फिल्मों को लेकर विवाद होना कोई नई बात नहीं। फिल्में लोगों का मनोरंजन करने के साथ कोई न कोई संदेश जरूर देती हैं, यह अलग बात है कि कुछ संदेश नकारात्मक तो कुछ सकारात्मक होते हैं। फिल्मों से समाज या वर्ग विशेष की भावनाएं आहत न हों, राजनीतिक और धार्मिक विवाद नहीं हों, इसके लिए सैंसर बोर्ड का गठन किया गया है। कुछ फिल्मों को सैंसर बोर्ड ने रिलीज से पहले तो कुछ को रिलीज के बाद बैन किया। वहीं कुछ फिल्में ऐसी भी रहीं जो कानूनी लड़ाई लड़कर प्रदर्शित हुईं। वर्तमान में युवा पीढ़ी को शायद ही इस बात की जानकारी हो कि फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को लेकर काफी विवाद हुआ था। यह फिल्म स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल पर एक व्यंग्य थी।
निर्माता-निर्देशक थे बद्री प्रसाद जोशी और अमृत नाहटा। इस फिल्म को वर्ष 1977 में सैंसर बोर्ड ने बैन कर दिया था। सत्ता इस फिल्म से इतनी आतंकित हो गई थी कि इस फिल्म के प्रिंट तक जला दिए गए थे। 1975 में एक फिल्म आई थी ‘आंधी’ जो कि इंदिरा गांधी पर आधारित थी। इस फिल्म का निर्देशन गुलजार ने किया था। इस फिल्म को सैंसर बोर्ड ने बैन कर दिया था लेकिन फिल्म के सीन काटने के बाद ही रिलीज किया गया। इसके अलावा महिलाओं के मुद्दों को छूती फिल्मों पर भी विवाद हुए। मधुर भंडारकर की फिल्म ‘इंदू सरकार’ पर भी विवाद हुआ था। भारतीय फिल्में शुरू से ही एक सीमा तक भारतीय समाज का आइना रही हैं, जो समाज की गतिविधियों को रेखांकित करती आई हैं। चाहे वह स्वतंत्रता संग्राम हो या विभाजन की त्रासदी या युद्ध हो या फिर चम्बल के डाकुओं का आतंक या अब माफिया युग। फिल्मों ने सियासत पर चोट करना भी नहीं छोड़ा।
ताजा विवाद तमिल फिल्म ‘मर्सल’ को लेकर छिड़ा है। एक फिल्म को लेकर विरोध का वातावरण क्यों बनाया गया, मुझे तो इसका कोई औचित्य नज़र नहीं आया। इससे फिल्म को और प्रचार मिला। फिल्म जबरदस्त कमाई कर रही है। इस फिल्म पर ट्विटर ने खूब प्यार लुटाया। मर्सल दक्षिण भारत की पहली ऐसी फिल्म है जिसके लिए ट्विटर ने इमोजी जारी की है। अगर आप ट्विटर पर मर्सल लिखेंगे तो फिल्म के पोस्ट की इमोजी दिखने लगेगी। तमिलनाडु भाजपा के नेता और केन्द्रीय मंत्री पी. राधाकृष्णन ने आरोप लगाया कि फिल्म मर्सल में जीएसटी और नोटबंदी पर गलत जानकारी दी गई है इसलिए इनसे जुड़े संवादों को वह हटवाना चाहते हैं। फिल्म आम फिल्मों की ही तरह बदले की कहानी है और भारत के चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के ईर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म में जीएसटी, डिजिटल पेमैंट आैर भ्रष्ट चिकित्सा व्यवस्था पर सवाल उठाए गए हैं।
फिल्म का विरोध करने पर उठे विवाद में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, फिल्म अभिनेता कमल हासन और अन्य दिग्गज कूद पड़े हैं। केन्द्रीय सत्ता से जुड़े लोग भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर फिल्म के समर्थन में संदेशों की बाढ़ आ चुकी है। लोकतंत्र में सरकार की नीतियाें को लेकर सवाल उठते रहे हैं, फिल्में भी व्यवस्था पर चोट करती रही हैं तो फिर विरोध का कई अर्थ नहीं रह जाता। फिल्म में भारत और सिंगापुर के जीएसटी की तुलना की गई है। सिंगापुर में सिर्फ 7 फीसदी ही जीएसटी लगता है, जबकि भारत में जीएसटी 0 फीसदी से 28 फीसदी तक लगता है। फिल्म में कहा गया है कि सरकार 28 फीसदी वसूलती है, क्या यह गलत है क्योंकि हमारी सरकार कई वस्तुओं और सुविधाओं पर 28 फीसदी टैक्स लेती है। फिल्म में सवाल उठाया गया है कि हमारी सरकार हमें मुफ्त में इलाज और दवा क्यों नहीं मुहैया कराती। फिल्म में यह भी कहा गया है कि सरकारी अस्पतालों में आक्सीजन के सिलैंडर नहीं होते जिससे लोगों की जान चली जाती है।
अस्पताल में आक्सीजन के सिलैंडर न होने का कारण होता है दो-दो वर्ष से कंपनी को आक्सीजन के बिल न चुकाना। क्या गोरखपुर में आक्सीजन न होने के कारण बच्चों की मौत नहीं हुई ? फिल्म में सरकारी अस्पताल में किडनी डायलिसिस के दौरान बिजली चले जाने से हुई मौतों के बारे में भी कहा गया है। फिल्म में मंदिर संबंधी संवाद पर भी आपत्ति जताई जा रही है। फिल्म अभिनेता विजय को निशाना बनाया जा रहा है। फिल्म अभिनेता कमल हासन ने तो यहां तक कहा है कि ‘‘आलोचना पर तार्किक प्रतिक्रिया दें, आलोचक को चुप न कराएं, भारत की चमक उसके बोलने से ही है।’’ फिल्म में उठाए गए सवालों से भी तीखे सवाल सोशल मीडिया पर उठाए जाते रहे हैं। लोग अपनी सोच के अनुसार सवालों पर चर्चा भी करते आए हैं तो फिर मर्सल पर महासंग्राम क्यों?
यह भी सच है कि फिल्म के कुछ संवाद भ्रामक तथ्यों पर आधारित हैं, ऐसा आभास होता है कि एक राजनीतिक दल को निशाना बनाया जा रहा है लेकिन क्या फिल्मकारों को सवाल उठाने का हक नहीं, क्या उन्हें सत्ता की अालोचना नहीं करनी चाहिए ? सवाल तो उठते रहेंगे, बेहतर यही होता कि तमिलनाडु के भाजपा नेता फिल्म में उठाए गए सवालों का उत्तर पार्टी मंच से देते। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधाएं खड़ी करना अच्छा नहीं होता। हालांकि फिल्म निर्माता विवादित अंशों को हटाने को तैयार हो गए हैं। यह उनका अपना दृष्टिकाेण हो सकता है। फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों को चाहिए कि अपनी बात तथ्यपरक ढंग से रखें और जवाब देने वालों को भी चाहिए कि वह तार्किक ढंग से अपनी बात रखें। स्वस्थ लोकतंत्र की यह खासियत होती है।