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सिख दंगों का बेबाक सबक

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सर्वोच्च न्यायालय ने 1984 के सिख दंगों के बंद मामलों को फिर से खोलकर जांच करने के आदेश दिए हैं। दिल्ली समेत देश के विभिन्न भागों में सिखों के खिलाफ उपजी हिंसा में तीन हजार से अधिक जानें गई थीं। ये मामले 32 साल पुराने हैं और यह भी सत्य है कि इनकी जांच के लिए कई जांच आयोग भी गठित किए गए मगर खतावारों की शिनाख्त विशेष जांच दल बनाए जाने के बावजूद अधूरी रही और जमकर राजनीति होती रही और इस हद तक हुई कि 1984 के चुनावों के बाद के हर चुनाव में यह एक मुद्दा भी बनती रही। सरकारें आती-जाती रहीं और एक-दूसरे पर आरोप लगाती रहीं, जांच आयोग गठित कराती रहीं और दुखती रगों को सहलाती रहीं। न्याय की तराजू पर दंगों से पीडि़त लोगों के बयान तुलते रहे, गवाहियां होती रहीं, बयान बदलते रहे, किस तरह न्याय की नुमाइश हुई इसका नजारा पूरे भारत ने देखा मगर हम उस मंजर को क्या कहेंगे जो गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में अभी कुछ दिनों पहले ही पेश हुआ था।

यह भी मानवीयता की छाती पर छुरा घोंपने से कमतर नहीं कहा जा सकता क्योंकि अस्पताल में आक्सीजन की कमी की वजह से ही 63 बच्चों की मौत सिर्फ दो दिन में हो गई। इनके मां-बाप चीख-चीख कर गवाही दे रहे हैं कि उनके नौनिहालों ने आक्सीजन की सप्लाई रुक जाने की वजह से दम तोड़ डाला मगर राज्य सरकार ने फैसला किया कि पूरे मामले की जांच होगी और जांच वे लोग ही करेंगे जिनकी लापरवाही और बदइंतजामी की वजह से इस सरकारी अस्पताल में यह कांड हुआ था। 1984 के दंगों को इस वजह से इंसानियत का खून कहा जाता है कि देश की राजधानी में ङ्क्षहदोस्तान की अवाम की चुनी हुई बाअख्तियार सरकार होने के बावजूद तीन दिन तक पुलिस तमाशाई बनकर कत्लोगारत की खूंरेजी देखती रही थी। तब दिल्ली की सड़कों पर चश्मदीद गवाहों के बयान चीख-चीख कर कह रहे थे कि हुकूमत गुनहगार है मगर खुद हुकूमत कानों में तेल डालकर ही नहीं बैठी हुई थी बल्कि पूरी तरह बेरुखी का इजहार कर रही थी और उलटे लोगों को समझा रही थी कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास की जमीन थोड़ी-बहुत हिलती ही है।

स्वतंत्र भारत में किसी भी हुकूमत की यह पहली ऐसी बेहयाई थी जिससे जालिम भी शर्मिन्दा हो गए थे। एक आदमी के अपराध की सजा उसकी पूरी कौम को दी जा रही थी। तब भारत अचानक 20वीं सदी से निकल कर उस 14वीं सदी में पहुंच गया था जिसमें कोई भी हमलावर अपना बदला लेने के लिए पूरी प्रजा को निशाना बनाया करता था मगर लोकतंत्र का मतलब सिर्फ कब्रें खोदकर गड़े मुर्दे निकाल कर उन पर सियासत करने का नाम नहीं होता बल्कि भविष्य को खूबसूरत बनाने का नाम होता है और उन गलतियों को न दोहराने का नाम होता है जो पूर्व में हो चुकी हैं। इसी वजह से गोरखपुर कांड भी महत्वपूर्ण है। अस्पताल में अधिसंख्य गरीब मां-बापों के बच्चों की मृत्यु हुई है और राज्य के मुख्यमंत्री की नाक के नीचे हुई है और उसी वजह से हुई जिसे खत्म करने के लिए वह पिछले 20 सालों से लगातार संसद में शोर मचाते रहे हैं। लोकसभा का रिकार्ड उठाकर यदि देखा जाए तो योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर इलाके में फैले इंसेफलाइटिस बीमारी का मामला दर्जनों बार उठाया है।

इसके बावजूद उनके सत्ता में होने पर उन्हीं की शहर के अस्पताल में इस बीमारी से लडऩे के लिए आवश्यक बुनियादी जरूरत ऑक्सीजन की सप्लाई कट जाए तो इस वाकये को किस नजर से देखा जायेगा? जरूरी यह है कि इस वाकये की जिम्मेदारी सरकार का मुखिया लेते हुए उस मंत्री को बर्खास्त करता जिसके जिम्मे गरीबों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी थी। लोकतंत्र में सत्ता का अर्थ हुक्मबरदारी नहीं होता है बल्कि हिफाजतदारी होता है। मंत्रियों को पुलिस का बड़े से बड़ा अफसर इसलिए सलामी नहीं ठोकता कि वह उनसे भी बड़ा अफसर है बल्कि इसलिए ठोकता है कि वह उस सरकार का नौकर है जिसे जनता ने चुना है और मंत्री उसी के नुमाइंदे के तौर पर उससे हिसाब मांगने का हक रखता है। राजनीतिक दलों को हुकूमत में रहते हुए यह सिद्ध करना होता है कि उनकी नीयत में कहीं कोई खोट नहीं है, 1984 के सिख दंगे इसी वजह से हुए कि तब की सरकार की नीयत में खोट था क्योंकि तब भी मुल्क में कानून का शासन था मगर कानून का कत्ल करने वालों की मुहाफिज खुद पुलिस ही बन गई थी। इसकी जांच पर जांच ने हमें किस नतीजे पर पहुंचाया? आप भी सोचिये, मैं भी सोचता हूं।

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