलाम बना रही है और भारतीय कपड़े के निर्यात बाजार को खत्म कर रही है।
उस समय भारतीय कपड़े की मांग विश्व बाजार में सर्वाधिक थी बल्कि हकीकत यह है कि आज की तारीख में भी भारतीय टैक्सटाइल्स उद्योग निर्यात बाजार का बहुत बड़ा हिस्सा है। मार्क्स की पैनी नजर उस समय ही भारत की आर्थिक शक्ति पर पड़ गई थी। अतः मार्क्स ने लिखा कि अंग्रेजों ने भारतीयों को एेसी गुलामी के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से उन्हें तभी मुक्ति मिल सकती है जबकि उनके हाथ में राजसत्ता के अधिकार भी हों। इस सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजों ने 1836 के करीब भारत में जारी मुद्रा पर ब्रिटेन के सम्राट का चित्र छाप कर एेलान कर दिया था कि हुकूमत दिल्ली के लालकिले में बैठे शहंशाह की नहीं है बल्कि लन्दन में बैठे सम्राट की है।
भारत में मुद्रा के बदलने का असर चौतरफा था और हथकरघा दस्तकारों से लेकर साधारण मजदूर और सैनिक व व्यापारी में यह डर बैठ गया था कि अंग्रेज उनके सामन्ती मसनबदारों को जब चाहे कंगाल बना सकते हैं। उस समय के भारतीयों की मनोस्थिति का विश्लेषण जिस तरह कार्ल मार्क्स ने लन्दन के अखबार में छपे अपने लेखों ‘लैटर्स फ्राम लंदन’ में किया है वह इस मायने में विलक्षण है कि बिना भारत आये ही उन्होंने यहां के समाज के कमजोर और मजबूत सिरों को पकड़ने में गफलत नहीं दिखाई थी।
भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में मार्क्सवादी विचारों का सबसे ज्यादा प्रभाव डा. भीमराव अम्बेडकर पर देखने को मिलता है जिन्होंने दलितों को समान अधिकार दिलाने के लिए कई बार वही रास्ता अपनाया जिसकी पैरवी मार्क्स ने की थी। सामाजिक असमानता समाप्त करने और स्त्री-पुरुष के आधार पर भी शोषण को खत्म करने के लिए आिर्थक सम्पन्नता का जो मन्त्र मार्क्स ने दिया उसकी वकालत डा. अम्बेडकर ने अपने राजनीतिक जीवन में कई बार की और कहा कि गैर बराबरी दूर करने का मार्ग औद्योगीकरण भी है,
लेकिन दाे सौ वर्ष पहले मार्क्स ने श्रम की महत्ता और पूंजी के समकक्ष विकास में इसका योगदान बता कर सिद्ध किया कि वस्तुगत सत्य भी बदल सकता है यदि उसके आकलन का स्थान बदल दिया जाये परन्तु गांधी के भारत में मार्क्सवाद के वर्ग संघर्ष नजरिये के लिए क्या स्थान हो सकता है जिसमें हिंसा को भी वाजिब जगह दी गई है? इस मामले में गांधी जी का कथन ही काफी है कि ‘यदि साम्यवाद में से हिंसा निकाल दी जाये तो मुझे समाजवादी व्यवस्था से कोई परहेज नहीं होगा। क्योंकि यह व्यक्ति के सम्मान को सर्वोपरि रखता है किन्तु मैं एेसे समाजवाद में विश्वास रखता हूं जिसमें राजसत्ता मालिक नहीं बल्कि जनता की सेवक हो और जनता के मालिकाना हक पूरी तरह सुरक्षित हों।’’