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कर्नाटक में न्याय की जीत!

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कर्नाटक में लोकतन्त्र को ठीक चौराहे पर खड़ा करके जिस तरह कत्ल करने का मुजाहिरा हो रहा है उसकी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है। सर्वोच्च न्यायालय ने आज जिस संजीदगी और वक्त की नजाकत को देखते हुए विधानसभा के भीतर 24 घंटे में एक दिन पहले मुख्यमन्त्री बनाए गए बी.एस. येदियुरप्पा को अपना बहुमत साबित करने का हुक्म दिया और हिदायत दी कि संसदीय परंपराओं के अनुसार परा-अस्थायी अध्यक्ष नियुक्त करके फैसला किया जाए कि जनता दल (एस) के नेता एच.डी. कुमारस्वामी के अक्सीरियत के दावे में कितना दम है उसे एक बार फिर राज्यपाल वज्जू भाई वाला ने रौंदने की कोशिश करते हुए ऐसे सदस्य के.जी. बोपैया को नियुक्त कर दिया जिसके खिलाफ खुद सर्वोच्च न्यायालय ने ही टिप्पणी की थी कि उसका विधानसभा अध्यक्ष के रूप में आचरण और व्यवहार पक्षपात पूर्ण रहा है। अतः कल यदि बोपैया की अध्यक्षता में विधानसभा की कार्यवाही हाेती है तो ये देखना बहुत रोचक होगा कि कहीं वह 2011 की तरह व्यवहार तो नहीं करते हैं।

जिसमें अगर ​बिल्ली छींके पर रखे दूध को पी न सके तो छींका ही उलट दे। यह संविधान की मर्यादा से खेलने के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली में कुछ अलिखित नियम भी होते हैं जिन्हें हम परंपरा या नजीर कहते हैं। इनका सम्बन्ध पूरी प्रणाली की शुचिता और पारदर्शिता व पवित्रता से होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने जब राज्यपाल द्वारा नियुक्त मुख्यमंत्री पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया है कि वह बहुमत का फैसला होने तक कोई महत्वपूर्ण अधिशासी फैसला नहीं ले सकते तो यह राज्यपाल के लिए भी सन्देश था कि उनके द्वारा नई सरकार बनाने के लिए येदियुरप्पा को दिया गया न्यौता संशय के घेरे में है। इसके बाद उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वह आगे जो भी फैसला करेंगे उस पर किसी को भी सवाल खड़ा करने की हिम्मत नहीं होगी।

मगर खुद संविधान का संरक्षक होने के बावजूद राज्यपाल ने परा-अस्थायी अध्यक्ष के चुनाव के जरिये न्यायालय के समक्ष ही कशमकश की स्थिति पैदा करने की कोशिश कर डाली। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि राज्यपाल न तो कोई शहंशाह होता है और न किसी विशेष राजनीतिक दल का खैरख्वाह बल्कि वह जनता का सेवक होता है और उस राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है जिसका चुनाव हर पांच साल बाद देश की जनता ही परोक्ष रूप से करती है। उसका हर कदम संविधान की सत्ता को प्रतिष्ठापित करता है न किसी राजनीतिक दल की सत्ता को। अतः यह जरूरी था कि परा-अस्थायी अध्यक्ष का चुनाव करते समय उन्हें आंखें मींच कर विधानसभा के सबसे वरिष्ठ सदस्य का उसी तरह चुनाव करना चाहिए था जिस प्रकार 2014 में मोदी सरकार के काबिज होने पर कांग्रेस पार्टी के नेता श्री कमलनाथ का लोकसभा के अस्थायी अध्यक्ष के रूप में किया गया था।

उस पर किसी ने अंगुली तक नहीं उठाई थी इससे पहले भी कभी एेसा कोई मसला पूरे देश में पेश नहीं आया। यह स्वयं में आश्चर्यजनक है कि राज्यपाल अपने निर्णयों से राज्य के लोगों द्वारा दिए गए फैसले का सम्मान करने में क्यों हिचक रहे हैं जबकि उनकी पहली जिम्मेदारी बहुमत की रोशनी में जनादेश का पालन करने की है। कर्नाटक की जनता का स्पष्ट जनादेश है कि कोई भी राजनीतिक दल अकेले अपने बूते पर सरकार नहीं बना सकता है। बेशक भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है मगर वह बहुमत से इस तरह दूर है कि बिना कांग्रेस व जनता दल (एस) के सदस्यों को तोड़े बिना वह अपना बहुमत साबित नहीं कर सकती।

एेसा करते ही एक पार्टी से दूसरी पार्टी के पाले में जाने वाले सदस्यों पर दल-बदल कानून लागू हो जाएगा। इसका मतलब यही है कि दल बदलने वाले सदस्य स्थापित कानून को तोड़ेंगे। अपनी आंखों के सामने कानून तोड़ने की मोहलत कोई भी राज्यपाल किस तरह दे सकता है जबकि उसके सामने चुनाव आयोग ने पूरी फेहरिस्त रख दी है कि जिन 222 स्थानों के लिए चुनाव हुए थे उनमें से 78 पर कांग्रेस, 38 पर जनता दल (एस) और 104 पर भाजपा और दो पर निर्दलीय विजयी हुए हैं। भाजपा नेता येदियुरप्पा तभी सरकार बना सकते हैं जब वे दूसरी पार्टी के सदस्यों को दल–बदल कानून तोड़ने के लिए उकसाएं। जाहिर है इसके लिए अवैध तरीके ही इस्तेमाल किए जाएंगे। इन्हें रोकने के लिए अस्सी के दशक में राजीव गांधी के कार्यकाल में दल-बदल कानून लाया गया था और उसमें पुनः संशोधन अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में किया गया। (हालांकि इसमें अब भी कई त्रुटियां हैं) क्या यह सब व्यर्थ की कवायद थी? राज्यपाल को यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड के राज्यपालों द्वारा किए गए नाजायज कामों को किस तरह सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय ने निरस्त किया था?

यह जिद्द लोकतन्त्र में नहीं चल सकती कि संविधान की कोई भी अपने हिसाब से व्याख्या कर सके। इसके लिए हमारे विद्वान व दूरदर्शी पुरखों ने सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया था। उसे आंखें दिखाने का काम करने की छूट किसी को नहीं है। यह भारत का संविधान ही है जिसने राज्यपालों को यह अधिकार तक दिया है कि वे किसी भी राज्य सरकार के कार्यकलापों पर तीखी नजर रखें और सुनिश्चित करें कि लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार संविधान के रास्ते पर चल रही है या नहीं। मगर जब कभी भी किसी राज्यपाल ने इसके विपरीत राह पर जाने की कोशिश की है तो उसका हश्र आंध्र में राज्यपाल रहे ठाकुर राम लाल या हरियाणा में राज्यपाल रहे जी.डी. तपासे जैसा हुआ है अथवा ताजा उदाहरण झारखंड के राज्यपाल रहे सैयद सिब्ते रजी का है। दूसरी तरफ वर्तमान राष्ट्रपति​ रामनाथ कोविन्द का भी है जो बिहार में राज्यपाल इस तरह रहे कि उनकी विरोधी पार्टी के लोग भी उनकी तारीफ करते थे।

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