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समान नागरिक आचार संहिता

भारत के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता का मुद्दा आजादी के बाद से ही मुखर रहा है और देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान को देखते हुए इसकी आवश्यकता भी महसूस की जाती रही है।

भारत के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता का मुद्दा आजादी के बाद से ही मुखर रहा है और देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान को देखते हुए इसकी आवश्यकता भी महसूस की जाती रही है। यह प्रश्न भी नागरिकों को भ्रम में डालता रहा है कि जब भारत का संविधान प्रत्येक मजहब और मत के व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के समान अधिकार प्रदान करता है तो इन लोगों के लिए हर स्तर पर एक समान नियम लागू क्यों न हों? ये नियम फौजदारी मामलों में जब एक समान लागू होते हैं तो घरेलू व सम्बद्ध नागरिक मामलों में भी इनके एक समान रूप से लागू होने में क्या दिक्कत है? इसके सीधे तार भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़ते हैं क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने बहुत ही चालाकी के साथ देश की मुस्लिम जनता को इस आजादी के संघर्ष से अलग-थलग करने की चाल 1909 में ही चल दी थी। 1906 में संयुक्त भारत में मुस्लिम लीग पार्टी की स्थापना की गई और 1909 में अंग्रेजी सरकार ने मुसलमानों को पृथक निर्वाचक मंडल दे दिया। इसके अनुसार मुस्लिम नागरिक केवल मुसलमान प्रत्याशियों का चुनाव ही तत्कालीन परिषदों में कर सकते थे। 
अंग्रेजों ने मुसलमान नागरिकों के धार्मिक कानूनों को भी तत्कालीन प्रचलित नागरिक कानून से अलग रखा और 1936 में उनके घरेलू झगड़ों व सम्पत्ति के पारिवारिक विरासत आदि के मसले हल करने के लिए इस्लामी कानून ‘शरिया’ को वैधता प्रदान की। परन्तु इससे पहले ही भारत में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए पृथक देश पाकिस्तान की मांग उठानी शुरू कर दी थी। हालांकि तब तक इस मांग को मुसलमानों के कुछ जमींदार व संभ्रान्त व रईस कहे जाने वाले तबकों का ही समर्थन प्राप्त था। परन्तु अंग्रेजों ने कानूनी तौर पर हिन्दू व मुस्लिम जनता के बीच भेद का बीज बो दिया था जिसकी परिणिती 1947 में भारत के बंटवारे के रूप में हुई और पाकिस्तान का निर्माण हुआ। परन्तु 1947 में आजादी के बाद जब भारत का संविधान बन रहा था तो संविधान सभा में एक समान नागरिक आचार संहिता को लेकर भी गरमागरम बहस होती रही लेकिन पाकिस्तान बन जाने के बाद भारत में बचे मुसलमान नागरिकों के भीतर अपनी धार्मिक आजादी का भाव जगाये रखने के खातिर देश के रहनुमाओं ने तब एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करना उचित नहीं समझा और संविधान के निदेशक सिद्धान्तों में इसका उल्लेख कर देना बेहतर समझा जिससे यथोचित समय पर इसे लागू किया जा सके। परन्तु आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बावजूद अगर हम लकीर के फकीर ही बने रहते हैं तो हमारी वैज्ञानिक वैचारिक प्रगति का क्या अर्थ रह जाता है। मूल प्रश्न यह खड़ा किया जाता रहा है कि एक ही देश के अलग- अलग धर्म मानने वाले लोगों के लिए अलग-अलग कानून कैसे हो सकते हैं जबकि भारत सरकार का किसी धर्म या मजहब से कोई लेना-देना नहीं है। यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी बार-बार आया है और हर बार देश की सबसे बड़ी अदालत ने सरकार को इस पर विचार करने का सुझाव दिया है। 
2016 में केन्द्र सरकार ने इस बारे में विचार करने के लिए चौहान समिति का गठन किया था जिसने अपनी रिपोर्ट 2018 में दे दी परन्तु उस समिति की रिपोर्ट को सरकार ने ‘सुझावों’ की श्रेणी में रखा। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि मामला इतना सरल नहीं है जितना कि समझा जा रहा है। इसमें कई पेचीदा सवाल भी जुड़े हुए हैं जो भारत की सामाजिक विभिन्नता और इसकी विविध सांस्कृतिक मान्यताओं से सम्बन्ध रखते हैं। खासकर देश के विभिन्न इलाकों में आदिवासी व जन जातीय परंपराओं और घरेलू नियमों को लेकर। 
भारत के संविधान की अनुसूची छह व सात में ऐसी जातियों के संरक्षण की व्यवस्था की गई है और उनकी परंपराओं को मान्यता दी गई है। परन्तु भारत का संविधान ही राज्यों को परिवार व उसकी व्यवस्था के बारे में अधिकार प्रदान करता है जिसे देखते हुए उत्तराखंड व गुजरात की सरकारों ने अपने क्षेत्र में समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के बारे में विशेषज्ञ समितियां गठित कीं। इन समितियों के गठन को सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करके चुनौती दी गई थी जिसे प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वी. चन्द्रचूढ़ व न्यायमूर्ति नरसिम्हा की खंडपीठ ने निरस्त करते हुए आदेश दिया कि ऐसी याचिका पर सुनवाई नहीं की जा सकती क्योंकि राज्यों को संविधान के अनुसार ऐसा करने का अधिकार है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक राज्य यदि चाहे तो अपने प्रशासन क्षेत्र में पारिवारिक व्यवस्था के सन्दर्भ में सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून व नियम बना सकता है। यदि हम समग्र सन्दर्भों में भारत की एकता के बारे में सोचें तो एक समान नागरिक आचार संहिता देश की मजबूती के लिए आवश्यक लगती है क्योंकि कानून के समक्ष जब प्रत्येक नागरिक को बराबर तोला जाता है और इसमें स्त्री-पुरुष का भेद नहीं रखा जाता तो यह कैसे संभव है कि मुस्लिम समाज की महिलाएं अपने धार्मिक कानून व रवायतों के चलते दोयम दर्जे के नागरिक बने रहने को मजबूर रहें। उन्हें भी वही स्वतन्त्रता और अधिकार मिलने चाहिएं जो भारत की हिन्दू महिलाओं को मिलते हैं। रूढि़यों को जब कानून मान लिया जाता है तो व्यक्ति का विकास वहीं अवरुद्ध हो जाता है। यह हकीकत मुस्लिम समाज को भी समझनी चाहिए क्योंकि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। समय का पहिया कभी पीछे नहीं बल्कि हमेशा आगे ही घूमता है। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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