सर्वप्रथम यह समझ लिया जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर को अब अनुच्छेद 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा कभी नहीं मिल सकता, क्योंकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस अनुच्छेद की समाप्ति को पूर्णतः संवैधानिक व वैध करार दिया है। अब केवल सर्वोच्च न्यायालय ही किसी पुनर्रीक्षा याचिका की मार्फत अपने पुराने फैसले की समीक्षा कर सकता है। भारत की संसद ने विगत 5 अगस्त 2019 को पूर्ण बहुमत के आधार पर संसद के दोनों सदनों में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया और जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केन्द्र शासित क्षेत्रों में विभाजित कर दिया, जबकि 35(ए) के प्रावधान को राष्ट्रपति महोदय ने समाप्त कर दिया। बेशक 35(ए) के तहत भी जम्मू-कश्मीर के लोगों को विशेषाधिकार मिले हुए थे, जिसमें उनकी नागरिकता व सम्पत्ति के अधिकारों का संरक्षण था, मगर 370 को जम्मू-कश्मीर में तभी लागू कर दिया गया था जब भारत के पहले राष्ट्रीय नेहरू मन्त्रिमंडल में भाजपा (जनसंघ) के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी केबिनेट स्तर के उद्योग मन्त्री थे।
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ में विलय 15 अगस्त, 1947 के बाद ही 26 अक्तूबर, 1947 को हुआ था। इसकी विलय शर्तें ठीक वैसी ही थीं जैसी कि मैसूर रियासत या अन्य बड़ी रियासतों के भारत में विलय होते वक्त थीं। मैसूर रियासत का विलय तो भारतीय संघ में 14 अगस्त, 1947 को ही हुआ था मगर जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह चाहते थे कि उनकी रियासत न पाकिस्तान के साथ जाये और न भारत के बल्कि स्वतन्त्र देश के रूप में रहे। इसी वजह से उन्होंने भारत व पाकिस्तान दोनों के साथ अगस्त 1947 मे स्टैंड स्टिल (यथास्थिति परक) समझौता किया था जिस पर पाकिस्तान ने तो हस्ताक्षर कर दिये थे, मगर प. जवाहर लाल नेहरू ने हस्ताक्षर नहीं किये थे।
भारत ने इस समझौते को बरतरफ कर दिया था और प. नेहरू ने कहा था कि एेसे समझौते का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर रियासत पर पाकिस्तान की टेढ़ी नजर है, जबकि एेतिहासिक दस्तावेज हमें बताते हैं कि भारत के गृहमन्त्री सरदार पटेल उस समय हैदराबाद रियासत को लेकर बहुत चिन्तित थे और उनका पूरा ध्यान इसी रियासत की तरफ था। पटेल चाहते थे कि निजाम हैदराबाद को अपनी रियासत का भारतीय संघ में विलय जल्द से जल्द करना चाहिए, क्योंकि निजाम अपनी रियासत को स्वतन्त्र रखने के लिए राष्ट्रसंघ तक में पहुंच गये थे अतः पं. नेहरू जो कि स्वयं कश्मीरी थे, चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में होना चाहिए।
यह भी एेतिहासिक सत्य है कि पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना भी उस समय निजाम हैदराबाद को बरगला रहे थे और उनकी कोशिश थी कि किसी भी तरह हैदराबाद पाकिस्तान में अपने को मिला ले। इसके पीछे सरदार पटेल की पैनी निगाह थी और वह निजाम हैदराबाद को सबक सिखाना चाहते थे। यह काम उन्होंने अन्त में किया और 1949 में पुलिस आपरेशन पोलो चलाकर हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय कराया। उधर पाकिस्तान ने कबायलियों के भेष में अपनी फौजियों को कश्मीर में भेजकर सितम्बर 1947 में कश्मीर में आक्रमण कर दिया और यह काम अक्तूबर महीने तक चालू रहा।
