महाराष्ट्र के वर्तमान विधानसभा चुनावों में राजनीति का जो स्तर गिरा है उससे यह भ्रम पैदा हो रहा है कि क्या हम वैचारिक दिवालियेपन के दौर में राजनीति को धकेल रहे हैं । लोकतन्त्र के लिए यह स्थिति बहुत ही घातक है क्योंकि राजनीति से जब वैचारिक सोच गायब हो जाती है तो राजनीति लावारिस हो जाती है। चुनाव आम जनता के लिए राजनैतिक पाठशाला होते हैं जिसमें विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी पार्टी का सैद्धान्तिक दर्शन जनता के सामने रखते हैं। इनसे जनता में राजनैतिक जागरूकता आती है औऱ वह अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति सचेत बनती है। यह व्यर्थ ही नहीं है कि पचास के दशक में ही डा. राम मनोहर लोहिया ने यह नारा दिया था ,
राष्ट्रपति का बेटा हो या
चपरासी की हो सन्तान
टाटा या बिड़ला का छौना
सबकी शिक्षा एक समान
डा. लोहिया स्वतन्त्रता सेनानी थे और कांग्रेस के भीतर समाजवादी गुट के संवाहक थे। वह आचार्य नरेन्द्र देव, आचार्य कृपलानी व जय प्रकाश नारायण जैसे समाजवादी कांग्रेसियों की जमात में गिने जाते थे। मगर स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद समाजवादी गुट के नेताओं के कांग्रेस से मतभेद हुए और इन्होंने अपनी अलग समाजवादी पार्टी बनाई। आचार्य कृपलानी ने अपनी अलग किसान मजदूर पार्टी बनाई। हालांकि स्वतन्त्रता के बाद पहले वर्ष में आचार्य कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। डा. लोहिया भारत की शिक्षा प्रणाली में आधारभूत परिवर्तन चाहते थे और प्रत्येक अमीर-गरीब के बच्चे को एक जैसी शिक्षा सरकारी स्तर पर देने के हिमायती थे। उनके इस नारे से ही उनकी पार्टी की पूरी राजनीति अन्दर तक से स्पष्ट हो जाती है।
बाद में डा. राम मनोहर लोहिया के आचार्य नरेन्द्र देव से भी मतभेद हुए और दोनों की पार्टियां क्रमशः संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी व प्रजा सोशलिस्ट पार्टी अलग-अलग हो गईं। मगर डा. लोहिया ही स्वातन्त्रोत्तर भारतीय राजनीति में पहले इंसान थे जिन्होंने भारतीय समाज में पिछड़ी जातियों के लोगों को आगे बढ़ाने के बारे मेें सोचा। उन्होंने अपनी पार्टी के मंच से पिछड़े वर्ग के नेताओं को आगे बढ़ाया और चुनावों में उन्हें ज्यादा से ज्यादा टिकट देने का प्रयास भी किया। यह सनद रहनी चाहिए कि राम विलास पासवान व मुलायम सिंह यादव पहली बार 1967 के चुनावों में संसोपा के टिकट से ही चुनाव जीते और क्रमशः बिहार व उत्तर प्रदेश की विधानसभाओं के सदस्य बने। डा. लोहिया ने तब नारा दिया था।
संसोपा ने बांधी गांठ
पिछड़े पावैं सौ में साठ
किसी सच्चे राजनैतिक नेता की सोच कभी भी सीमित नहीं होती। उसकी निगाह देश की पेचीदा समस्याओं से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों तक रहती है। अतः डा. लोहिया हर उस समस्या पर अपने विचार खुल कर रखते थे जिनका किसी भी कोण से भारतीयों से लेना-देना हो। मसलन उन्होंने नारा दिया भाषा हो या बाना हो बस भारत का गाना हो।
डा. लोहिया आजादी की लड़ाई में हिस्सा ले चुके थे और जानते थे कि महात्मा गांधी ने भारतीयों की दास मानसिकता समाप्त करने की गरज से भारत में संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली की स्थापना करने का वचन 1928 में गठित मोती लाल नेहरू समिति की मार्फत दे दिया था। यह समिति भारत के संविधान का प्रारूप गड़ने के लिए गठित की गई थी जिसके सदस्य जवाहर लाल नेहरू भी थे और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भी तथा मौलाना आजाद भी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया था कि भारत कोई विभिन्न जातियों या साम्प्रदायिक समूहों का जमघट नहीं है बल्कि विभिन्न राज्यों व अंचलों का एक सांस्कृतिक संघीय देश है। अतः इसके राज्यों व संघ की सरकार के बीच आपसी सम्बन्धों का सौहार्दपूर्ण व सम्मानजनक होना बहुत जरूरी है परन्तु संघ की सरकार का शक्तिवान होना भी आवश्यक है। इस समिति ने राज्यों व केन्द्र की सरकार के बीच अधिकारों का बंटवारा किया।
