दिल्ली विधानसभा के सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी (आप) के 20 विधायकों को चुनाव आयोग द्वारा अयोग्य घोषित करने पर ज्यादा आश्चर्य इसलिए नहीं होना चाहिए कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2016 में ही फैसला सुना दिया था कि इन विधायकों को मार्च 2015 में दिल्ली का मुख्यमन्त्री बनने के बाद जिस तरह श्री अरविन्द केजरीवाल ने संसदीय सचिव बनाया था, वह अवैध था। दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने अपने विजयी विधायकों को संसदीय सचिव पद की जिस प्रकार थोक में रेवडि़यां बांटी थीं वह निश्चित रूप से विशुद्ध पलायनवादी सोच थी क्योंकि आम आदमी पार्टी दिल्ली में भ्रष्टाचार व व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर चुनकर आयी थी मगर पिछले दरवाजे से मुख्यमन्त्री ने अपने विधायकों को एेसे लाभ के पदों पर बिठाने में लज्जा महसूस नहीं की जिससे उनकी सत्ता की अकड़ पूरी हो सके मगर जब इन नियुक्तियों के खिलाफ भारत के राष्ट्रपति के पास एक वकील प्रशान्त पटेल ने शिकायत की और राष्ट्रपति ने इस शिकायत को चुनाव आयोग के पास भेजा तो कानूनी दांवपेंचो में फंस जाने के डर से अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में एक विधेयक पारित करके संसदीय सचिव के पद पर विधायकों की नियुक्ति को अवैध न मानने का कानून बना डाला मगर यह विधेयक दिल्ली के उपराज्यपाल के संज्ञान में लाये बिना पारित किया गया और इसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज दिया गया। इस विधेयक को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने अपनी मंजूरी नहीं दी। इसके साथ ही चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे गये मामले पर सुनवाई शुरू कर दी और आम आदमी पार्टी के विधायकों से इस बारे में स्पष्टीकरण मांगने शुरू कर दिये किन्तु तभी दिल्ली उच्च न्यायालय ने सभी संसदीय सचिवों की नियुक्ति को अवैध घोषित कर दिया। इसकी वजह यह थी कि केजरीवाल ने ये नियुक्तियां करते समय दिल्ली के उपराज्यपाल की मंजूरी नहीं ली थी।
अतः सभी नियुक्तियां गैर कानूनी घोषित हो गईं। पूरे मामले में एक तथ्य को बहुत बारीकी के साथ समझने की जरूरत है कि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है, इससे केजरीवाल सरकार ने समझा कि जब नियुक्ति ही अवैध हो गई है और विधायकों से सभी प्रकार की अतिरिक्त सुविधाएं वापस ले ली गई हैं तो चुनाव आयोग के लिए ज्यादा कुछ नहीं बचता है मगर यह पूरे मामले की एक पक्षीय सोच थी। क्योंकि केजरीवाल कानूनी तौर पर वह गलत काम कर चुके थे जिसकी इजाजत कानून नहीं देता था। अतः जो विधायक संसदीय सचिव पद पर रहे थे उन्होंने कानून तोड़कर ही काम किया था और लाभ के पद को भोगा था। चुनाव अधिनियम के तहत यह एेसा अपराध है जिससे कोई भी चुना हुआ विधायक या सांसद अपनी सदस्यता खो देता है। इसी डर से केजरीवाल ने जरूरत से ज्यादा होशियारी दिखाते हुए दिल्ली के सन्दर्भ में संसदीय सचिव पद को लाभ के पद से बाहर रखने की गरज से कानून तक बनाने की हिमाकत कर डाली थी और इसे पूर्व काल से प्रभावी बनाने की व्यवस्था की थी मगर किसी भी अपराध को खत्म करने का कानून कभी भी पूर्वकाल से लागू नहीं हो सकता। जो भी कानून बनता है वह आगे से ही लागू होता है। इतने से कानूनी पेंच को केजरीवाल जानबूझ कर समझना केवल इसलिए नहीं चाहते थे क्योंकि केन्द्र में उनकी विरोधी पार्टी भाजपा की सरकार थी और दिल्ली के उपराज्यपाल से उनका 36 का आंकड़ा रहता था मगर लोकतन्त्र में संवैधानिक नियम ही सर्वोपरि होते हैं।
राजनीतिक जुमलेबाजी उनका विकल्प किसी सूरत में नहीं हो सकती। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि केजरीवाल को मालूम था कि संसदीय सचिवों की थोक के भाव नियुक्ति करके वह गलत काम कर चुके हैं इसी वजह से तो वह कानून ही बदलना चाहते थे मगर अब उनकी पार्टी के नौसिखिये नेता चुनाव आयोग को निशाना बनाकर राजनीति करना चाहते हैं। उनका कहना है कि चुनाव आयोग ने उनकी सुनवाई ही नहीं की। चुनाव आयोग पिछले वर्षों में 11 बार आप के विधायकों को नोटिस भेज चुका है लेकिन अब सुनवाई का वक्त खत्म हो चुका है क्योंकि सभी कुछ दूध का दूध और पानी का पानी आम जनता के सामने आ चुका है। 1. संसदीय सचिवों की नियुक्ति की क्या जरूरत थी? 2. संविधानतः इन नियुक्तियों की उपराज्यपाल से मंजूरी क्यों नहीं ली गई? 3. नियुक्तियां जब उच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दीं तो विधायकों से हर्जाना क्यों नहीं वसूला गया? 4. लाभ के पद से विधायकों को बाहर लाने के लिए विधानसभा में अपने प्रचंड बहुमत के आधार पर हर मनमाना कानून बनाने का विधेयक लाने का क्या औचित्य था? 5. जब मामला चुनाव आयोग के पास पहुंच गया था और उच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्तियों को अवैध करार दे दिया था तो विधायकों ने नैतिकता के आधार पर अपनी सदस्यता से इस्तीफा क्यों नहीं दिया? 6. लाभ के पद के मामले में पहले से ही पेश नजीरों की अनदेखी उस आम आदमी पार्टी ने क्यों की जो सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता और सादगी का ढिंढोरा पीटती रही है?