आज 27 मई है। देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि। 1964 में इस दिन उनका स्वर्गवास होने पर पूरा भारत थम-सा गया था। दुनिया के हर देश में यह महसूस किया गया कि राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर इंसानी हकों और आत्मनिर्णय के अधिकार की आवाज को सदी का मन्त्र बनाने वाले राजनेता का साया उठ गया है। पं. नेहरू के देहावसान पर सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि कई महाद्वीपों के वंचित, पीिड़त और अपनी आजादी के लिए संघर्षरत नागरिकों ने भी भारी शोक मनाया था। महात्मा गांधी के सिद्धान्तों को पकड़ कर लोकतन्त्र की जड़ें भारत में गहराई तक जमाने का चमत्कार करने वाले पं. नेहरू के निधन से समस्त एशियाई देशों की लोकतान्त्रिक ताकतों में मायूसी दौड़ गई थी। इसकी वजह यह थी कि पं. नेहरू ने अंग्रेजों द्वारा कंगाल बनाये गये भारत का विकास जिस सलीके से किया था उसके केन्द्र में देश का सबसे गरीब आदमी था और भारत की विविधता के बीच फैली सामाजिक रूढि़वादिता और पोंगापंथी मान्यताओं का खात्मा था।
उन्होंने विकास का जो ढांचा खड़ा किया वह भारत की हकीकत पर टिका हुआ था और इसकी अन्दरूनी ताकत से निर्देशित होता था। नेहरू के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि किस प्रकार केवल खेती पर निर्भर भारत को आधुनिक बनाने के वे सभी उपाय किये जाएं जिससे यह दास मानसिकता से बाहर निकलकर स्वावलम्बी और आत्मसम्मान से भरे लोगों का देश हो सके। इसके लिए उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर उद्योग, विज्ञान व सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की स्थापना इस तरीके से की कि भारत की युवा पीढ़ी में आधुनिक कहे जाने वाले देशों के समकक्ष सीना तानकर खड़े होने की कूव्वत पैदा हो सके। दुनियाभर में आज भारतीय डाक्टरों और व आईआईटी के इंजीनियरों की जो प्रतिष्ठा है वह नेहरू की दूरदृष्टि की ही देन है।
शिक्षा के बाजारीकरण के प्रति पं. नेहरू बहुत सतर्क थे और इसमें व्यापार की नीयत से प्रवेश करने वाले लोगों को उन्होंने कभी पनपने ही नहीं दिया। सर्वत्र परीक्षा तन्त्र को पूरी तरह साफ- सुथरा और पवित्र बनाने की उन्होंने जो आधारशिला रखी थी उसे आज के दौर में शिक्षा के बाजारीकरण ने पूरी तरह नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है मगर पं. नेहरू का सबसे बड़ा योगदान लोकतन्त्र की नींव भारत में जमाने का है। यह काम कोई आसान नहीं था। संविधान के अनुरूप स्वतन्त्र न्यायपालिका व कार्यपालिका और विधायिका के बीच बने सन्तुलन के तारों को कसकर बान्धने का काम आज के राजनीतिज्ञ सोच तक नहीं सकते हैं।
आज के शासकों के हाथ में एेसे भारत की रफ्तार से दौड़ती रेलगाड़ी हाथ आई है जिसकी गति में ही उन्हें बदलते परिवेश के अनुरूप अन्तर करना है। पं. नेहरू ने तो इस रेलगाड़ी को डिब्बे जोड़-जोड़ कर और उसमें शक्तिशाली इंजन लगाकर तैयार किया था। अंग्रेजों के खिलाफ स्वतन्त्रता युद्ध लड़ने वाले इस महायोद्धा ने जेल में बन्द रहकर भी भारत की चिन्ता में अपना जीवन होम करते हुए जब ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ अर्थात भारत की खोज पुस्तक अपनी पुत्री इन्दिरा गांधी को लिखे पत्रों के माध्यम से िलख डाली तो भारत के लोगों को आश्चर्य हुआ कि उनकी रहनुमाई एेसा नेता कर रहा है जिसके रोम-रोम में हिन्दोस्तान की असलियत दौड़ती है।
पूरी राजनीति अवाक् रह गई कि बड़े-बड़े इतिहासकारों के लिए नेहरू ने भारत की सन्दर्भ पुस्तक बड़े ही इत्मीनान से लिख डाली लेकिन आजकल फैशन चला है कि नेहरू की आलोचना करके अपने उथले बाजारू विचारों को प्रसारित करो और लोगों को भ्रम में डालो मगर वे लोग नादां हैं जो सोचते हैं कि भारत की उस विरासत पर लांछन लगाया जा सकता है जिसका गोशा-गोशा मुल्क के लिए कुर्बानियों का सबूत देता है। अभी तक भारत में कोई एेसा राजनीतिज्ञ पैदा नहीं हुआ है जिसके आगे दुनिया के शक्तिशाली कहे जाने वाले देशों के नेता खुद ही अपनी हैसियत को भूल जायें। यह नेहरू ही थे जिनके आगे एक तरफ अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति आइजनहावर अपनी हैसियत भूल जाते थे और दूसरी तरफ सोवियत संघ के नेता ख्रुश्चेव भारत में आकर यह एेलान करके चले जाते थे कि जम्मू-कश्मीर समस्या का कोई मायने नहीं है क्योंकि इसका विलय भारत में हो चुका है।
