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हम सब हैं हिन्दोस्तानी

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भारत ने वह दौर भी देखा है जब 18वीं शताब्दी में अहमद शाह अब्दाली ने अमृतसर के पवित्र ‘श्री हरमन्दिर साहिब’ को गौरक्त से भर दिया था। इसने वह दौर भी देखा है जब इससे पहले की सदी में शहंशाह शाहजहां के शासनकाल के दौरान गुजरात के हुक्मरान शहजादे औरंगजेब ने एक ‘जैन मन्दिर’ के भीतर गौकशी करवा कर उसे गौरक्तसे नहला दिया था मगर तब शहंशाह ने दिल्ली के ‘तख्ते ताऊस’ से हुक्म जारी करके उसकी इस हरकत का तुरन्त हर्जाना भरते हुए फिर से मन्दिर को पवित्र करा कर जैनियों को सौंप दिया था मगर औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब मुगलिया सल्तनत खोखली होने लगी तो भरतपुर के ‘जाट महाराजा सूरजमल’ ने दिल्ली और आगरा पर चढ़ाई करके मुगल सल्तनत से इकरारनामा लिखवाया कि वह मुगलों को दिल्ली की हदों तक महदूद तभी तक रहने देंगे जब उनके सन्धि प्रस्ताव पर शहंशाह अपनी मुहर लगायेगा और अहद करेगा कि मुगल सैनिक न तो गाय का वध करेंगे और न ही पीपल और बड़ के पेड़ काटेंगे। यह सन्धि 1746 में हुई थी।

मेरा इतिहास की परतें खोलने का कोई इरादा नहीं है। केवल इतना मन्तव्य है कि गाय का इस देश के हिन्दुओं के लिए महत्व अपनी ‘हुकूमतों’ तक को कुर्बान करने का रहा है। यह बेवजह नहीं था कि महमूद गजनवी जब गुजरात के ‘सोमनाथ मन्दिर’ को लूटने के लिए आया करता था तो अपनी फौजों के आगे गायों के रेवड़ों रखकर चलता था क्योंकि वह जानता था कि हिन्दू गाय पर अस्त्र से वार नहीं कर सकते मगर इसके साथ ही तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इस देश के मुसलमानों ने मुगलिया सल्तनत (औरंगजेब को छोड़कर) तक के दौर में हिन्दुओं की गाय के प्रति भावनाओं का आदर किया मगर जब अंग्रेजों की ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ ने बंगाल के ‘नवाब सिरौजुद्दौला’ को हराकर भारत में बाकायदा अपना सिक्का ‘लगान वसूली’ में हिस्सा मुकर्रर करके जमाया तो उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने के लिए गाय को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और अंग्रेज फौजी अफसरों की ‘बीफ’ की क्षुधा को शान्त करने के लिए बंगाल में 1776 के करीब पहला बूचडख़ाना खोला गया।

जैसे-जैसे भारत में अंग्रेज कम्पनी बहादुर का शासन फैलता चला गया वैसे-वैसे ही भारत में बूचडख़ानों की संख्या बढ़ती चली गई और हद यह हो गई कि 1857 के आते-आते अंग्रेजों ने बन्दूक के कारतूसों का खोल गाय की चर्बी से ही बनाना शुरू कर दिया मगर उस दौरान के भारत की स्वतन्त्रता के लिए सभी देशी रियासतों को एकजुट करने की मुहिम पर निकले इतिहास के हाशिये पर डाले गये ‘मौलवी अहमद शाह’ ने कम्पनी सरकार की फौज में कार्यरत मुसलमान फौजियों को यह सन्देश देकर आजादी के जज्बे को और तेज कर दिया कि कारतूस में सूअर की चर्बी का इस्तेमाल भी होता है जो मुसलमानों के लिए अस्पृश्य है (स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम-1857 में इसका वर्णन किया है) अत: यह समझा जाना जरूरी है कि भारत में गौहत्या को जारी रखने में अंग्रेजों ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इस हद तक निभाई कि मुगलिया सल्तनत का अन्त हो जाने के बाद जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत की सल्तनत को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को 1860 के करीब बेचा तो मुसलमानों को बकरीद पर गौहत्या करने को बढ़ावा दिया।

