राजधानी दिल्ली में शीत ऋतु के दस्तक देते ही वायु प्रदूषण की समस्या जिस तरह बढ़ती जा रही है। वह निश्चित रूप से दिल्ली वासियों के लिए चिन्ता की बात है। इसी खतरे को भांपते हुए केन्द्र सरकार ने खेतों में पराली या पुराल जलाने के लिए जुर्माने की सजा दुगनी कर दी है, मगर पराली जलाने की ही वजह से केवल वायु प्रदूषण नहीं होता है, बल्कि इसके और भी बहुत से कारण हैं। दिल्ली में इसका सबसे बड़ा कारण वाहनों की बढ़ती संख्या है। मोटर वाहनों से निकलने वाले धुएं या गैसों से प्रदूषण सबसे ज्यादा होता है। वायु में ये वाहन हल्का जहर घोलते रहते हैं, जिसका हमें पता भी नहीं चलता। दूसरी ओर इन वाहनों की संख्या हर साल दिल्ली में बेतहाशा बढ़ती जा रही है। इनकी संख्या को सीमित करने का कोई उपाय अभी किसी सरकार के पास नहीं है, क्योंकि भारत एक विकास करता हुआ देश है और औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना इसका ध्येय भी है। मोटर वाहन उद्योग की प्रगति व विकास देखना भी सरकार का कार्य है। औद्योगिक विकास का सम्बन्ध सीधा रोजगार सुलभता से जाकर जुड़ता है और हम जानते हैं कि भारत में बेरोजगारी की दर किस कदर ऊपर भाग रही है। अतः मोटर वाहनों की संख्या को नियन्त्रित करने का जोखिम भारत नहीं ले सकता है।
दिल्ली में फिलहाल 80 लाख के करीब मोटर वाहन हैं, जबकि इसकी आबादी ढाई करोड़ के लगभग है। इसके साथ ही हर रोज कम से कम 11 लाख वाहन दिल्ली में पास पड़ोस के राज्यों से रोज आते हैं। इनमें नोएडा, गाजियाबाद व गुड़गांव व आसपास के हरियाणा के शहरों के वाहन भी शामिल हैं। वाहनों से जो प्रदूषण हवा में होता है उसका हिस्सा 51 प्रतिशत से अधिक है। यह तथ्य हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से निकल कर बाहर आया है। अतः इस मोर्चे पर एसे कदम उठाये जाने की जरूरत है जिससे वाहनों की संख्या बढ़ने पर भी प्रदूषण में बढ़ौतरी न हो सके। इस बारे में दिल्ली सरकार व केन्द्र सरकार जरूरी कदम उठा भी रही है। मसलन बिजली ऊर्जा से चलने वाले वाहनों को तरजीह दी जा रही है। एेसे वाहनों की बिक्री को बढ़ाने के लिए सरकारें वाहन मालिकों को खरीदारी के वक्त ही सब्सिडी भी दे रही हैं। इसके बावजूद बिजली से चलने वाले वाहनों की संख्या दिल्ली में तीन प्रतिशत से अधिक नहीं है।
केन्द्रीय सड़क परिवहन मन्त्री श्री नितिन गडकरी भी इस मोर्चे पर बहुत सक्रिय हैं और वह चाहते हैं कि 2030 तक कम से कम दिल्ली में बिजली चालित वाहनों की संख्या 50 प्रतिशत हो जाये। इसके साथ ही बिजली की कारों को उत्पादित करने वाली कम्पनियों को भी केन्द्र सरकार विशेष रियायतें दी रही हैं। बेशक हम इन मोर्चों के अलावा वाहन ईंधन के मोर्चे पर भी मुस्तैदी से लगे हुए हैं और अधिकाधिक वाहनों को पैट्रोल से सीएनजी गैस ईंधन पर लाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे प्रदूषण कम से कम हो। मगर हर प्रयास की अपनी सीमा होती है। पैट्रोल व डीजल के लगातार महंगा होते जाने के बावजूद अकेले दिल्ली में ही हर साल कम से कम छह लाख वाहन नये जुड़ जाते हैं। यह तब है कि जबकि केन्द्र ने डीजल से चलने वाले दस साल पुराने वाहनों को व पैट्रोल से चलने वाले 15 साल पुराने वाहनों को दिल्ली की सड़कों पर चलने के अयोग्य ठहरा दिया है। मगर महानगरों में हमें सार्वजनिक परिवहन की समस्या की तरफ भी ध्यान देना होगा। इस तरफ ध्यान न दिया गया हो एेसा भी नहीं है, क्योंकि राजधानी में मैट्रो रेल परियोजना इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए शुरू की गई थी।
मैट्रो से दिल्ली की बढ़ती आबादी को देखते हुए सार्वजनिक यातायात को सांस लेने की सुविधा तो प्राप्त ही है मगर इसी अनुपात में दिल्ली की आबादी भी हर साल बढ़ी है। इसके कारण बहुत विशद हैं जिनका सम्बन्ध भारत के विकास के ढांचे से जुड़ा हुआ है। मुख्य कारण यह है कि हमने अपने शहरों का विकास गांवों की कीमत पर किया है और इन्हें ही रोजगार पाने व पूंजी निवेश का मुख्य केन्द्र बनाया है। जहां तक गावों में पराली जलाने का सवाल है तो हम शहरों की हर समस्या के लिए गांवों पर दोष नहीं मढ़ सकते हैं। पराली जलाने की घटनाएं बेशक पहले से कम हुई हैं मगर इसमें किसानों का इतना दोष नहीं है क्योंकि सदियों से अपनी जमीन की उर्वरा क्षमता को बरकरार रखने के लिए वे इस परंपरा को चला रहे हैं, जो नई वैज्ञानिक तकनीक पराली को गलाने या ठिकाने लगाने के लिए हमने निकाली वह किसानों की पहुंच से अभी तक बाहर है। अतः वायु प्रदूषण को रोकने के लिए हमें सभी पक्षों पर सम्यक रूप से विचार करना होगा और अपने महानगरों को प्रदूषण मुक्त बनाना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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