लोकतन्त्र किस तरह ऊसर भूमि पर भी अपने बीच से ‘पौध’ को ‘वृक्ष’ में बदलता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण श्री अहमद पटेल हैं। गुजरात से राज्यसभा की सदस्यता के प्रत्याशी कांग्रेस नेता श्री पटेल के बारे में आज हिन्दोस्तान का बच्चा-बच्चा पूछ रहा है कि गुजरात में यह कौन सा दूसरा पटेल पैदा हो गया है। आश्चर्यजनक रूप से इसका श्रेय उनकी पार्टी कांग्रेस को नहीं दिया जा सकता। यह सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ही है जिसने उन्हें राष्ट्रीय फलक पर पहचान अता की है। इससे पहले उनकी छवि अपनी पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के ऐसे राजनैतिक सलाहकार की थी जो अपनी पार्टी के प्रबन्धन व संचालन में मुख्य भूमिका निभाता था।
पिछले चार बार से राज्यसभा के सदस्य रहने के बावजूद अहमद पटेल को गुजरात से बाहर कम लोग ही जानते थे किन्तु 8 अगस्त को गुजरात से तीन राज्यसभा सदस्यों के होने वाले चुनाव ने उन्हें अखिल भारतीय नेता बना दिया है। मेरे इस तर्क से कुछ विद्वान असहमत हो सकते हैं मगर राजनीति वह शह है जो संकट के समय ही नेताओं को पैदा करती है। इसका उदाहरण हमने बिहार में भी देखा। एक राजनीतिक संकट ने किस तरह इस राज्य के कल तक पिता के लाडले की छवि में कैद लालू जी के पुत्र तेजस्वी यादव को बिहार का प्रतिष्ठित नेता बना डाला, वह बिहार विधानसभा में पिछले 40 सालों से राजनीति में सक्रिय मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार के विरुद्ध परिपक्व राजनीतिज्ञ के रूप में उभरे। लोकतन्त्र की खासियत यह होती है कि यह राजनीतिक सत्ता के साये में नहीं बल्कि लोकसत्ता के साये में बोलता है। यदि ऐसा न होता तो 2014 के लोकसभा चुनावों में श्री नरेन्द्र मोदी को इस देश के लोग दिल खोलकर समर्थन न देते। गुजरात से राज्यसभा चुनावों के लिए जो कसरत हो रही है उसका संज्ञान इस देश के लोग न लें, यह संभव नहीं है।
सवाल भाजपा या कांग्रेस का बिल्कुल नहीं है बल्कि लोक-लज्जा से चलने वाले लोकतन्त्र का है जो संवैधानिक ढांचे और व्यवस्थाओं के प्रति नतमस्तक होकर जनमत का सृजन करता है। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि जब 1984 में भाजपा की लोकसभा में केवल दो सीटें ही रह गई थीं और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता तक चुनाव हार गये थे तो उन्हें राज्यसभा में लाने के लिए स्वयं सत्ताधारी पार्टी ने मदद की थी, इसी प्रकार कांग्रेस के डा. कर्ण सिंह को भी राज्यसभा में लाने के लिए विपक्ष ने मदद की थी हालांकि उन्होंने लखनऊ से ही लोकसभा चुनाव में श्री वाजपेयी की मुखालफत की थी, बेशक लोकतन्त्र नम्बर का खेल समझा जाता है मगर इन नम्बरों के खेल में भी व्यक्तिगत योग्यता को बराबर का सम्मान प्राप्त होता है। गुजरात कांग्रेस में यदि इसके नेता शंकर सिंह वाघेला के विद्रोह से श्री अहमद पटेल के हारने की परिस्थितियां पैदा हो रही थीं तो उन्हें वैसा ही छोड़ दिया जाना चाहिए था।
अपनी हार के लिए वह स्वयं जिम्मेदार होते और पूरे देश में सन्देश जाता कि कांग्रेस पार्टी स्वयं ही अपने अन्तर्विरोधों से मर रही है परन्तु उनके चुनाव को लेकर विपक्षी कांग्रेस ने उल्टे भाजपा को ही निशाने पर ले लिया और सन्देश दे दिया कि कांग्रेस के विधायकों को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया जा रहा है और उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है जिसकी वजह से उन्हें कांग्रेस शासित राज्य कर्नाटक में शरण लेनी पड़ रही है जबकि स्वयं कांग्रेस पार्टी का दामन ऐसे मामलों में पहले से ही दागी रहा है और उसी ने डेढ़ दशक पहले गोवा से इसकी शुरूआत की थी। विरोधी पक्ष के विधायकों से इस्तीफा कराने का फार्मूला इस पार्टी के नेता प्रियरंजन दासमुंशी ने खोजा था मगर वह अपनी पार्टी की सरकार बनाने के लिए था। पूरे मामले में चुनाव आयोग भी विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि उसने राज्यसभा चुनावों में पहली बार नोटा (कोई विकल्प नहीं) को भी लागू करने की घोषणा कर दी। इसके साथ कर्नाटक के वित्त मन्त्री शिवकुमार पर पड़े आयकर के छापे भी आ गये। पूरा माहौल ऐसा बन गया कि राज्यसभा में अहमद पटेल के पहुंचने से कोई बड़ा तूफान आ जायेगा।
यह एक नजरिया है जिसकी तस्दीक भारत की जनता बहुत पैनी नजरों से कर रही है। दूसरा नजरिया यह है कि भाजपा भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए है जिसकी वजह से श्री शिवकुमार के विरुद्ध पहले से जारी जांच को आगे बढ़ाया जा रहा है। उसके लिए कोई निश्चित समय कैसे हो सकता है मगर चुनाव प्रक्रिया शुरू होने पर चुनाव आयोग सभी गतिविधियों की कमान अपने हाथ में ले लेता है अत: मतदाता मंडल से सम्बन्धित जो भी कार्य होगा वह उसके संज्ञान में लाकर ही होगा। इसके साथ ही राज्यसभा चुनाव खुला चुनाव होता है, जो विधायक जिस पार्टी का है खुले रूप से उसी पार्टी के प्रत्याशी को वोट देता है। प्रथम वरीयता और द्वितीय वरीयता के जरिये प्रत्याशियों का चयन होता है मगर पूरे प्रकरण में एक दीगर सवाल यह भी है कि कर्नाटक में जो कांग्रेसी विधायक हैं क्या वे अपनी मर्जी से हैं? इसके साथ ही यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि केवल 6 महीने में ही गुजरात विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं जिन्हें देखते हुए कांग्रेसी विधायक इस्तीफा देकर पाला बदलने में कोई जोखिम नहीं समझ रहे थे मगर जो घटनाक्रम चल रहा है उससे लोकतन्त्र का लोकपक्ष ही लंगड़ा बनकर भ्रष्टाचार की लाठी के सहारे चलने पर मजबूर दिखाई पड़ रहा है।