इसका जब विरोध हुआ तो उन्होंने ईद के मौके पर मस्जिद के सामने सांकेतिक रूप से गौकशी को कानूनी तक करार दे दिया मगर देखिये भारत की खूबसूरती कि इसी दौरान कश्मीर के लोगों ने अपनी मर्जी से गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया। इसकी वजह यह नहीं थी इस रियासत में हिन्दू राजा ‘गुलाब सिंह’ का तब शासन था बल्कि कारण यह था कि इस रियासत की संस्कृति हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे से सराबोर थी (आज की इसकी हालत पर तरस आता है) अत: आज 21वीं सदी में भी यदि लोकतान्त्रिक भारत में गौहत्या के नाम पर मुसलमान नागरिकों के साथ बेइंसाफी की जाती है और उन्हें इसके नाम पर हलाक किया जाता है तो यह ‘हिन्दोस्तानियत’ के कत्ल के अलावा और कुछ नहीं है। हमने आजादी मिलने पर जिस संविधान को खुद अपने ऊपर लागू किया है उसमें साफ लिखा हुआ है कि इस देश का निजाम सिर्फ और सिर्फ कानून से चलेगा। सरकारें आती-जाती रहेंगी मगर कानून अपनी जगह मुस्तकिल रहेगा। हमारे पुरखों ने यह निजाम भारत की विविधता को ध्यान में रखते हुए इस तरह किया था कि हर सूबे को अपने इलाके में कानून को लागू करने की पुर अख्तियारी मिले, हर हिन्दू-मुसलमान उसका पाबन्द हो मगर कुछ लोग वहशीपन में डूब जाना चाहते हैं और गौहत्या के नाम पर कानून को बरतरफ करके अपनी दरोगाई छांटना चाहते हैं।

हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम ‘पाकिस्तान’ नहीं हैं जिसे तामीर करने के लिए 10 लाख लोगों का खून बहाकर उससे ‘मीनारे पाकिस्तान’ बनाई गई थी बल्कि हम ‘हिन्दोस्तान’ हैं जिसकी हिफाजत में ‘ब्रिगेडियर उस्मान’ सरीखे जांबाजों ने अपना ‘खून’ बहाया है इसलिए जरूरी है कि हम खुद को पहचानें और अपने ‘वकार’ को हासिल करें और ऐसे गुंडों को कानून के दरवाजे पर ले जाकर खड़ा करें जो गौसंरक्षण के नाम पर इंसानों का कत्ल करते हैं। मगर इस वहशत का फायदा उन लोगों को उठाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती जो इसे ‘सियासी रंग’ देकर अपनी ‘नेतागिरी’ चमकाना चाहते हैं। हम तो वह मुल्क हैं जहां अवध के नवाब ने अपना शाही निशान बनाया तो उसमें ‘मछली’ के साथ भगवान राम के ‘धनुष बाण’ को भी रखा। हम दुनिया के वह अजीम मुल्क हैं जहां ईसाई धर्म यूरोप में भी पहुंचने से पहले केरल में आया और इस्लाम के अरब में फैलने के साथ ही केरल में पहली मस्जिद तामीर की गई। ऐसी पवित्र धरती को अंग्रेजों ने बांटने में सफलता जरूर हासिल कर ली मगर आज भी पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान भारत में ही रहते हैं। ऐसी सरजमीं पर सजदा करने का किसका दिल नहीं चाहेगा। यही मुल्क है जिसके शहंशाह बहादुर शाह जफर ने जेल की दीवारों के भीतर से यह हुंकार भरी थी कि:
गाजियों में ‘बू’ रहेगी जब तलक ‘ईमान’ की,
तख्ते लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दोस्तान की।

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