संपादकीय

संसद के विशेष सत्र का समापन

Aditya Chopra

संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र महिला आरक्षण विधेयक पारित करने के साथ ही समाप्त हो गया। अतः विशेष सत्र बुलाने के साथ इसका निहित कार्य या एजेंडा जिस तरह पहले गुप्त रखा गया था उसका खुलासा भी समय रहते होने के साथ यह स्पष्ट हो गया था कि विशेष सत्र का मुख्य कार्य महिला आरक्षण विधेयक ही होगा, वह पूरा हो गया। विधेयक दोनों सदनों में लगभग सर्वसम्मति से ही पारित हुआ, इसके लिए सभी राजनैतिक दल प्रशंसा के पात्र हैं। मगर इस विधेयक के क्रियान्वयन को लेकर जो विवाद और बहस विपक्षी पार्टी कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों द्वारा छेड़ी गई है उस तरफ भी देश की आम जनता का ध्यान गया है। विशेष रूप से जिस तरह श्री राहुल गांधी ने पिछड़े वर्गों की शासन में हिस्सेदारी को लेकर जो कुछ गंभीर सवाल संसद के भीतर और बाहर एक प्रेस कान्फ्रेंस में छाये हैं उनका सम्बन्ध भी महिला आरक्षण से जाकर जुड़ता है। राहुल गांधी सत्ता के विकेन्द्रीकरण की जल्दी में दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोग तर्क खड़ा कर सकते हैं कि वह एेसा तब कर रहे हैं जब उनकी पार्टी विपक्ष में है।
सत्ता का विकेन्द्रीकरण गांधीवाद का मूल और लोकतन्त्र की आधारशिला मानी जाती है। अतः कांग्रेस विरोधी विशेष रूप से भाजपा सवाल उठा सकती है कि जब कांग्रेस स्वयं सत्ता में थी तो उसने इस तरफ वांछित ध्यान क्यों नहीं दिया? इसका जवाब कांग्रेस पार्टी आसानी से पंचायती राज व्यवस्था लागू करने के फैसले का उदाहरण देकर कर सकती है। मगर इसका असली जवाब भारत का संविधान है जिसमें केन्द्र व राज्यों के अधिकारों का सम्यक व समुचित और न्यायोचित बंटवारा किया गया है। मगर ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि जो जीएसटी या वस्तुकर शुल्क प्रणाली लागू की गई उसमें राज्यों के सभी वित्तीय अधिकार एक मुश्त रूप से केन्द्र के अधीन क्यों कर दिये गये? शुल्क संशोधन के नाम पर संविधान मे संशोधन करके जिस तरह जीएसटी को देश में लागू किया गया उससे तो विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त को ही मरणासन्न अवस्था में खड़ा कर दिया गया। इसके लिए देश के सभी राजनैतिक दल एक समान रूप से जिम्मेदार ठहराये जा सकते हैं और सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस व भाजपा की ही बराबरी के तौर पर नियत की जा सकती है। मगर इससे श्री राहुल गांधी का यह तर्क कुन्द नहीं होता कि महिला आरक्षण में पिछड़े वर्ग की महिलाओं का भी आरक्षण किया जाये। उन्होंने तो यह तक स्वीकार कर लिया कि 2010 में मनमोहन सरकार के रहते जो महिला आरक्षण कांग्रेस पार्टी राज्यसभा में लायी थी वह त्रुटिपूर्ण था क्योंकि उसमें पिछड़े वर्ग की महिलाओं को आरक्षण नहीं दिया गया था। उन्होंने अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में कहा कि यह गलती मनमोहन सरकार से हुई थी। पिछड़ों के मामले में राहुल गांधी ने लोकसभा में कहा कि केन्द्र सरकार के कुल 90 सचिव स्तर के अधिकारियों में केवल तीन ही पिछड़े समाज के हैं जबकि इनकी आबादी बहुत ज्यादा है अतः सबसे पहले नई जातिगत जनगणना करके पिछड़े समाज की संख्या का पता लगाया जाये और उन्हें सत्ता में उसी के अनुपात में भागीदारी दी जाये।
फिलहाल बजट का केवल पांच प्रतिशत ही पिछड़े वर्ग के अधिकारी बनाते हैं। कुछ लोग खास तौर पर भाजपा इसे राहुल गांधी का मुख्य मुद्दे महिला आरक्षण से जनता का ध्यान भटकाने का जरिया भी बता सकते हैं। भाजपा का यह कहना अनुचित भी नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस ने अपने शासन के दौरान इन मुद्दों पर ध्यान देने का प्रयास नहीं किया। सवाल महिला आरक्षण विधेयक का ही है क्योंकि उसी से जाकर पिछड़ों के आरक्षण का मामला जुड़ता है। विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद कानून बन जायेगा मगर यह लागू तभी होगा जबकि पहले जनगणना और उसके परिसीमन आयोग का गठन हो जायेगा। मगर एक पेंच यह भी है कि 2001 में ही संसद कानून बना चुकी है कि आगामी 25 वर्षों तक संसद सदस्यों की संख्या जाम रहेगी और इसके बाद ही जनगणना करके सदस्यों की संख्या बढ़ाई जायेंगी। आबादी बढ़ने के साथ सांसदों की संख्या भी बढ़ती है। अतः वास्तव में जनगणना 2026 से ही शुरू की जा सकती है। इसी जनगणना के बाद सांसदों की संख्या आनुपातिक रूप से बढे़गी और उसमें एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जायेगी। ये आरक्षण परिसीमन आयोग के गठन के बाद ही होगा। मगर इस बार 2024 में लोकसभा के चुनाव हो जायेंगे। अतः इन चुनावों के बाद बनने वाली सरकार के पास यह अधिकार रहेगा कि वह मौजूदा महिला आरक्षण कानून में और संशोधन कर दे। इसका मतलब यह हुआ कि यदि नई सरकार चाहे तो 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के भीतर पिछड़ी जातियों की महिलाओं के आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है। अतः महिला आरक्षण कानून के लागू होने में जितना समय है उतना ही समय इसमें और संशोधन करने के लिए भी है। अर्थात महिला आरक्षण मुद्दे की राजनीति में फुटबाल बने रहने की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता है। लोकतन्त्र में एेसा अक्सर होता रहता है मगर इससे लोकतन्त्र कच्चा नहीं बल्कि और परिपक्व ही होता है। एेसा समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया मानते थे।