1955 में श्री ख्रुश्चेव ने भारत की धरती पर खड़े होकर ही एेलान किया था। पं. नेहरू वह शख्सियत थे जिन्होंने कभी इस बात की शिकायत नहीं की कि अक्तूबर 1947 में जिन शर्तों पर महाराजा हरि सिंह ने अपनी रियासत जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ में विलय किया था उसे मानने वाले वह डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे जिन्होंने बाद में इन शर्तों के खिलाफ ही जम्मू-कश्मीर में आन्दोलन चलाया। डा. मुखर्जी उस समय नेहरू मन्त्रिमंडल में उद्योग मन्त्री थे। कश्मीर विलय का फैसला पूरे मन्त्रिमंडल का फैसला था।
व्यक्तिगत आक्षेप या आरोप-प्रत्यारोप को राजनीति से बाहर रखने की ताईद पं. नेहरू की सियासत का आवश्यक अंग थी मगर आजकल केवल यही सियासत बनती जा रही है। पं. नेहरू गांव, गरीब और किसान और भारत की आन्तरिक आर्थिक ताकत के प्रति किस तरह समर्पित थे इसका उदाहरण उनके इस भाषण से मिलता है जो उन्होंने आजादी मिलने से पहले ही 3 अप्रैल 1928 को इलाहाबाद जिला परिषद (डिस्ट्रिक्ट बोर्ड) द्वारा उनका सम्मान किये जाने के अवसर पर दिया था। यह सबूत है कि वह भारत की सामाजिक बनावट की उलझी हुई परतों को किस खूबी के साथ पढ़ना जानते थे। ‘‘हम आज एेसा समाज देखते हैं जिसमंे आदमी-आदमी के बीच भारी भेद है।
एक तरफ इन्तेहा अमीरी है और दूसरी तरफ दिल दहलाती गरीबी है। कुछ लोग बिना कोई कामकाज किये ही एेश्वर्य प्रधान जिन्दगी जीते हैं तो दूसरी तरफ वे लोग हैं जो दिन से लेकर रातभर खटकर काम करते हैं और उन्हें जीवन जीने लायक जरूरी सामान भी मुहैया नहीं हो पाता। यह कैसे उचित हो सकता है? यह पूरी तरह अन्याय है। इसमें उन लोगों का दोष नहीं है जो अमीर हैं बल्कि उस व्यवस्था का दोष है जिसमें हम जी रहे हैं और इसे हमें बदलना है। यह एेसी व्यवस्था है जिसमें एक आदमी दूसरे आदमी का शोषण करके असमानता फैलाता है। हमारे देश में इतनी क्षमता है कि वह इसके हर आदमी और औरत को आराम से जीवन जीने की जरूरतों की भरपाई कर सके।
हर व्यक्ति को अपनी योग्यता के अनुसार विकास करने का अवसर उपलब्ध होना चाहिए मगर इसके लिए हमें अपनी पुरानी बेकार दकियानूसी रवायतों को छोड़ना होगा। सम्मान और योग्यता का आकलन कड़े परिश्रम की क्षमता से तय होना चाहिए न कि जाति या जन्म या अमीरी से इसलिए हममें से हरेक को एक-दूसरे को बराबरी के स्तर पर अपना भाई समझना चाहिए, न तो किसी को पूजने जैसा बनाना चाहिए और न ही किसी को दुत्कराने जैसा। हरेक की बराबरी के अधिकार के साथ इस महान देश की सम्पत्ति में साझेदारी है। मैं बहुत देशों में घूमा हूं और वहां के किसानों की हालत हमारे देश के किसानों से बहुत ही बेहतर है। कुछ में तो उन्हें एशो–आराम भी है मगर हमारे यहां भारी गुरबत है। इस गुरबत को जारी दकियानूसी रवायतों ने और भी ज्यादा बढ़ा दिया है।
हमें अपने विकास को रोकने वाली एेसी परंपराओं को छोड़ देना चाहिए। हमारी जिला परिषदें सरकारों के पास अनुदान के लिए जाती हैं मगर क्या आपने कभी सोचा है कि पूरी सरकारी मशीनरी गांवों और इसके लोगों से उगाहे गये राजस्व से ही चलती है। सेना से लेकर वायसराय और बड़े अफसरों की तनख्वाहें इन्हीं गांवों के लोगों से वसूले गये धन की बदौलत ही चलती हैं। यहां तक कि हमारे शहर भी गांवों की कीमत पर ही चलते हैं और बदले में ग्रामीणों को क्या मिलता है? गांवों में शिक्षा के साधन नाममात्र के हैं, स्वास्थ्य और सफाई की सुविधाएं न के बराबर हैं। इसलिए आपका सारा धन ले लिया जाता है और जब आप सरकार से मांगते हैं तो थोड़ा-सा दे दिया जाता है। दूसरे देशों की मान्यता है कि वही देश मजबूत होता है जिसके लोग स्वस्थ व शिक्षित हों।’’ नेहरू का बयान एेलान करता है कि उन्होंने जिस आधुनिक भारत की नींव 1947 में रखी उसका लक्ष्य इस देश के लोगों को मजबूत बनाना था।