मणिपुर जिसका अर्थ है रत्नों की भूमि। पर्वत शृंखलाओं से घिरी एक ऐसी घाटी जिसमें 39 जातीय समुदाय रहते हैं जो हिन्दू, ईसाई और इस्लाम धर्म सहित विभिन्न धर्मों का पालन करते हैं, साथ ही सनमाही जैसी स्वदेशी धार्मिक परम्पराएं भी हैं। मणिपुर भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण है, इस बात का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि स्वतंत्र भारत का झंडा सबसे पहले राष्ट्रवादी मुक्ति सेना ने मणिपुर में ही फहराया था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 14 अप्रैल, 1944 को इम्फाल से 45 किलोमीटर दूर मोइरंग में ध्वज फहराया था। तब उसे दिल्ली का दरवाजा माना जाता था। आज मणिपुर दिल्ली की ओर देख रहा है। पिछले 2 सालों से मणिपुर हिंसा की आग में जल रहा है। जिरिबाम जिले में सीआरपीएफ कैम्प पर हमला करने वाले संदिग्ध उग्रवादियों में से 11 को ढेर कर दिया गया। राज्य में कई जगह बमों से सुरक्षा बलों के जवानों पर हमला किया गया। एक सप्ताह के भीतर हमार जनजाति की एक महिला से मैतेई विद्रोहियों ने सामूहिक बलात्कार कर जिन्दा जला दिया। मैतेई समुदाय की एक और महिला को कुकी विद्रोहियों ने गोली मार दी। राज्य में लगातार हो रही हिंसा से गृहयुद्ध जैसे हालात नजर आ रहे हैं। हर जगह हिंसा के निशान देखे जा सकते हैं। बम के टुकड़े, धरती पर काली और सफेद राख, जले हुए घर, टिन की छतें और जल चुकी गाड़ियां।
मैतेई और कुकी समुदाय में खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि दोनों समुदाय अपने-अपने गांव में हमलों और गोलीबारी से बचने के लिए बंकर बनाए हुए हैं। ड्रोन और रॉकेट हमलों से बचने के लिए दूरबीनों से नजर रखी जा रही है। पाइपों के जरिये पम्पगन बनाकर रॉकेट दागे जा रहे है। पिछले 2 वर्षों से जारी हिंसा में 200 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि राज्य में हिंसा थम क्यों नहीं रही? दोनों समुदायों के पास अब ऐसे हथियार हैं जिनका इस्तेमाल आमतौर पर युद्ध में किया जाता है। सवाल यह भी है कि आखिर दोनों ही समुदायों के पास इतनी बड़ी संख्या में हथियार कहां से आए। हिंसा की शुरूआत तब हुुई थी जब मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से मैतेई समुदाय के लिए अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का विचार करने को कहा, जो मणिपुर में बहुसंख्यक आबादी है। हाईकोर्ट के फैसले से कुकी और नगा स्वदेशी समुदाय में आक्रोश फैल गया, जिसके बाद हिंसा की शुरूआत हो गई।
हालांकि विरोध-प्रदर्शनों को मणिपुर में हिंसा के सबसे तात्कालिक कारण के रूप में पहचाना जा सकता है लेकिन राज्य में कई वर्षों से स्वदेशी समुदाय के बीच तनाव बढ़ रहा है। उदाहरण के लिए, वर्तमान राज्य सरकार द्वारा स्वदेशी भूमि अधिकारों के मुद्दों को संभालने के तरीके को मुख्य रूप से राजधानी घाटी के आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले कुकी समुदायों को लक्षित करने के रूप में देखा गया है। पहाड़ी क्षेत्रों में आरक्षित वनों का सर्वेक्षण करने के प्रयासों को अफीम की खेती को कम करने का प्रयास बताया गया था लेकिन इसके परिणामस्वरूप कुकी गांवों में बेदखली हुई है। इस बीच, विवाद का एक अन्य मुद्दा स्वदेशी समुदायों के बीच वर्तमान भूमि असंतुलन है। मैतेई लोग पहले उल्लेखित पहाड़ी क्षेत्रों में भूमि नहीं खरीद सकते हैं लेकिन कुकी और अन्य जनजातीय समुदाय घाटी में भूमि खरीद सकते हैं। इसके अलावा, पड़ोसी म्यांमार में 2021 के सैन्य तख्तापलट के बाद शरणार्थियों की आमद विशेष रूप से सागाइंग क्षेत्र से, जिनके कुकी के साथ मजबूत संबंध हैं, ने भी मैतेई स्वदेशी समुदाय के लिए असुरक्षा की भावना को और बढ़ा दिया है। हालांकि संघर्ष में वास्तविक निर्णय लेने का अधिकार उन लोगों के पास है जो बंदूकों, ड्रग्स और राजनीति को नियंत्रित करते हैं लेकिन दोनों समुदायों में सबसे अधिक प्रभावित महिलाएं और बच्चे हैं। कुछ लोगों के एजेंडे के अनुरूप वर्तमान संघर्ष में विभिन्न जातीय समुदायों की पहचान को हथियार बनाया गया।
मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह पर पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं। दरअसल मुख्यमंत्री स्वयं मैतेई समुदाय से आते हैं। मैतेई समुदाय राजनीतिक रूप से प्रभावशाली है। आरोप यह भी है कि मुख्यमंत्री ने वोट बैंक की राजनीति के चलते मैतेई और कुकी समुदायों में विभाजन की ऐसी लकीर खींच दी जिसे पाटना अब केन्द्र सरकार के लिए चुनौती बन चुका है। हिंसा के चलते जख्म और गहरे होते गए। हजारों लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। केन्द्र ने हस्तक्षेप भी किया। गृहमंत्री अमित शाह ने वहां का दौरा कर हिंसा को शांत करने की कोशिश भी की। राज्य सरकार की लापरवाही के चलते उग्रवादी संगठन अपनी ताकत बढ़ाते गए। अगर राज्य सरकार गम्भीर होती तो दोनों समुदायों को आमने-सामने बिठाकर मसले का हल निकाला जा सकता था लेकिन दोनों समुदायों को वार्ता के लिए मेज पर लाने के कोई प्रयास नहीं किए गए। एन. बीरेन सरकार के रवैये से साफ है कि वह मुद्दे सुलझाना ही नहीं चाहती। अब हालात यह है कि हिंसा प्रति हिंसा की घटनाओं पर काबू पाना मुश्किल हो गया है और मणिपुर एक जटिल राज्य बन गया है।
मणिपुर के सभी समुदायों के लोगों ने वर्षों से बहुत कष्ट झेले हैं क्योंकि उन्होंने देखा है कि उनके चावल के खेत युद्ध के मैदान में बदल गए हैं और कुछ सत्ता के भूखे लोगों ने शांति को छीन लिया है जिन्होंने विभाजन की योजना बनाई है और हिंसा फैलाई है। नागरिक केंद्रित संवाद और नागरिक समाज को शामिल करना दशकों से चले आ रहे गहरे अविश्वास और ऐतिहासिक आघात को दूर करने की कुंजी होगी जिसने पूरे क्षेत्र में स्वदेशी समुदायों को ध्रुवीकृत कर दिया है। जरूरत इस बात की है कि दोनों समुदायों के टूटे हुए दिल और दिमाग शांत किए जाएं। मुद्दे का राजनीतिक हल निकाला जाए, इसके लिए केन्द्र सरकार को खुद ठोस कदम उठाने होंगे।