वर्तमान राजनीतिक माहौल को देखकर यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि गुजरात में हो रहे विधानसभा चुनाव असाधारण हैं और इसके परिणाम का प्रभाव पक्के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति को अपने कब्जे में समेट कर ही रहेगा। इसके साथ यह भी निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गुजरात की जनता के तेवरों की वजह से ही राजनीतिक दलों में बदहवासी पैदा हो रखी है। यह बदहवासी ही गुजरात की जमीनी हकीकत को खुद बयान कर रही है। यह बदहवासी बता रही है कि इन चुनावों के बाद भारत के राजनीतिक एजेंडे के वे आधार वाक्य बदल सकते हैं जिन पर पिछले पांच सालों से लगातार भारत के आम आदमी का भाग्य बदलने या बनाने की बात हो रही है। हालांकि एक राज्य के ही चुनाव हैं मगर स्वयं देश की सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने इनका दायरा बहुत फैला कर राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने का जोखिम उठा लिया है।
इसकी मुख्य वजह यही है कि लोकसभा चुनावों में अब एक साल से कुछ ज्यादा का समय ही बचा है। अतः गुजरात में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा रैलियां सम्बोधित करने का नया रिकार्ड बनाने पर आश्चर्यचकित होने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह उनकी राजनीतिक रणनीित भी हो सकती है। इसके अलावा राज्य स्तर पर भाजपा के पास कोई ऐसा नेता भी नहीं है जो लोगों में अपनी पार्टी के कार्यक्रम पर विश्वास दिला सके। दूसरी तरफ पिछले 22 वर्ष से राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा को गंभीर चुनौती दे रही विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस मोर्चे पर ज्यादा मजबूत दिखाई नहीं पड़ती आैर वह भी अपने नेता श्री राहुल गांधी पर ही निर्भर करती है परन्तु फर्क केवल इतना है कि कांग्रेस पार्टी इन चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे उठाने के साथ–साथ ही गुजरात मूलक एेसे विषय उठा रही है जिनका सीधा सम्बन्ध केन्द्र की नीतियों से है, मसलन नोटबन्दी और जीएसटी शुल्क व्यवस्था तथा बढ़ती बेरोजगारी।
इनका जवाब भाजपा गुजराती अस्मिता और राष्ट्रीय गौरव व विकास के अपने पैमाने से देने की कोशिश कर रही है। यदि वाजिब तरीके से बिना लाग–लपेट और पूरी निष्पक्षता के साथ कहा जाये तो इन चुनावों का एजेंडा राहुल गांधी ने जमीनी हकीकत का अन्दाजा करके लगभग तय कर दिया है और उस पर भाजपा को अब जवाब देना है। प्रधानमन्त्री द्वारा बेहिसाब रैलियां सम्बोधित करने का सबब भी यही लगता है कि वह चुनावी एजेंडे को बदलना चाहते हैं और अपनी पार्टी की विजय सुनिश्चित करने के लिए उन्हीं विषयों को केन्द्र में लाना चाहते हैं जिनके बूते पर भाजपा देश भर में जीतती रही है, मसलन उनके मुख्यमन्त्री रहते गुजरात में हुआ विकास का माडल जिसका जिक्र उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों में पूरे देश में बहुत गर्व के साथ किया था मगर राहुल गांधी इसी विकास के माडल को अपने निशाने पर लिये हुए हैं और प्रचार कर रहे हैं कि यह कैसा विकास का माडल है जिससे राज्य में बेरोजगारी में लगातार इजाफा होता चला गया है? इसका मतलब यही है कि राहुल गांधी देश के उस समग्र राजनीतिक एजेंडे को बदल देने की मुिहम पर हैं जो भाजपा को चुनावी विजय दिलाने में सहायक रहा है। वह यह एजेंडा आर्थिक नीतियों के इर्द–गिर्द तय करना चाहते हैं। इसकी भी खास वजह है कि कांग्रेस को चुनावों में हमेशा तभी विजय मिली है जब राजनीति के केन्द्र में आर्थिक मुद्दे रहे हों।
इन आर्थिक मुद्दों में जातिगत व साम्प्रदायिक आधार पर बंटे भारतीय समाज को समरसता के धागे में बांधने की अभूतपूर्व क्षमता है परन्तु इसके साथ ही राष्ट्रवाद भी एेसा ही एजेंडा है जो समग्र समाज को एक धागे में बांधने की क्षमता रखता है, यह भाजपा के लिए आक्सीजन का काम करता रहा है परन्तु इसकी कुछ सीमाएं हैं जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को अनचाहे ही फैला देती हैं मगर समाज पर फौरी तौर पर जादुई असर करती हैं। चुनावों में हार-जीत मुख्यतः इस तथ्य पर निर्भर करती है कि आम मतदाता किस राजनीतिक विमर्श को अपना एजेंडा बनाता है। उसे पद्मावती का कथित गौरव गान चाहिए या अपने खेतों में पैदा हुई उपज का वाजिब व लाभकारी दाम, उसे अपने ही देश में व्यापार करने की सुगमता चाहिए या विदेशी कम्पनियों के लिए भारत के बाजारों में पैठ बनाने की सरलता का सिद्धान्त, क्योंकि लोकतन्त्र हर कदम पर अपने उन नेताओं की पैमाइश करता रहता है जिसे चलाने का जिम्मा देने के लिए वह नेताओं का चुनाव पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरफ करता है। दोनों पक्षों द्वारा एक–दूसरे की की जा रही आलोचना का विश्लेषण अगर कोई करता है तो वे खुद को राजनीतिक पंडित कहलाये जाने वाले लोग नहीं होते हैं बल्कि वह मुफलिस और फटेहाल मतदाता है जो इसी लोकतन्त्र को सदैव जीवन्त बनाये रखने की कसम खाये रहता है। उसकी अक्ल को जो लोग कमतर करके आंकते हैं वे अपने ही बनाये हुए संसार में अक्सर भटक जाते हैं।
इसमें मीडिया की भूमिका सिवाय तमाशबीन के दूसरी हो ही नहीं सकती क्योंकि यह अपने बुने हुए जाल में मछलियां फंसाने के सिद्धान्त को फैलाते हुए चलने की भूल करता है। यदि एेसा न होता तो इसी वर्ष के शुरू में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पंजाब में कांग्रेस न जीतती और उत्तर प्रदेश में भाजपा? मीडिया तो पंजाब में आम आदमी पार्टी को छप्पर फाड़ कर सीटें दे रहा था और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस–समाजवादी गठबन्धन को भाजपा के सामने कांटे की टक्कर पर रख रहा था। यह वही गरीब और कथित अनपढ़ मतदाता ही होता है जो लोकतन्त्र में अपने विजयी होने का शंख फूंक कर बड़े-बड़े ताज-ओ-तख्त पर खुद जा बैठता है। उसके इस इरादे को कोई बदल दे यह लोकतन्त्र में संभव ही नहीं है। मतदाता तो उस शह का नाम है जिसके आगे राजनीतिक दल बच्चों जैसी हरकतें करते रहते हैं।