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मानवरहित क्रॉसिंग एक अभिशाप

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उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में स्कूली वैन की ट्रेन से टक्कर में 13 बच्चों की मौत वैन चालक की लापरवाही का परिणाम है। वैन चालक ने ईयरफोन लगा रखा था इसलिए वह ट्रेन का हॉर्न नहीं सुन सका। बच्चे उससे बस रोकने के लिए चिल्लाते रहे लेकिन चालक ने उनकी एक न सुनी लेकिन दुर्घटना का कारण मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग भी है जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग के कारण अब तक कई भीषण दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। अनेक घरों के चिराग बुझ चुके हैं, अनेक जीवनभर के लिए विकलांग हुए लेकिन भारत में चौकीदार रहित रेलवे क्रॉसिंग इतने बड़े लोकतंत्र में किसी अभिशाप की तरह चिपक गई है जो समय-समय पर कहर बरपाती है। कुशीनगर हादसे ने उत्तर प्रदेश के भदोही और मऊ में हुए हादसों की याद ताजा कर दी। दोनों दुर्घटनाओं ने 25 स्कूली बच्चों की जान ले ली थी।

देश में चौकीदार रहित रेलवे फाटकों पर होने वाली दुर्घटनाओं के आंकड़े बहुत भयावह हैं। सरकारी रिपोर्टें कहती हैं कि हर साल 15 हजार से अधिक जानें लापरवाही की भेंट चढ़ जाती हैं। देश में रेलवे फाटकों पर सुरक्षा सम्बन्धी दिशा-निर्देशों का मजाक उड़ाया जाता है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन दुर्घटनाओं के लिए आम लोगों के साथ-साथ रेलवे मंत्रालय भी जिम्मेदार है। हर बड़ी दुर्घटना के बाद रेलवे मंत्री बदल दिए जाते हैं। बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। न तो लोग सुरक्षा सम्बन्धी दिशा-निर्देशों को मानने के लिए तैयार हैं और न ही रेलवे मंत्रालय मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग खत्म करने के लिए पर्याप्त कदम उठा रहा है। सारी दुर्घटनाएं कोई संयोग नहीं हैं। इनका रेलवे की प्राथमिकताओं से गहरा नाता है।

चाहे ट्रेन का मुसाफिर हो या रेलवे क्रॉसिंग पर गुजरने वाले पैदल लोग आैर वाहन, लोगों की सुरक्षा रेलवे की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। लोग सरकार की घोषणाओं से भली-भांति परिचित हैं। हर वर्ष रेलवे की सुरक्षा के लिए मद में आवंटन बढ़ाने की घोषणा की जाती है। साल-दर-साल यह रा​शि बढ़ती भी जा रही है परन्तु आज भी बहुत सारी रेलवे क्रॉसिंग चौकीदार रहित हैं।

रेलवे के बहुत से पुराने पुल कमजोर हो चुके हैं और उन्हें खतरे से खाली नहीं माना जाता लेकिन उनकी मरम्मत या पुनर्निर्माण का काम अपेक्षित गति से नहीं हो रहा। पिछले वर्ष रेल राज्यमंत्री ने संसद में बताया था कि देश में मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग की संख्या 4943 है।

उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 904 मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग हैं। गुजरात में 791, बिहार में 340, आंध्र प्रदेश में 272 और राजधानी ​दिल्ली में भी एक मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग है। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने भी राज्यसभा में बड़ा बयान दिया था कि यह नीतिगत फैसला किया गया है कि एक साल में सभी मानवरहित फाटकों को बन्द कर दिया जाएगा। उत्तर प्रदेश में ऐसी मानवरहित क्रॉसिंग हैं जहां गेट बन्द करने की कोई व्यवस्था नहीं है।

दरअसल यहां ट्रेन के साथ एक आदमी आता है, क्रॉसिंग से पहले ट्रेन रुकती है, आदमी उतर कर फाटक बन्द करता है, फाटक क्रॉस करने के बाद ट्रेन रुकती है, फिर आदमी उतरता है, फाटक खोलता है और ट्रेन में चढ़ जाता है, फिर ट्रेन क्रॉसिंग से रवाना होती है। ऐसा नहीं है कि रेलवे भी इस कड़वे सत्य को जानती है लेकिन अब तक कोई पुख्ता व्यवस्था लागू नहीं हो पाई।

रेलवे हाईस्पीड ट्रेनें शुरू कर रहा है, बुलेट ट्रेन परियोजना की भी तैयारी हो चुकी है। जुबानी जमा खर्च में कोई कमी नहीं लेकिन आजादी के 70 वर्षों बाद भी हम मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग खत्म नहीं कर पाए। 2011 के रेल बजट में भी इन सभी को समाप्त करने की बात कही गई थी लेकिन यह सब कागजों तक सीमित रहा। रेलवे तंत्र की खामियां आम जिन्दगियों पर भारी पड़ती दिखाई दे रही हैं।

रेल मंत्रालय दुर्घटनाएं रोकने के लिए प्रयासरत तो दिखाई देता है लेकिन पूरे देश में मानवरहित क्रॉसिंग खत्म करना बेहतर होगा। कुशीनगर के हादसे ने त्रासदी के सामाजिक पहलू को भी उजागर किया है। रेलवे फाटक बन्द होने के बावजूद लोग गेट के नीचे से मोटरसाइकिल, रिक्शा पार करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। गाड़ी चलाते समय मोबाइल पर बात करना, ईयरफोन से गाने सुनना लोगों की फितरत होती जा रही है परन्तु यह आदतें कितनी त्रासदीपूर्ण हो सकती हैं, कुशीनगर की दुर्घटना एक उदाहरण है, समाज को इससे सबक लेना चाहिए।

रेलवे प्रशासन ठोस नीति लागू करे। हर दुर्घटना के बाद रेलवे प्रशासन मुआवजा देकर पल्ला झाड़ लेता है, जितना मुआवजा वह अब तक दे चुका है, उस धन से तो सुरक्षा के इंतजाम बेहतर बना सकता था। हादसों के बाद जनाक्रोश दिखता है लेकिन आक्रोश की आग जल्द ठण्डी हो जाती है। जिनके बच्चे अकाल के गाल में समा गए, उनके आंसू तो जीवनभर नहीं थमेंगे। मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग फिर से नए हादसे का इंतजार करेगी।

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