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हिंसक समाज आैर सियासत

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क्या राष्ट्र अतिवाद की चपेट में आ रहा है? क्या देश के लोगों की मानसिकता हिंसक हो रही है? क्या भारत असहिष्णु हो रहा है? अगर देशभर में भीड़ द्वारा लोगों को पीट-पीटकर मारने की बढ़ती घटनाओं को देखें तो ऐसे बहुत से सवाल उठने स्वाभाविक हैं। समाज में जब आपसी संवाद खत्म हो जाता है तो समाज निष्ठुर हो जाता है। कुछ दिन पहले असम में दो प्रतिभाशाली युवाओं काे बच्चा चोर होने की आशंका में लोगों ने पीट-पीटकर मार डाला गया था कि अब झारखंड के गोड्डा जिले में ग्रामीणों की भीड़ ने दो युवकों की पीट-पीटकर हत्या कर दी। मरने वाले अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले चिरागुद्दीन अंसारी और मुर्तजा अंसारी थे। ग्रामीणों ने मृतकों पर पशु चोर होने का आरोप लगाया है। परिवार वाले कहते हैं कि वह पशु चोर नहीं थे बल्कि पशुओं का व्यापार करते थे।

पूर्व की घटनाओं की तरह इस घटना पर भी सियासत शुरू हो गई है। राजनीतिक दल इस घटना को ईद के मौके पर अशांति फैलाने की साजिश मान रहे हैं। कुछ कह रहे हैं कि अल्पसंख्यकों के साथ इन्साफ नहीं हो रहा है। हैरानी की बात तो यह है कि देश के कई राज्यों में बच्चा चोर और पशु चोर होने की भ्रामक अफवाहें कौन फैला रहा है? असम की घटना की शुरूआती जांच में पाया गया कि बच्चा चोर गिरोह के सक्रिय होने की अफवाह सोशल मीडिया पर फैलाई गई और वह भी असम के भीतर से नहीं बल्कि पड़ोसी राज्य से फैलाई गई। ऐसी घटनाओं को साम्प्रदायिक रंग देना उचित नहीं, फिर भी ऐसा किया जाता है। देश के वातावरण को विषाक्त बनाने का काम भी राजनीतिक दल ही कर रहे हैं। हर समाज, राष्ट्र की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएं होती हैं लेकिन इसमें भी भारतीयता का अपना वह अलग स्थान है जिसकी समूचे विश्व में विशेष पहचान है। सदियों की इस मान्यता को भले ही कुछ विदेशी लोगों ने स्वयं की श्रेष्ठता का दावा करते हुए समाप्त करने की तमाम कोशिशें कीं लेकिन वे खुद इतिहास की सामग्री बन गए।

भारतीयता की विलक्षणता है कि उसकी जीवंतता अक्षुण्ण है, अविजित है। हालांकि यह भी सही है कि प्रायः हम स्वयं की पहचान को भूलते जा रहे हैं। समाज ने नयापन अपनाया। नई-नई प्रौद्योगिकी को अपनाया। समाज सोशल मीडिया से तो जुड़ गया लेकिन उसने आपसी संवाद को समाप्त कर दिया। नयापन किसे आकर्षित नहीं करता लेकिन इसी आपाधापी और प्रतिस्पर्धा के युग में दया, करुणा, संवेदनशीलता आैर सहिष्णुता का कोई भाव नहीं बचा। ऐसा लगता है कि करुणामयी भारत का मानव विद्रोही होता जा रहा है जो केवल एक अफवाह के चलते मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। अफवाह की बात तो छोड़िये, यहां तो वाहनों की मामूली टक्कर या रोडरेज में हत्याएं हो रही हैं। देश के युवाओं का समाज से कोई खास रिश्ता नहीं रहा। वह नई प्रौद्योगिकी के जाल में उलझ चुका है। उसकी अंगुलियां मोबाइल पर ही चलती हैं, इंटरनेट की दुनिया में उलझ चुके लोगों की अपनी दुनिया है।

संवेदन शून्य हो चुके समाज से आप उम्मीद भी क्या कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में एक अजीब सा वातावरण सृजित हो रहा है जिसमें हर कोई खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। किसी को गौमांस खाने की आशंका में पीट-पीटकर मार डाला जाता है तो किसी की गौवध की आशंका में हत्या कर दी जाती है। महिलाओं को डायन मानकर मार डाला जाता है तो किसी का बच्चा चोर और पशु चोर मानकर कत्ल कर दिया जाता है। सभ्य और सुसंस्कृत समाज में ऐसी हिंसा को सहन नहीं किया जा सकता। पिछले कुछ समय से अ​सहिष्णुता को लेकर काफी बातें हो रही हैं लेकिन यह बातें कभी गम्भीर बहस का रूप नहीं ले पातीं क्योंकि इसकी जगह बेसिर-पैर के आरोप-प्रत्यारोप लेने लग जाते हैं। कोरी बयानबाजी होती है, सियासतदान अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं, तर्कों के स्थान पर कुतर्क गढ़े जाते हैं। समाज के बीच रहकर काम करने वाले राजनीतिज्ञ बहुत कम रह गए हैं।

जमीन से जुड़े और समाज से निरंतर संवाद करने वाले लोग अब दिखाई नहीं देते। बेहतर होता राजनीतिज्ञ समाज से निरंतर संवाद कायम कर शंकाओं का निवारण करते लेकिन वह तो आज भी हिन्दू-मुस्लिम, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यकवाद में फंसे हुए हैं। जरूरत है समाज की मानसिकता को पढ़ने की, उसका अध्ययन करने की। समाज को करुणामयी बनाने के लिए कौन-सा व्यक्तित्व सामने आएगा? कुछ नहीं कहा जा सकता। समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए युवा नेतृत्व को स्वयं आगे आना होगा। ऐसा समाज जो खुद भीड़ बनकर किसी को सजा न सुनाए बल्कि कानून का शासन हो। अगर ऐसी घटनाएं जारी रहीं तो राष्ट्र में अराजकता फैल जाएगी।

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