अगर हाेली की बात की जाए तो यह भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा रंगीला और मस्त त्यौहार है लेकिन जिस तरह से त्यौहारों पर आधुनिकता हावी है तो होली का त्यौहार भी इससे अछूता नहीं रहा। महज 20-25 साल पहले जिस तरह से होली मनाई जाती थी और जिस तरह आज मनाई जा रही है इन दोनों में बहुत अंतर आ चुका है। गुजरे जमाने की होली मनाने की परम्परा अब ऐसे लगता है कि जैसे वह पुरानी आन-बान-शान और हंसी मजाक लुप्त हो रहा है। गलियों-मोहल्लों में होलिका दहन पर अर्थात एक दिन पहले मंगल गीत गाए जाते थे और महिलाओं के अलग ग्रुप होते थे, पुरुषों के अलग और मांगलिक गीतों का ऐसा कम्पीटीशन होता था, होलिका दहन के बाद सब घरों को लौट जाते थे और अगले दिन सभी के घर जाकर गुलाल लगाया जाता था।
आज की तारीख में होली आधुनिक रूप ले चुकी है और कहते है कि सभ्य लोग इससे दूर होने लगे हैं। बाजार से रैिडमेड गुज्जियां डिब्बों में सजाकर उपहार में देने का रिवाज तो है लेकिन प्यार की मिठास नहीं है। सोशल मीडिया पर इसके बारे में शेयर किया जा रहा है कि अब सिर्फ दिखावा रह गया है। प्राकृतिक दृष्टिकोण से होली जो मार्च में आती है उस समय सर्दी की विदाई और गर्मी का आगमन हो रहा होता है। अगर एक-दूसरे को प्राकृतिक रंग लगाया जाए या भगवान कृष्ण के प्रेम को दर्शाने के लिए गीला रंग भी लगा दिया जाए तो एक परम्परा के तौर पर इसे स्वीकार किया जाता था लेकिन अब कैमिकलों से भरे रंग हमारी त्वचा को काफी नुक्सान पहुंचा देते हैं। अनेक विशेषज्ञ लोग आजकल सोशल मीडिया पर स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़े कारणों का हवाला देते हैं। मेरे व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि फूलों के रंग त्वचा को नुक्सान नहीं पहुंचाते हैं, यह बात डाक्टरों की एडवाइजरी पर आधारित है। टेसू के फूलों का रंग मानवीय शरीर पर सकारात्मक प्रभाव डालता है और जीवन में एक नई उमंग और ऊर्जा प्राप्त होती है लेकिन सूखे रंगों में रसायन की मिलावट घातक परिणाम उत्पन्न करती है, इसीलिए लोग इससे बचने की कोशिश करते हैं लेकिन यह तय है कि होली को लेकर लोगों का उत्साह हमेशा सातवें आसमान पर होता है।
दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में हाेली पर ठिठोलियों के लिए मूर्ख सम्मेलन हुआ करता है। जिसमें सब छोटे-बड़े और प्रसिद्ध हस्तियां शामिल होती हैं लेकिन होली की असली गरिमा तो रंगों से ही जुड़ी है। अलग-अलग तरीके से एक-दूसरे को बधाई देने लगे हैं।
''आओ उदासी भगाएं, खुशियों के रंग भरें,
जिन्दगी एक मस्ती है, जिसमें होली का रंग भरें,
भगवान कृष्ण की तरह जीवन में मस्त रहें,
सबका सम्मान करें, होली में मस्त-मस्त रहें।''
यह सच है कि हमें प्राकृति के बारे में सोचना चाहिए और सबका फर्ज है कि वह स्वास्थ्य का ध्यान रखें। रंगों के त्यौहार होली को सनातन हिन्दू संस्कृति के मुताबिक मनाएं। होली को लेकर फिल्मों में तरह-तरह के गीत आज भी प्रचलित हैं। खुद भगवान ने ऊंच-नीच और जात-पात तथा मतभेद भुलाकर होली मनाए जाने का वर्णन किया है। भक्त प्रहलाद से जुड़ा होलिका दहन और हिरण कश्यप का वध हर कोई जानता है। फागुन के महीने का यह पर्व इसीलिए धार्मिक मूल्य रखता है। मथुरा और वृृंदावन में लट्ठमार होली तथा बांके बिहारी मंदिर में फूलों की होली देखने के लिए पूरी दुनिया के पर्यटक देखने आते हैं। यह हमारी होली की पवित्रता है जिसे दुनिया के पर्यटक कैमरों में कैद करके पूरी दुनिया को दिखाते हैं। इसे ही धर्म की जय और आपसी सद्भावना के रूप में दर्शाया जाता है। श्रीकृष्ण सागर में बाल कृष्ण ने एक बार अपनी मां यशोदा से राधा के गौरे रंग पर सवाल किया था और यह भी कहा कि मैं काला हूं और मुझे राधा का रंग दे दिया जाए। इसे लेकर अनेक गीत और छंद रचे गए हैं जिनकी गूंज नंदगांव और बरसाने से पूरे भारत में गूंजती है। यह एक सच्चा प्रेम है, यह सच्ची भक्ति है और यही होली की शक्ति है। इसीलिए मथुरा, वृंदावन में जो होली खेली जाती है वह कृष्ण और राधा की टोलियां बनकर एकात्म रूप से आपसी सद्भाव बढ़ाती हैं। होली की यही परम्परा है और प्यार भरा संदेश है जो रंगों से उड़ता है, रंगों से जुड़ता है-आओ इसी होली के रंग में रंग जाएं।