जब पाकिस्तानी कबायली 24 अक्तूबर को श्रीनगर पहुंचने ही वाले थे तो कश्मीर के महाराजा की फौज पाकिस्तान के सामने टिक नहीं पाई तो उन्होंने भारत की मदद मांगी और पं. नेहरू इसके लिए तुरन्त तैयार हो गये। हालांकि उस समय तक भारतीय व पाकिस्तानी दोनों फौजों के ही कमांडर अंग्रेज आला अफसर थे और भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंट बेटन थे। एक प्रकार से शासनाध्यक्ष वही थे। अतः नेहरू जी ने माउंटबेटन की सलाह लेने के साथ महात्मा गांधी की भी सलाह ली और गांधी जी ने अपने पूरे जीवन में पहली हिंसा का समर्थन करते हुए कहा कि भारत को कश्मीर में अफनी फौजें तुरन्त भेजनी चाहिए। उस समय तक हरि सिंह अपनी रियासत का भारतीय संघ में विलय करने के लिए राजी हो गये थे। गांधी जी ने तब कहा था कि एक फौजी का धर्म अपने देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए लड़ना होता है, अतः फौज को अपना धर्म निभाना चाहिए मगर महाराजा हरिसिंह कुछ विशेष शर्तों के साथ भारत में विलय को तैयार हुए थे। उनके राज्य में पहले से ही नेशनल कान्फ्रेंस के नेता शेख मुहम्द अब्दुल्ला राजतन्त्र के खिलाफ जन आन्दोलन चला रहे थे जिसमे वह सफल रहे थे और महाराजा हरिसिंह को उनकी लोकप्रियता का लोहा मानना पड़ा था।
शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान निर्माण के सख्त विरोधी थे और उन्होंने जिन्ना की मुस्लिम लीग को जम्मू-कश्मीर में पैर तक नहीं धरने दिया था जबकि इस राज्य में मुस्लिम बहुसंख्यक थे। 8 अगस्त 1947 को शेख अब्दुल्ला ने श्रीनगर में एक विशाल जनसभा करके कहा था कि जब तक मेरे जिस्म में खून का एक भी कतरा बाकी है पाकिस्तान नहीं बन सकता। वह मजहब के आधार पर भारत के विभाजन के मूल रूप से विरोधी थे हालांकि 1953 के बाद जम्मू-कश्मीर की राजनीति में बदलाव आया और शेख अब्दुल्ला को कराची साजिश के आरोप में रियासत के ‘प्रधानमन्त्री’ पद से हटा कर नजरबन्द कर दिया गया।
श्री अडवानी ने तब कहा था कि यह पं. नेहरू की दूरदर्शिता थी क्योंकि वह कश्मीर के भारत में विलय को आम जनता की स्वीकृति भी दिलाना चाहते थे, मगर अनुच्छेद 370 का जहां तक सवाल है तो यह महाराजा हरि सिंह के इसरार पर ही भारतीय संविधान में नत्थी किया गया था और इसे अस्थायी प्रावधान करार दिया गया था।
सवाल यह है कि जब यह अस्थायी प्रावधान था तो वर्तमान गृहमन्त्री अमित शाह ने इसे समाप्त करके क्या गलती की जो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इतना कोहराम मचाया जा रहा है और इसे वापस लाने के लिए प्रस्ताव पारित किया जा रहा है।
यह केवल राजनीतिक अखाड़ेबाजी के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि स्वयं इस प्रस्ताव के प्रस्तावक जानते हैं कि वर्तमान मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला 2023 में अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रैस के कार्य क्रम अड्डा में यह कबूल कर चुके हैं कि 370 को हमें भूल जाना चाहिए यह अब वापस आने वाली नहीं है फिर भी सर्वोच्च न्यायालय पर ही सब कुछ निर्भर करता है क्योंकि तब तक न्यायालय ने अपना फैसला नहीं दिया था। मगर उमर अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने की बात जरूर कही थी जिसे केन्द्र की सरकार ने भी अब माना है और अब्दुल्ला सरकार के इस आशय के पारित प्रस्ताव को विचारार्थ स्वीकार कर लिया है। अतः तस्वीर शीशे की तरह साफ है कि अनुच्छेद 370 की बात करना अब अलगाव वाद के समान ही है क्योंकि पूरे भारत की जनता इस उपबन्ध के खिलाफ भावनात्मक रूप से रही है। इसे वापस लाने की बात करना राष्ट्र के हित में नहीं माना जायेगा। जब यह उपबन्ध लागू हुआ था तब परिस्थितियां पूरी तरह अलग थीं और भारत नया-नया स्वतन्त्र हुआ था। उस समय तक तो भोपाल रियासत तक भारतीय संघ का हिस्सा नहीं बनी थी। अब तो भारत को पाक अधिकृत कश्मीर लेने की बात सोचनी चाहिए।