बाद में चल कर जब भारतीय संविधान बना तो नेहरू समिति की इन सिफारिशों के अनुरूप ही लगभग केन्द्र व राज्यों के बीच अधिकारों का बंटवारा हुआ। इस समिति ने इसके साथ ही तभी यह घोषित कर दिया था कि स्वतन्त्र भारत में संसदीय चुनाव प्रणाली अपनाई जायेगी जिसमें राज्यों व केन्द्र की सरकारों के लिए अलग-अलग चुनाव होंगे और इन चुनावों में भारत के प्रत्येक नागरिक को एक समान रूप से बिना किसी जाति या धर्म के भेदभाव के एक वोट का अधिकार मिलेगा। एक प्रकार से गांधी ने 1930 में ही भारत में एक वोट का अधिकार प्रत्येक वयस्क नागरिक को देकर देश में मूक क्रान्ति का शंखनाद कर दिया था जो भारत के आजाद होने पर पूर्णतः लागू हुआ। अतः इस एक वोट के अधिकार के प्रयोग के लिए यदि आजकल के राजनीतिज्ञ मूढ़मति होने का परिचय दे रहे हैं तो लोकतन्त्र के लिए यह बहुत ही गंभीर बात है क्योंकि हम नहीं जानते कि इसके बाद राजनीति का स्तर और कहां तक नीचे गिर सकता है।
लोकतन्त्र में ‘देश’ से लेकर विदेश तक की राजनीति इसके स्तर से ही तय होती है। क्या कारण है कि जब महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव हो रहे हैं तो इन राज्यों में सत्ता पर काबिज राजनैतिक दल शिक्षा और स्वास्थ्य व महंगाई व बेरोजगारी जैसे विषयों पर जुबान खोलने से डर रहे हैं और उन मुद्दों पर बात हो रही है जिनका आम लोगों के जीवन से कुछ लेना देना नहीं है। चुनाव में हर बात पर हिन्दू-मुसलमान की बात हो रही है। क्या हिन्दू-मुसलमान भारत की समस्या है? यह समस्या तो 1947 में जब पाकिस्तान मुहम्मद अली जिन्ना और अंग्रेजों की साजिश से बना तो बहुत कुछ साफ हो गई थी क्योंकि भारत में जो भी मुसलमान इसके बाद रहे वे अपनी मर्जी से रहे और भारत के प्रति प्रेम की वजह से रहे। भारत के आम मुसलमान तो कभी पाकिस्तान का निर्माण चाहते ही नहीं थे और वे सच्चे राष्ट्रवादी मुसलमान थे। उनकी रोजी-रोटी और मादरे वतन हिन्दोस्तान ही था। ये मुसलमान मुत्तैहदा कौमियत के पैरोकार थे जिनकी अलम्बरदारी 1947 में देवबन्द के उलेमा कर रहे थे। हमें यह इतिहास कभी नहीं भूलना चाहिए।
कट्टरपंथी हिन्दुओं में भी हैं और मुसलमानों में भी। जिन्ना तो कांग्रेस पार्टी को हिन्दुओं की पार्टी कहता था और अंग्रेज इसे राष्ट्रवादी पार्टी मानते थे। अंग्रेजों को अपनी सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस पार्टी ही नजर आती थी क्योंकि यह पाकिस्तान निर्माण के पूरी तरह खिलाफ थी। आज की तारीख में हम भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रवादी पार्टी कहते हैं परन्तु इसके महाराष्ट्र के नेता देवेन्द्र फड़णवीस का क्या करेंगे जो कह रहे हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा दो साल पहले निकाली गई भारत जोड़ो यात्रा अराजकतावादियों का समूह थी। वह आह्वान कर रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े सभी संगठन राहुल गांधी द्वारा बनाये गये भारत-जोड़ों के विमर्श के खिलाफ राष्ट्रवादी विमर्श गढे़। यही वैचारिक खोलापन है जिससे भाजपा को सावधान होना होगा।
फड़णवीस ने सिद्ध कर दिया है कि उनकी पार्टी में अपने बूते पर राहुल गांधी द्वारा खड़े किये गये विचार के खिलाफ विमर्श तैयार करने की क्षमता नहीं है। राजनीति में वैचारिक परिपक्वता इसी वजह से इसकी प्रारम्भिक शर्त होती है। सवाल यह खड़ा हो रहा है कि भारत जोड़ने की तोड़ क्या हो सकती है ? सवाल कांग्रेस या भाजपा का नहीं बल्कि एक वोट का है जो इन चुनावों में राजनैतिक दलों का भविष्य तय करेगा और फड़णवीस कह रहे हैं कि ‘आ बैल मुझे मार’।