नई दिल्ली : भारतीय हॉकी पर सरसरी नज़र डालें तो फिलहाल काफ़ी कुछ ठीक-ठाक चल रहा है। महिला और पुरुष सीनियर टीमों ने अपने प्रदर्शन और फिटनेस स्तर को उपर उठाया है। फिर भी आम हॉकी जानकार और हॉकी प्रेमी तब तक संतुष्ट होने वाले नहीं हैं जब तक हॉकी आम आदमी का खेल नहीं बन जाती और भारतीय हॉकी टीम विश्व और ओलंपिक खिताब नहीं जीत लेती। लेकिन सबसे बड़ी चिंता यह है कि देश भर में हॉकी खिलाड़ियों के लिए नौकरी और रोजगार लगातार घट रहा है। अन्य खेलों की तरह भारतीय रेलवे ही हॉकी खिलाड़ियों क़ी बड़ी उम्मीद के रूप में खड़ी है। रेलवे मे दर्जनों हॉकी खिलाड़ी सेवारत हैं। लेकिन कुछ साल पीछे चलें तो भारतीय सेना, पुलिस, बैंकों और बीमा कंपनियों में खिलाड़ियों के लिए दरवाजे खुले थे।
कई ओलंपियन इन्हीं विभागों से निकल कर राष्ट्रीय टीम में शामिल हुए। आज हालत बदल चुके हैं। कुछ तेल कंपनियों ने ज़रूर खिलाड़ियों की भरती में रूचि दिखाई है पर अब उनका जोश भी ठंडा पड़ने लगा है। ओएनजीसी, इंडियन आयल, भारत पेट्रोलियम, आदि के अधिकारियों को इस बात की शिकायत है कि उनके द्वारा नियुक्त खिलाड़ी शायद ही कभी विभाग के लिए खेल पाते हैं। कारण, ज़्यादातर खिलाड़ी राष्ट्रीय कैंप में व्यस्त रहते हैं या विदेश दौरों पर होते हैं। उन्हें अपने विभाग के लिए खेलने का समय ही नहीं मिल पता। हॉकी के लिए एक बड़ी बाधा उसका विस्तार नहीं हो पाना है।
बहुत कम राज्य हैं जोकि अपनी वार्षिक लीग का आयोजन कर पाते हैं। पंजाब, हरियणा, दिल्ली, महाराष्ट्र, झारखंड, उड़ीसा आदि प्रदेशों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आयोजन लगातार कम हो रहे हैं। ऐसे में खिलाड़ियों को प्रतिभा दिखाने और स्तर उंचा उठाने का मौका नहीं मिल पाता। हैरानी वाली बात यह है कि जिन राज्यों में एस्ट्रोटर्फ के मैदान हैं, उनके पास गतिविधियों की कमी है और जहां खिलाड़ियों की संख्या ज़्यादा है उन्हें खेलने के लिए मैदान नहीं मिल पाते तो फिर हॉकी कैसे तरक्की कर पाएगी। हज़ारों खिलाड़ी खेल रहे हैं जिनमे से कई हज़ार नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं। उनका भविष्य कदापि सुरक्षित नहीं है।
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(राजेंद्र सजवान)