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देशभर में बवाल क्यों मचा?

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वही हुआ जिसकी आशंका थी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गत 20 मार्च को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न रोकथाम) कानून 1989 के प्रावधानों को नरम बनाए जाने के विरुद्ध दलित संगठनों द्वारा आहूत बन्द के दौरान हिंसा से समाज की एक और विद्रूपता सामने आ गई। कहीं हिंसक झड़पें, कहीं गुट संघर्ष तो कहीं पुलिस फायरिंग। दलित समाज ने सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किए, ट्रेनें रोकीं, टायर जलाकर ट्रैफिक रोका। हिंसा के तांडव में 7 लोगों की जान चली गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए। यह आंदोलन था या उपद्रव, इसे समझने की जरूरत है। जब केन्द्र सरकार ने भारत बन्द के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट में रीपिटीशन याचिका डाल दी थी तो फिर बन्द के हिंसक हो जाने का कोई कारण नहीं था। आखिर लोगों ने सड़कों पर उतरकर बवाल क्यों मचाया? भारत बन्द को कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, माकपा, झामुमो और अन्य राजनीतिक दलों का समर्थन मिला था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि बिना जांच-पड़ताल के एससी/एसटी एक्ट के तहत न तो मुकद्दमा दर्ज होगा आैर न ही गिरफ्तारी हो सकेगी। कोर्ट के इसी फैसले का दलित संगठन विरोध कर रहे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब सामाजिक मुद्दों पर बनाए गए कानूनों के दुरुपयोग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट को आगे आना पड़ा है। इसमें संदेह नहीं कि भारत में कानून तो बहुत हैं और उनका दुरुपयोग भी होता रहा है।

दहेज विरोधी कानून हो या घरेलू हिंसा रोकथाम कानून, इनका दुरुपयोग इस देश में काफी हुआ। कारण कुछ भी रहे हों, वधू पक्ष वाले दहेज कानून के तहत मुकद्दमा दर्ज करवाते आैर दबाव बनाने के लिए ससुराल पक्ष से जुड़े सम्बन्धियों के नाम भी लेते रहे हैं। कानून के तहत पुलिस के पास एक ही हथियार होता था कि उन सबको पकड़कर जेल में डाल दो। कानून के दुरुपयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दहेज कानून की धारा 498ए को लेकर भी टिप्पणी की थी। वास्तव में कानून पीड़ितों की मदद के लिए बनाए जाते हैं लेकिन नेक मकसद को भुलाकर कानून का दुरुपयोग शुरू हो जाए तो फिर कानून का औचित्य ही नहीं रह जाता। महाराष्ट्र सरकार में तकनीकी शिक्षा निदेशक डा. सुभाष काशीनाथ महाजन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग हुआ है तो उसने अपना फैसला सुनाया। कानून का तकाजा भी यही है कि भले ही सौ गुनाहगार बच जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा न हो, इसीलिए शीर्ष अदालत ने यह व्यवस्था दी।

इस मुद्दे पर सरकार के भीतर भी विरोध के स्वर उठे। बहराइच से भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले, केन्द्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचन्द गहलोत, लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख और केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान, रिपब्लिकन पार्टी के प्रमुख आैर सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री रामदास अठावले आैर राजग से जुड़े एससी/एसटी सांसदों ने इस फैसले का विरोध किया तब जाकर केन्द्र सरकार ने शीर्ष अदालत का द्वार खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ही सियासत शुरू हो गई थी। केन्द्र सरकार को दलित विरोधी करार दिया जाने लगा। दलित वोट बैंक की सियासत करने वाले राजनीतिक दलों ने कहा कि एक्ट के प्रावधान नरम किए जाने से दलितों पर होने वाले अत्याचार बढ़ जाएंगे और उन्हें मिलने वाले न्याय की उम्मीद और कम हो जाएगी। सभी दलों को 2019 के लोकसभा चुनाव ही दिखाई दे रहे हैं। लिहाजा सियासत को कौन रोक सकता है। दलित हितों के मुद्दों को उछाल कर दलित वोट बैंक के ध्रुवीकरण के प्रयास शुरू हो गए हैं। सवाल उठाया जा रहा है कि जिस सामाजिक बुराई पर काबू पाने के लिए कड़े संघर्ष के बाद कानून लाए गए थे, कहीं ये बुराइयां फिर से सर न उठाने लगें। दरअसल सख्त कानूनों के बावजूद सामाजिक समस्याएं अब तक बरकरार हैं। आपको कई ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे कि दलितों के साथ समाज कैसे व्यवहार करता है।

उच्च जातियों को मजदूरी करता दलित स्वीकार है लेकिन अफसर बनने वाला या कारों में घूमने वाला दलित स्वीकार नहीं। अभी तक दलित दूल्हे के घोड़े पर सवार होने पर हत्याएं हो रही हैं। दूसरा पहलू कानून के दुरुपयोग का है। पिछले कुछ समय से ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है ताकि मोदी सरकार की छवि द​िलत विरोधी बनाई जा सके। समस्या काफी गंभीर है। कानून तो बना था कमजोर आैर सदियों से दमन का शिकार लोगों को बराबरी, सम्मान, इन्साफ आैर आत्मविश्वास देने के लिए लेकिन कानून जातिगत विद्वेष बढ़ाने वाला नहीं होना चाहिए। अब गेंद सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है। समय-समय पर कानूनों की समीक्षा होती रही है। यह कोई नई बात नहीं, लेकिन हर बार परिणाम एक नए विद्रूप में दिखा है। सबसे बड़ी समस्या है जाति। जातियां ही सामाजिक जीवन में विघटन और बिखराव लाती हैं। राजनीतिक दलों को ऐसा वातावरण बनाने के लिए काम करना होगा ताकि दलितों को प्रताड़ित करने वाली ताकतों का दुस्साहस नहीं बढ़े आैर भारतीय समाज में जातिमुक्त व्यवस्था स्थापित की जाए। जिस दिन राम मनोहर लोहिया का जातिमुक्त समाज का सपना पूरा हो जाएगा, सभी समस्याओं का अन्त हो जाएगा। सामाजिक समस्याओं को ठीक करने के लिए कानून से ज्यादा समाज को सशक्त बनाने की जरूरत है। सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के लिए समाज को जागरूक करना होगा।

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